बोली, बानी और भाषा की बात हो तो स्वभाविक है कि
मैथिली की चर्चा होगी. इस बार दिल्ली में संपन्न हुए भारतीय भाषा महोत्सव,
समन्वय की मूल अवधारणा इसी के इर्द-गिर्द थी. एक सत्र ‘प्रेम की अपरूप भाषा: भाषा का अपरूप प्रेम’ के ऊपर था. अपरूप शब्द विद्यापति की
कविताओं में बार-बार आता है और यहीं से यह शब्द सूरदास की कविताओं की तरफ भी जाता
है. आश्चर्य नहीं कि हिंदी की चर्चित प्रेम कहानी ‘रसप्रिया’ में फणीश्वरनाथ रेणु भी चरवाहे मोहना को
देख कर अपरूप रूप की बात करते हैं.
बहरहाल, विद्यापति प्रेम और श्रृंगार के कवि के
रूप में इतने प्रसिद्ध हुए कि उनके व्यक्तित्व और साहित्य के अन्य पहलूओं की
उपेक्षा हुई. निस्संदेह उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘पदावली’ प्रेम का काव्य है. इस काव्य को उन्होंने देशी भाषा
मैथिली में लिखा था. प्रेम और भाषा को लेकर विद्यापति जितने सजग थे, भारतीय भाषाओँ में
उनका कोई सानी नहीं. मध्ययुग में जब देशी भाषाओं की लहर पूरे देश में फैल रही थी तो इसके अगुआ विद्यापति थे. संस्कृत
के वे पंडित थे लेकिन उनका ‘भाखा प्रेम’ अद्वितीय था. उनके
ही शब्दों में कहें तो अपरूप था.’ कबीर ने
बाद में ‘संसकिरत है कूप जल, भाखा बहता नीर कहा.’ विद्यापति ने
संस्कृत को कूप जल कहे बिना कहा- देसिल बयना सब जन मिट्ठा. एक मायने में भारतीय
भाषाओं के समन्वय की वे वकालत कर रहे थे, जो वर्तमान संवेदनाओं के नजदीक कही जा
सकती है.
(समन्वय, 2-4 नवंबर 2012) |
उनकी कविता वस्तुत: सामंती मनोवृत्ति के विरोध की कविता है. मध्ययुगीन समाज में वे नारी के दुख के भी कवि हैं. तुलसीदास ने बहुत बाद में कहा- पराधीन सपनेहु सुख नाहिं. सामंती समाज में स्त्रियों की वेदना को इन शब्दों में विद्यापति ने व्यक्त किया- कौन तप चूकलहूँ भेलहूं जननी गे (हे विधाता, तपस्या में कौन सी चूक हो गई कि स्त्री होके जन्म लेना पड़ा!)
विद्यापति ही अपने अराध्य शिव से कह
सकते हैं कि ‘क्यों भीख मांगते फिर रहे हो/ खेती करो इससे गुण गौरव बढ़ता
है’ (बेरि बेरि
अरे सिब हमे तोहि कइलहूँ,
किरिषि करिअ मन लाए/ रहिअ निसंक भीख मँगइते सब, गुन गौरब दुर जाए).
विद्यापति और शिव को
लेकर कई तरह के मिथक मिथिला के समाज में आज भी प्रचलित है. कहते हैं
कि उनके गीतों और कविताओं को सुनने खुद शिव एक नौकर, उगना का रूप धर उनके यहाँ रहने
आए थे. मिथिला की संस्कृति के निर्माण में विद्यापति की एक बड़ी भूमिका है. आज भी
मिथिला में शादी-विवाह या खेती-बाड़ी विद्यापति के गीतों के बिना नहीं होती.
मधुबनी जिले में इसी मिथक को लेकर
‘उगना महादेव’ का एक प्राचीन मंदिर हैं. मंदिर के प्रांगण में
एक मूर्ति विद्यापित की भी है. ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि हमारा समाज कवि की
मूर्ति भी उसी प्रांगण में स्थापित करे जहाँ उसके अराध्य हो.
साहित्य के अनुरागी और शिव के भक्त
एक साथ वहाँ जाते हैं. वैसे ही जैसे कि दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर
सिर नवाने वाला अमीर खुसरो की कब्र पर अकीदत करना नहीं भूलता.
(चित्र साभार आईएचसी, कथक गुरु शोभना नारायण 'उगना रे' की प्रस्तुति में. ब्लॉग लेखक महोत्सव में परिचर्चा के दौरान. जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 7 नवंबर 2012 को प्रकाशित)
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