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Saturday, April 06, 2013

हिंदी में समाचार

अंतिका प्रकाशन, सजिल्द, मूल्य: 390 रुपए
ISBN Number: 9789381923573
किताब के बारे में
भूमंडलीकरण के साथ पनपे नव पूँजीवाद और हिंदी अखबारों के बीच संबंध काफी रोचक हैं। हिंदी अखबार जो अंग्रेजी अखबारों के पिछलग्गू बने हुए थे, अपनी निजी पहचान लेकर सामने आए। संचार क्रांति के दौर में इनके व्यावसायिक हितों के फलने-फूलने का खूब मौका मिला और आज ये ग्लोकल’  हैं।
उदारीकरण के बाद भारतीय राज्य और समाज के स्वरूप में आए परिवर्तनों के बरक्स भारतीय मीडिया ने भी खबरों के चयन, प्रस्तुतीकरण, प्रबंधन आदि में परिवर्तन किया। हिंदी अखबारों की सुर्खियों पर नजर डालें तो स्पष्ट दिखेगा कि खबरों के मानी, उसके उत्पादन के ढंग बदल गए हैं। अखबारों के माध्यम से बनने वाली हिंदी की सार्वजनिक दुनिया में जहाँ राजनीतिक खबरों और बहस-मुबाहिसा के बदले मनोरंजन का तत्व हावी है, वहीं भाषा, स्त्री और दलित विमर्श का एक नया रूप उभरा है। मिश्रित-अर्थव्यवस्था में जो मध्यवर्गीय इच्छा दबी हुई थी,  वह खुले बाजार में अखबारों के पन्नों पर खुल कर अभिव्यक्त हो रही है। खबरों के कारोबार में पेड न्यूजफाँस नजर आने लगी है। हिंदी पत्रकारिता की इन स्थितियों को यह शोधपरक किताब पहली बार सामग्री विश्लेषण और उदाहरणों के जरिये  निरूपित करती है।
वर्ष 1991 में उदारीकरण के रास्ते आए समकालीन भूमंडलीकरण ने हिंदी पत्रकारिता को किस रूप में प्रभावित किया? पिछले दो दशकों में भारतीय राज्य, समाज और भूमंडलीकरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के संबंध किस रूप में विकसित हुए?  शोध और पत्रकारिता के अपने साझे अनुभव का इस्तेमाल कर अत्यधिक परिश्रम से लेखक ने इसका विवेचन और विश्लेषण किया है।
हिंदी में समाचारके मार्फत हिंदी पत्रकारिता में रुचि रखनेवाले तो इनमें आए बदलाव से जुड़ीं स्थितियों-परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझ ही सकते हैं, हिंदी पत्रकारिता के छात्रों-शोधार्थियों के लिए भी यह एक अनिवार्य सी पुस्तक है।

लेखक परिचय:अरविंद दास
जन्म: 1978 में बेलारही, मधुबनी (बिहार) में।
  शिक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई, आईआईएमसी से पत्रकारिता में प्रशिक्षण और जेएनयू से हिंदी साहित्य और मीडिया में शोध।  भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे से फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स। नेशनल कौंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज  से उर्दू में डिप्लोमा। जर्मनी के जिगन विश्वविद्यालय से पोस्ट डॉक्टरल शोध। पीएचडी के लिए जूनियर रिसर्च फेलोशिप और पोस्ट डॉक्टरल शोध के लिए जर्मन रिसर्च फांउडेशन फेलोशिप। 
देश-विदेश में मीडिया को लेकर हुए सेमिनारों में शोध पत्रों की प्रस्तुति। भारतीय मीडिया के विभिन्न आयामों को लेकर जर्मनी के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान।  इंटरनेशनल सेंटर फॉर जर्नलिस्ट के दक्षिण एशियाई देशों के पत्रकारों के लिए 2012 में 'न्यू मीडिया' को लेकर ट्रेनिंग और कोलंबो में हुए  वर्कशॉप में भागीदारी। 
   पत्रकारिता का ककहरा जनसत्ता से सीखा। बीबीसी के दिल्ली स्थित ब्यूरो में सलाहकार और स्टार न्यूज में मल्टीमीडिया कंटेंट एडिटर रहे। अलग अंदाज के ब्लॉगर। ब्लॉग लेखों का संकलन-'गुल,नज़ूरा और रामचंद पाकिस्तानी' शीघ्र प्रकाश्य। मिथिला कला को लेकर एक लघु पुस्तिका- गर्दिश में एक चित्र शैली प्रकाशित।
   फिलहाल पिछले दो वर्षों से करेंट अफेयर्स कार्यक्रम बनाने वाली प्रतिष्ठित प्रोडक्शन कंपनी आईटीवी के सीनियर रिसर्चर। विशेष तौर पर सीएनएन-आईबीएन पर प्रसारित होने वाले चर्चित कार्यक्रम 'डेविल्स एडवोकेट' और 'लास्ट वर्ड' के शोध की जिम्मेदारी।

