धुंधलकी शाम में
बारिश की हल्की फुहाड़ों के बीच
बर्फ़ीली पगडंडी से गुज़रते हुए
उस उदास गिरजे के पास
निर्मल वर्मा साथ हो लेते हैं मेरे
मुस्कुराते हुए
हौले से कहते हैं
'यह चमत्कार नहीं, सच है!'
सच जैसे
वह दिसंबर की शाम थी
दिल्ली की सर्द हवाओं में
उसकी चंपई नाक की नोंक पर
चमकती पसीने की बूँद
हरी घास पर टिके ओस की तरह...
फ़रवरी-मार्च की इन सफ़ेद रातों में
अक्सर वे मेरी नींद में आ जाते हैं
चुपके से
मेरे कानों में आवाज़ आती है
'बुरूस के लाल फूल लाए हो झूठे!'
और उसकी खिलखिलाती हुई हँसी
झिलमिलाती आँखों की कोर
सच जैसे
फ़रीदा ख़ानम की 'न जाने की ज़िद...'
पिक्चर पोस्टकार्ड उलटते-पुलटते
ज्योंही मेरी नज़र एक सुर्ख़ गुलाब पर टिक जाती है
इशारों से वे टोकते हैं
ये गर्मियों के दिन नहीं…
और मेरी ऑखें उन शब्दों के अर्थ ढूँढ़ने लगती है
जो समय के चहबच्चे में कहीं गुम गए
जैसे चेकोस्लोवाकिया...
बारिश की हल्की फुहाड़ों के बीच
बर्फ़ीली पगडंडी से गुज़रते हुए
उस उदास गिरजे के पास
निर्मल वर्मा साथ हो लेते हैं मेरे
मुस्कुराते हुए
हौले से कहते हैं
'यह चमत्कार नहीं, सच है!'
सच जैसे
वह दिसंबर की शाम थी
दिल्ली की सर्द हवाओं में
उसकी चंपई नाक की नोंक पर
चमकती पसीने की बूँद
हरी घास पर टिके ओस की तरह...
फ़रवरी-मार्च की इन सफ़ेद रातों में
अक्सर वे मेरी नींद में आ जाते हैं
चुपके से
मेरे कानों में आवाज़ आती है
'बुरूस के लाल फूल लाए हो झूठे!'
और उसकी खिलखिलाती हुई हँसी
झिलमिलाती आँखों की कोर
सच जैसे
फ़रीदा ख़ानम की 'न जाने की ज़िद...'
पिक्चर पोस्टकार्ड उलटते-पुलटते
ज्योंही मेरी नज़र एक सुर्ख़ गुलाब पर टिक जाती है
इशारों से वे टोकते हैं
ये गर्मियों के दिन नहीं…
और मेरी ऑखें उन शब्दों के अर्थ ढूँढ़ने लगती है
जो समय के चहबच्चे में कहीं गुम गए
जैसे चेकोस्लोवाकिया...
6 comments:
अद्भुत!
:)
लगता है निर्मल की रचना प्रक्रिया को समझने के लिए वहां आना पडेगा. बहुत खूबसूरत. दृश्य भी और कविता भी.
वाह, बहुत अच्छी कविता है। ऐसे किस को दिल में बसा कर लिखी है आपने। वो जरा बुरूंस के फूल वाली का पता देने का कष्ट करें। रिश्ते की बात तो हम कर ही आएंगे। चिंता मत कीजिएगा, जब तक लौट के नहीं आइएगा, उनको संभाल कर रखेंगे
@ उड़न तश्तरी साहब, बहुत बहुत शुक्रिया.
@ शुक्रिया मनीष!मिलने पर गंगा ढाबा, या फिर नीलगिरी पर कॉफ़ी :)
@ गंगा साहय, अच्छा लगा आपका कमेंट देख कर. शुक्रिया.
@ अमित जी, शुक्रिया तारीफ़ के लिए. यह कविता लिखते हुए निर्मल वर्मा ही दिलो-दिमाग़ में थे..बुरूंस के फूल वाली का पता यदि मुझे पता होता तो फिर यह कविता नहीं लिखी जाती...लिखने के बाद यह कविता मेरी कहाँ रह गई.. यदि यह कविता कहीं आपसे भी जुड़ पाई हो तो मुझे खुश़ी होगी..पता मैं आपसे नहीं पूछूंगा..
Arvind jee.. apni rachna se kab rubru karwa rahein hain.... dil ko sukun aaki hi rachna mein milega
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