Thursday, March 11, 2010

धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने: जर्मनी डायरी

















मुझे जिगन आए हुए आज एक महीने हो गए.कहते हैं इस जाड़े में जितनी बर्फ़ यहाँ गिरी है, उतनी क़रीब 32 साल पहले गिरी थी.

बर्फ़ की मखमली सफ़ेद चादर में लिपटे सड़क, चौक-चौराहे, पेड़-पौधे, पार्क और जिगन विश्वविद्यालय का कैंपस.

धूप का एक टुकड़ा भी कितना सुकून देता है...आज पहली बार यहाँ धूप खुल के खिली है. मौसम बदल रहा है.

मुझे केदारनाथ अग्रवाल की कविता याद आ रही है..धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने/ मैके में आई बिटिया की तरह मगन है...

पुराने शहर की ओर घूमने जाना है. मैंने एक हल्का स्वेटर और ऊपर जैकेट डाल लिया है.

बाहर जितनी अच्छी धूप है उतनी तेज़ हवा. अज़रा कहती है कि आज पहले के मुक़ाबले ज्यादा ठंड है.

अज़रा के चेहरे पर बच्चों की सी मोहक मुस्कान तैर रही है.

'नहीं, मुझे ठंड नहीं लग रही है...सच!'

'हां, मुझे पता है कि तुम कभी नहीं कहोगे कि तुम्हें ठंड लग रही है... बस हँसते रहोगे...जब तुम बेवजह हँसते हो मैं समझ जाती हूँ कि तुम्हें ठंड लग रही है.'

मैं और ज़ोर से हँसने लगता हूँ...

पुराने शहर में घूमते हुए मुझे वहाँ की गलियाँ, स्थापत्य, गिरजे पहचानी हुई लगती हैं, न जाने क्यों. हां, फ़िल्मों-तस्वीरों में देखी, कहानियों और उपन्यासों में पढ़ी ये गलियाँ मेरे ज़ेहन में है.

भले ही एक ही महीने बीते हो, लेकिन ऐसा लगता है जैसे यहाँ आए कई महीने हो गए...सचमुच, जन संचार माध्यमों, भूमंडलीय संचार के साधनों ने कितना क़रीब ला दिया है हमें...दुनिया सिमट सी गई है.

क़रीब 700-800 साल पुराना है यह शहर. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान शहर का 80 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो गया था, फिर सब कुछ नए सिरे से रचा गया.

पुराने शहर में समय के थपेड़े खाता मध्ययुगीन कैसल जैसे हर आने-जाने वालों से कहता फिरता है: 'मैं बूढ़ा प्रहरी उस जग का/ जिसकी राह अश्रु से गिली.'

कुछ-कुछ फर्लांग की दूरी पर गिरजे दिख रहे है...वहाँ से गजर की आवाज़ आती रहती है...एक, दो, तीन...

'कुछ दिनों में यहाँ पर ख़ूबसूरत फूल खिलेंगे तब हम फिर आएँगे.' ठंड से उकताए लोग वसंत के आने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं.
अज़रा नीचे झुक कर कैसल के पास बने पार्क में उग आए कुमुदनी की कली तोड़ती है...’

छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा यह शहर ऊँचाई से ऐसे दिखता है जैसे धूप में माँ की गोद में कोई नन्हा शिशु लेटा हो. वो रही हमारी यूनिवर्सिटी.
मुझे अजमेर की याद हो आई...छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा.

अन्ना सागर और फायसागर झीलों के किनारे चलते हुए, कार्तिक महीने का चाँद कितना मायावी लगता था...वैसा ख़ूबसूरत चाँद हम फिर कहाँ देख पाए.

यहाँ बर्फ़ की स्निग्ध चाँदनी में चाँद की चमक फिकी है. पता ही नहीं चला पूरे चाँद की रात कब आई और चली गई...

3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा आलेख!!


केदारनाथ अग्रवाल की कविता है..

धूप खिली है चाँदी की साड़ी पहने/
मैके में आई बिटिया की तरह मगन है...

-अक्सर ही इस कविता को अहसास लेते हैं यहाँ कनाडा में.

Unknown said...

अरविंद
बारहवीं मे था मैं, गणित पढाने एक टीचर आए थे, दिसबंर का महिना था, प्रर्थना का समय था, वो आधी बाजू की कमीज़ पहने थे, सब गायत्री मंत्र भूल सिर्फ़ उन्हे देखते रहे.....नाम याद नही आ रहा उनका...पर उनकी मुस्कान अब तक याद है..मार्च मे पेपर हुए....गणित मे एक भी छात्र फ़ेल नही हुआ...ये रिकॉर्ड है....वो टीचर शायद बिहार के थे...

Arvind Das said...

@ उड़न तश्तरी साहब आपकी प्रशंसा हौसला अफ़जाई है. शुक्रिया. आशा है आप कुशल होंगे.
@ श्याम जी, आपके इन शब्दों ने मेरे दिल को छू लिया. इसलिए नहीं कि मैं बिहार से हूँ..बल्कि इतने प्यार से आपने एक प्रिय शिक्षक को याद किया. विश्वास कीजिए मैंने आपके इस टिप्पणी को लेकर एक दोस्त से जो भारत में शिक्षक हैं, क़रीब आधे घंटे फ़ोन पर बात की...शुक्रिया.