विषयक्रम


प्रस्तावना

अध्याय 1
भूमंडलीकरण की अवधारणा
         भूमंडलीकरण का परिप्रेक्ष्य
 भूमंडलीकरण और पत्रकारिता
अध्याय 2
अखबार का बदलता स्वरूप: पहला पन्ना
रूप-रेखा
             सुर्खियाँ एवं उनके विषय
 भाषा-शैली
विज्ञापन
अध्याय 3
सामग्री विश्लेषण I
 स्त्री
 धर्म
    अर्थतंत्र
अध्याय 4
सामग्री विश्लेषण II
   साहित्य
खेल
अध्याय 5
सामग्री विश्लेषण III
             किसान एवं मजदूर
               दलित एवं आदिवासी
अध्याय  6
प्रबंधन एवं संचालन
           प्रबंधन का ढाँचा
                               मालिक और संपादक: भूमिका एवं संबंध
                        पत्रकारों का चयन एवं नियुक्तियाँ

निष्कर्ष

 परिशिष्ट

(गीता बुक सेंटर, जेएनयू में उपलब्ध)
(अंतिका प्रकाशन सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.) फोन : 0120-2648212 मोबाइल नं.9868 380797, 98718 56053, अरविंद दास, मोबाइल: 09990 306477)   

Sunday, December 16, 2012

सरोकार के बगैर: हिंदी अखबार


आज़ादी के बाद संविधान सभा ने 1950 में हिंदी भाषा को राजभाषा का दर्जा भले ही दिया, हिंदी पत्रकारिता तकनीक कौशल, विज्ञापन, कुशल प्रबंधन आदि से वंचित रही. सत्ता की भाषा अंग्रेजी के बने रहने के कारण सरकारी सुविधाएँ, विज्ञापन, प्रौद्योगिकी वगैरह का लाभ अंग्रेजी अखबारों को ही मिलता रहा. हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी बना रहा. साथ ही हिंदी क्षेत्रों में शिक्षा की कमी और प्रति व्यक्ति आय का न्यूनतम स्तर पर होना हिंदी पत्रकारिता को वह स्थान नहीं दिला पाया, जिसकी वह हकदार थी.


प्रसिद्ध पत्रकार अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने 1953 में लिखा था, “विज्ञापन समाचार पत्रों की जान है, पर पौष्टिक तत्वों के अभाव में जैसे इस देश के मनुष्यों में तेज नहीं दिखता, वैसे ही हिंदी समाचार पत्रों में निस्तेज पत्रों की संख्या ही अधिक है.”  पर वर्तमान में यह बात लागू नहीं होती. सबसे ज्यादा पाठकों की संख्या वाले दस अखबारों में हिंदी के तीन अखबार हैं और अंग्रेजी का महज एक अखबार. बाकी के अन्य अखबार क्षेत्रीय भाषाओं के हैं. हिंदी के अखबार निस्तेजनहीं बल्कि सतेजहैं.  


आपातकाल, मंडल आयोग और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद जैसी राजनीतिक उथल-पुथल की घटनाओं ने हिंदी क्षेत्रों में खबरों के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ा दी. इसी दौरान हिंदी क्षेत्र में हुए राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप हिंदी सत्ताधारियों की भाषा के रूप में भी उभरी. पिछले दशकों में हिंदी भाषी प्रदेशों में शिक्षा का स्तर सुधरा है तथा प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हुई है. पहली बार 1978-79 में हिंदी के अखबारों के पाठकों की संख्या अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले बढ़ी और यह बढ़त आगामी सालों में बढ़ती ही गई.  पाठकों की संख्या में वृद्धि ने हिंदी के अखबारों में नए आत्मविश्वास का संचार किया. उदारीकरण (1991) के बाद हिंदी अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों में भी काफी इजाफा हुआ है. हालांकि अंग्रेजी के अखबारों में हिंदी के अखबारों के मुकाबले विज्ञापन की दर ज्यादा है, पर हाल के वर्षों में यह खाई उतरोत्तर कम होती गई है. उदारीकरण के बाद भारत में फैलते बाजार में हिंदी मीडिया के व्यवसायिक हितों के फलने-फूलने का खूब मौका मिला.


दुनिया भर में प्रकाशन व्यवसाय पूंजीवाद के आरंभिक उपक्रमों में से एक रहे हैं. अखबारों का प्रकाशन भी पूंजीवाद के विकास के इतिहास से जुड़ा हुआ है. पूंजीवाद के प्रसार के लिए अखबारों का शुरू से ही इस्तेमाल होता रहा है और अखबार अपने प्रसार और मुनाफे के लिए पूँजी का सहारा लेते रहे हैं. भूमंडलीकरण के साथ पनपे नव-पूंजीवाद और हिंदी अखबारों के बीच संबंध काफी रोचक हैं. भारत सरकार की उदारीकरण की नीतियों और भूमंडलीकरण के साथ आई संचार क्रांति ने हिंदी अखबारों की रूप-रेखा और विषय वस्तु में आमूलचूल परिवर्तन लेकर आया. यदि हम अखबारों की सुर्खियों पर गौर करें तो यह परिवर्तन सबसे ज्यादा दिखाई देता है. अखबारों की सुर्खियाँ महज घटनाओं का लेखा-जोखा भर नहीं होती. किसी समय विशेष में अखबार की सुर्खियाँ राज्य, समाज और सत्ता के आपसी संबंधों, उसके स्वरूप और स्वरूप में आ रहे बदलाव को प्रतिबिंबित करती है. दूसरे शब्दों में, आदर्श स्थिति में सुर्खियाँ समकालीन इतिहासको निरूपित करती है.


उदारीकरण के बीस वर्षों बाद अगर वर्तमान में हम हिंदी के किसी भी अखबार के साल भर की सुर्खियों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उनका जोर खेल, आर्थिक खबरों और मनोरंजन पर ज्यादा हैं. इसके साथ ही पिछले दशकों में पत्रकारिता के अराजनीतिक’  होने पर जोर बढ़ा है. राजनीति और राजनीतिक विचारधारा की बातें अब पत्रकारिता के लिए अवगुण मानी जाती हैं. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है- नवउदारीकृत व्यवस्था में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राज्य, सत्ता और आवारा पूंजी का समर्थन. अखबारों में विरले ही हमें भूमंडलीकरण के बाद बहुसंख्यक जनता की जीवन स्थितियों के बारे में कोई खबर या आवारा पूंजी की आलोचना दिखाई पड़ती है.


भूमंडलीकरण के बाद अखबारों को मिली नई तकनीक की सुलभता, टेलीविजन चैनलों का प्रसार,   बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों से जुड़े क्रिकेट के खिलाड़ियों की छवि का इस्तेमाल और खिलाड़ियों की एक ब्रांड के रूप में बाजार और जन सामान्य में बनी पहचान को हिंदी पत्रकारिता ने भी खूब भुनाया है. अब अखबारों के लिए क्रिकेट का खेल महज खेल की बातनहीं रही वह भारतीय अस्मिता और संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है और इसे बनाने में भूमंडलीकरण के बाद उभरी टेलीविजन और भाषाई प्रिंट मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है. 


1986 के नव भारत टाइम्स में एक विज्ञापन
सवाल उठता है कि वर्तमान में अखबार राजनीतिक खबरों के मुकाबले आर्थिक खबरों को क्यों ज्यादा तरजीह दे रहे है? क्यों क्रिकेट की खबरें खेल-जगत के पन्नों से निकल कर लगातार पहले पन्ने पर सुर्खियाँ बटोर  रही हैमनोरंजन जगत की खबरों को पहले पन्ने की सुर्खियों में छापने के पीछे कौन सी संपादकीय दृष्टि काम कर रही है?


इन सवालों के जवाब के लिए भी हमें आर्थिक उदारीकरण की नीतियों और उसके बाद फैली बाजारवादी, प्रबंधकीय व्यवस्था के फलस्वरूप राज्य के स्वरूप में आए परिवर्तनों पर गौर करना पड़ेगा. क्योंकि भारतीय मीडिया ने भी भूमंडलीकरण के बाद इन बदलावों के बरक्स अपने प्रस्तुतीकरण, प्रबंधन, खबरों के चयन आदि में परिवर्तन किया है. 


हाल ही में द न्यूयार्करने भारतीय अखबार उद्योग को विश्लेषित करते हुए सिटीजंस जैनशीर्षक से एक लंबा लेख छापा. इस लेख के केंद्र में टाइम्स ऑफ इंडियासमूह था. समूह के मालिक जैन बंधु कहते हैं हम अखबारों का कारोबार नहीं करते. हम विज्ञापन का कारोबार करते हैं.अखबार के प्रबंधन की नजर में उनके खरीददार पाठक नहीं बल्कि विज्ञापनदाता हैं जो इसका इस्तेमाल अपने खरीददारों तक पहुँचने के लिए करते हैं. इस संबंध में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अधीन ही प्रकाशित होने वाले हिंदी के अखबार नवभारत टाइम्स’ (2003) की इस टिप्पणी पर गौर करना रोचक होगा, “यह नये इंटरनेशनल आकार और साज-सज्जा वाला देश का पहला हिंदी अखबार बना. हमने इस विचार को सबसे पहले कूड़े में डाल दिया कि भाषाई पत्रकारिता का मतलब सिर्फ राजनीति परोसना होता है. इसलिए साइंस और टेक्नोलॉजी से मनोरंजन तक नवभारत टाइम्स ने वक्त की नब्ज का साथ दिया. अध्यात्म, रोजमर्रा की जिंदगी के जरूरी पहलुओं, कारोबार, सिनेमा, पर्सनल फाइनेंस और शौक सभी क्षेत्रों में हमने आपको नयेपन से बावस्ता रखा. और इस तरह एक खुले आधुनिक संसार से लगातार जुड़े रहने की पहल की.” 


भूमंडलीकरण की प्रक्रिया सिर्फ आर्थिक कारणों की वजह से ही दुनिया में प्रभावी नहीं हुई है, बल्कि दुनिया भर के विभिन्न राष्ट्र-राज्यों की नीतियों ने भी इस प्रक्रिया में सहयोग पहुँचाया है. यदि हम बात भारतीय परिप्रेक्ष्य में करें तो वर्ष 1947 में देश क आजाद होने के बाद भारतीय राज्य की अवधारणा समाजवादी लक्ष्यों से प्रेरित रही. इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लोकतांत्रिक राजनीति को आधार बनाया गया. आजादी के बाद के तीन दशकों में योजना आयोग का गठन, उद्योगीकरण, सामुदायिक विकास कार्यक्रम और पंचायती राज का कार्यान्वयन जैसे मुद्दे राष्ट्र-राज्य के सामने हावी थे. उस दौर में राजनीति को आधुनिक भारत की नियति और नियंता के रूप देखा जाता रहा.  नतीजतन, उस दौर के हिंदी अखबारों में भी राजनीतिक खबरों को प्रमुखता मिलती रही. लेकिन अस्सी के दशक के आखिरी दौर और नब्बे के दशक के आरंभ में अपनाई गई उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के कारण प्रबंधन और अर्थतंत्र की गतिविधियाँ राष्ट्र-राज्य के क्रिया-कलापों पर हावी होने लगीं. इसका सीधा असर हिंदी मीडिया पर भी पड़ा.


70 के दशक के बाद भारतीय भाषाई प्रेस में आए बदलाव को मीडिया विश्लेषक रॉबिन जैफ्री ने क्रांतिकहा है. पर इस क्रांतिके पीछे की राजनीति को वे विश्लेषित नहीं करते, जिसने हिंदी अखबारों को अराजनीतिक बनाया है.

(जनसत्ता, रविवार मीडिया कॉलम के तहत 16 दिसंबर 2012 को संपादित अंश प्रकाशित. 'हिंदी में समाचार' शीर्षक से लेखक की किताब 2013 में प्रकाशित होने वाली है)

Monday, September 03, 2007

भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी


कवि रघुवीर सहाय ने कविता के जरिए 25-30 साल पहले कहा था- हिंदी है मालिक की/ तब आज़ादी से लड़ने की भाषा फिर क्या होगी?/ हिंदी की माँग/ अब दलालों की अपने दास-मालिकों से/ एक माँग है/ बेहतर बर्ताव की/ अधिकार की नहीं. तब समकालीन भूमंडलीकरण का उड़नखटोला भारत नहीं पहुँचा था. पर ये पंक्तियाँ मौजूदा समय में हिंदी की सूरते-हाल बखूबी बयां करती है. करोड़ो वंचितों, दलितों, स्त्रियों के संघर्ष की भाषा होने के कारण ही महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने आजादी के आंदोलन के दौर में हिंदी के पक्ष में पुरजोर ढंग से वकालत की थी. उन्होनें हिंदी को स्वराज से जोड़ा . आज हिंदी संघर्ष की भाषा होने की ताक़त खोती जा रही है. आम जन से भाषा की दूरी बढ़ती जा रही है. हिंदी पर बाजार और संचार के माध्यमों का दबाव है. दशकों से सत्ता की घोर उपेक्षा झेल रही हिंदी को लेकर भारतीय समाज में गहरी उदासीनता है.

भूमंडलीकरण एक ऐसा कनखजूरा है जिसके बावन हाथ हैं. वर्तमान जीवन का कोई पहलू, कोई कोना इससे अछूता नहीं है. 90 के दशक में भारत में उदारीकरण, बाजारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रकिया ने अपने साथ संचार क्रांति लेकर आया, या कहना चाहिए कि संचार माध्यमों के रथ पर चढ़ कर ही भूमंडलीकरण ने भारत में अपना पाँव फैलाया. वर्तमान में केबल, इंटरनेट, मोबाइल के माध्यम से एक नई हिंदी गढ़ी जा रही है. यह हिंदी फिल्मों, सिरीयलों, विज्ञापनों, समाचार पत्रों और खबरिया चैनलों के माध्यम से तेजी से फैल रही है. सच है कि देश-विदेश में हिंदी की पहुँच इससे काफी बढ़ी है. सच है कि विज्ञापन की हिंदी सहज ही लोगों के दिल में जगह बना लेती है, लेकिन यह भाषा भूमंडलीकरण के साथ फैल रही उपभोक्ता संस्कृति की है, विमर्श की नहीं. इस भाषा में लोक-राग और रंग नहीं है जहाँ से हिंदी अपनी जीवनीशक्ति पाती रही है .

किसी भी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार में संचार माध्यमों का विशिष्ट योगदान रहा है. हिंदी इसका अपवाद नहीं है. उन्नीसवी सदी के आखिरी तथा बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में हिंदी भाषा, विशेष रूप से हिंदी गद्य के विकास और परिमार्जन में हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं के योगदान का ऐतिहासिक महत्व है. पर पिछले दशकों में हिंदी के स्वरूप में काफी तेजी से बदलाव हुआ है. खास तौर पर हिंदी अखबारों में, जिसकी पहुँच भारत के कोने-कोने में बढ़ती जा रही है. 90 के दशक में तकनीक उपलब्धता, फैलते बाजार तथा सरकार की उदारीकरण की नीतियों के कारण देश में हिंदी के दर्जनों खबरिया चैनलों का प्रवेश हुआ. हिंदी अखबारों की भाषा पर इन चैनलों का खासा प्रभाव दिखता है.

80 के दशक के किसी भी अखबार की सुर्खियां स्पष्ट, वस्तुनिष्ठ और अभिधापरक हुआ करती थी. अखबार की सुर्खियों से खबरों का आभास अच्छी तरह मिल जाता था. अंग्रेजी के उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल होता था जो सहज और सरल हों, जिससे पूरी पंक्ति के प्रवाह में बाधा नहीं पड़ती हो. प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों ने इस दशक में ऐसी भाषा का प्रयोग शुरू किया जिसकी पहुँच हिंदी के बहुसंख्य पाठकों तक थी. इन पत्रकारों ने बोलियों और लोक से जुड़ी हुई भाषा का इस्तेमाल किया जिससे अखबार की भाषा लोगों के सरोकारों से जुड़ी.

लेकिन आज अखबारों की सुर्खियां चुटीली, मुहावरेदार और अंग्रेजी की छौंक लिए होती है. कई बार शीर्षक और खबर में तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है. बजट और चुनाव जैसी महत्वपूर्ण खबरों को भी मनोरंजक भाषा में प्रस्तुत करने का चलन जोर पकड़ रहा है. हिंदी समाचार पत्रों के कई संपादक इस भाषा के पक्ष में दलील देते हुए मिलते हैं. पर सवाल है कि हिंदी समाज का वह कौन सा वर्ग है जो इस भाषा को अपना कर गौरवान्वित हो रहा है, और जिसके प्रतिनिधि होने का दावा हिंदी के अखबार आज कर रहे है?

भाषा महज अभिव्यक्ति का साधन ही नही है. भाषा में मनुष्य की अस्मिता स्वर पाती है. उसमें सामाजिक-साँस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति होती है. समय के साथ होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों की अनुगूँज उसमें सुनाई पड़ती है. भूमण्डलीकरण के बाद हिंदी के अखबारों में भाषा का रूप जितनी तेजी से बदला है उतनी तेजी से हिंदी मानस की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना नहीं बदली है. नतीजतन यह बदलाव अनायास न होकर सायास है. एक खास उभर रहे उपभोक्ता वर्ग को ध्यान में रखकर इस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है. यह शहरी नव धनाढ्य वर्ग है जिसकी आय में अप्रत्याशित वृद्धि उदारीकरण, बाजारीकरण और भूमण्डलीकरण के दौर में हुई है. यही वर्ग खुद को इस भाषा में अभिव्यक्त कर रहा है. इस वर्ग में हिंदी क्षेत्र के बहुसंख्यक किसान, मजदूर, स्त्री तथा दलित नहीं आते. हिंदी के विद्वान-आलोचक राम विलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि समाज में वर्ग पहले से ही होते हैं. भाषा में कठिन और अस्वभाविक शब्दों के प्रयोग से वे नहीं बनते किंतु इन शब्दों के गढ़ने और उनका व्यवहार करने के बारे में वर्गों की अपनी नीति होती है.

हिंदी के साथ शुरू से ही यह विडंबना रही है कि कुछ निहित राजनीतिक स्वार्थों के चलते कभी इसे उर्दू, कभी तमिल तो कभी अंग्रेजी के बरक्स खड़ा किया जाता रहा. स्वाभाविक हिंदी जिसे बहुसंख्य जनता बोलती-बरतती है, का विकास इससे बाधित हुआ . राजभाषा हिंदी को वर्षों तक ठस, संस्कृतनिष्ठ, उर्दू-फारसी शब्दों से परहेज के तहत तैयार किया गया. क़ाग़ज पर भले ही राष्ट्रभाषा-राजभाषा हिंदी का विशाल भवन तैयार किया जाता रहा, सच्चाई यह है कि हिंदी की जमीन लगातार कमजोर होती गई. राजनीतिक स्वार्थपरता, सवर्ण मानसिकता तथा राष्ट्रभाषा-राजभाषा के तिकड़म में सबसे ज्यादा दुर्गति हिंदी की हुई. 1960 के दशक में उत्तर भारत में अंग्रेजी हटाओ, और दक्षिण भारत में हिंदी हटाओ के राजनीतिक अभियान में भाषा किस कदर प्रभावित हुई इसे हिंदी कवि धूमिल ने इन पंक्तियों में व्यक्त किया था- तुम्हारा ये तमिल दुःख/ मेरी इस भोजपुरी पीड़ा का/ भाई है/ भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है.

हिंदी की अस्मिता विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों से मिलकर बनी हैं. कबीर से लेकर प्रेमचंद और बाबा नागार्जुन का साहित्य इसका दृष्टांत है. हिंदी भाषा का विकास और प्रसार इन्हीं बोलियों, क्षेत्रीय भाषाओं के साथ संवाद के माध्यम से संभव है. तब कहीं जाकर सही मायनों में हिंदी अखिल भारतीय भाषा होने का दावा कर सकती है.

सरकारी संस्थानों ने, जिनका काम हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोग देना है, हिंदी का प्रचार-प्रसार कम, अपकार ज्यादा किया है. सरकार और उसकी सहयोगी संस्था हर साल बस हिंदी दिवस मना कर अपने कर्तव्य की इति श्री समझ लेती है.

आजादी के 63 साल बाद भी समाज विज्ञान, विज्ञान और तकनीक जैसे विषयों पर कोई ढंग का हिंदी में मौलिक लेखन काफी ढूढ़ने पर मिलता है. हिंदी में कायदे की कोई शोध पत्रिका नहीं मिलती जिसमें शोध लेख छपवाया जा सके. देश के प्रतिष्ठित उच्च अध्ययन संस्थानों में सारा शोध अंग्रेजी भाषा में हो रहा है. देश की बहुसंख्य जनता की जिसमें कोई हिस्सेदारी नहीं है. सारा शोध जिन गरीबों, पिछड़ों, दलित-आदिवासियों, स्त्रियों को केंद्र में रख कर किया जाता उसकी पहुँच उन तक कभी भी नहीं हो पाती. पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र की आज भी खरे हैं तालाब जैसी किताबें, जिसकी सफलता और पहुँच असंदिग्ध है, उन लोगों पर करारा व्यंग्य है जो इस बात का रोना रोते है कि हिंदी में लोक-मन को छूने वाली भाषा में साहित्य से इतर कोई रचना संभव ही नहीं है. राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी भारत में राजनीति जैसी किताब की हिंदी में पुनर्रचना कर एक नई पहल की शुरूआत करते हैं. कभी समाजशास्त्री केएल शर्मा ने एनसीईआरटी की समाजशास्त्र की किताब मूल हिंदी में लिख कर साबित किया था कि स्कूल-कालेज की समाजविज्ञान की किताबें हिंदी में लिखना संभव है. दिक्कत यह है कि हिंदी क्षेत्र के कई विद्वान अंग्रेजी और हिंदी दोनों में दक्ष होने के बावजूद हिंदी में लिखने की जहमत नहीं उठाते. इसकी वजह सिर्फ आर्थिक नहीं, कहीं गहरे अवचेतन में हिंदी के प्रति हीनता बोध भी है.

भूमंडलीकरण के इस दौर में अंग्रेजी का ऐसा हौव्वा खड़ा किया जा रहा है कि हिंदी के पक्ष में की गई किसी भी बात को दकियानूसी विचार करार दिया जाता है. निहित स्वार्थ के कारण हिंदी के एजंडे को हिंदी और अंग्रजी के प्रभुवर्गों ने आपसी गठजोड़ कर हथिया लिया है.

निस्संदेह अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा है. इस भाषा के माध्यम से हम एक बड़े समूह तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं. इस भाषा की जानकारी भूमंडलीकरण के इस दौर में हमारी जरूरत है. इस बात से शायद ही किसी को कोई गुरेज हो कि अंग्रेजी के बूते अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीयों की एक पहचान बनी हैं. पर अंग्रेजी अखिल भारतीय स्वरूप का प्रतिनिधि कभी नहीं कर सकती. देश-विदेश में रह रहे भारतीयों की अस्मिता, उसकी असली पहचान निज भाषा में ही संभव है. कवि विद्यापति ने सदियों पहले इसी को लक्ष्य कर देसिल बयना सब जन मिट्ठा कहा होगा. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत एक बड़ा बाजार है. इस बाजार में हिंदी में आज अंग्रेजी के शब्दों को ठूँस कर हिंदी को विश्व भाषा बनाने की मुहिम चल रही है. कई अखबारों में हिंदी को रोमन लिपि में लिखने का प्रयोग जोर पकड़ रहा है. क्या यह विचित्र नहीं कि जो भाषा ठीक से राष्ट्रीय ही नहीं बन पाई हो उसे अंतरराष्ट्रीय बनाने की कोशिश की जा रही है ?

20वीं सदी के आरंभिक दशकों में उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद से लड़ कर हिंदी ने सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फ़ियर) में अपनी एक भूमिका अर्जित की थी. इस दुनिया में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक मुद्दों पर बहस-मुबाहिसा संभव था. आजादी के बाद प्रतिक्रियावादी, सवर्ण प्रभुवर्ग जिनकी साठगांठ अंग्रेजी के अभिजनों के साथ थी, हिंदी की सार्वजनिक दुनिया पर क़ाबिज़ होते गये. इससे हिंदी की सार्वजनिक दुनिया सिकुड़ती और आमजन से कटती चली गई. एक बार फिर हिंदी को महज बोल-चाल के माध्यम तक ही सीमित रखने का कुचक्र चल रहा है.

भूमंडलीकरण का सबसे प्रभावी औजार है सूचना. यह सूचना इंटरनेट के माध्यम से पूरे भूमंडल के फासले को चंद लम्हों में नापने का माद्दा रखती है. लेकिन चूँकि सत्ता की भाषा अंग्रेजी है, इंटरनेट की भाषा भी अंग्रेजी ही है. बहरहाल, हिंदी देर ही सही अंग्रेजी के गढ़ में सेंध लगाने में कामयाब हो रही है. इसका सबूत है विभिन्न वेब साइटों पर मौजूद हिंदी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ. इससे हिंदी का प्रसार और पहुँच देश-विदेश में तेजी से हो रहा है. साथ ही हाल के वर्षों में जिस तेजी से हिंदी के ब्लॉग इंटरनेट पर फैलें है, एक उम्मीद बंधती है कि ठेठ हिंदी का ठाठ फिर से जीवित होगा. क्योंकि यहाँ हर लेखक को अपनी भाषा में कहने-लिखने की छूट है. इसका अंदाजा विभिन्न ब्लॉगों की भाषा पर एक नजर डालने पर लग जाता है. पर किसी भी तकनीक की उपयोगिता उसके इस्तेमाल करने वालों पर निर्भर करती है. सवाल है कि जिस समाज में सूचना तकनीक का इस्तेमाल एक छोटे तबके तक सीमित हो, जिस भाषा में की-बोर्ड तक उपलब्ध नहीं वह भाषा-समाज किस तरह इंटरनेट का इस्तेमाल कर आगे बढ़ेगा ?

(जनसत्ता, 17 सितंबर 2010 को संपादकीय अग्रलेख के रुप में प्रकाशित)

Friday, December 08, 2006

Globalisation and Hindi Media

Unprecedented changes have been taking place, in the last two decades, in the realm of media. Hindi media or regional journalism in India is no exception. Global technologies, which paved the way for Information Revolution, are part and parcel of globalisation process. With the onset of liberalisation, privatisation and globalisation in 1991 in India, Hindi journalism gained a new confidence vis-à-vis its English counterparts. It has become global and local at the same time. It is being published from many regional centers with the help of new found technologies. Now packaging and designing is good. Pages have increased drastically. More supplements are coming out.

If we compare today’s any Hindi newspaper with that of, say fifteen or twenty years ago, we can conclusively say that it is more market oriented. In other words Hindi journalism is an industry now. What media analyst and critic Adorno and Horkhemier had said of culture industry is becoming true for Hindi journalism today, which had played a leading role in India’s independence struggle. Contents are being determined by the prevailing forces of market and advertising departments. Relationship between production departments and editorial board is fast changing.

This paper will analyse the impact of global technologies on Hindi journalism in India, taking Nav Bharat Times, Delhi a prominent Hindi daily, as a case study.

( Abstract of the paper titled"Impact of Global Technologies on Hindi Journalism: A Case Study of Navbharat Times, New Delhi" presented at Media: Policies, Cultures and Futures in the Asia Pacific Region Conference organised by MARG at Curtin University of Technology, Perth, Western Australia on 27-29 November 2006)