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Wednesday, July 08, 2020

अदूर का सिनेमा, सिनेमा के अदूर

फ्रेंच सिने समीक्षा में फिल्म निर्देशक के लिए ओतरयानी लेखक शब्द का इस्तेमाल किया जाता रहा है. दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अदूर गोपालकृष्णन विश्व के ऐसे प्रमुख ओतरहैं, जो पिछले पचास वर्षों से फिल्म निर्माण-निर्देशन में सक्रिय हैं. इस महीने उन्होंने अस्सीवें वर्ष में प्रवेश किया है और एक बार फिर से उनकी फिल्मों की चर्चा हो रही है. सिनेमा के जानकार सत्यजीत रे के बाद अदूर गोपालकृष्णन को भारत के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार कहते रहे हैं, जिनकी प्रतिष्ठा दुनियाभर में है. खुद रे उनकी फिल्मों को खूब पसंद करते थे.

सिनेमा के प्रति अदूर में आज भी वैसा ही सम्मोहन है, जैसा पचास वर्ष पहले था. अब भी उनके अंदर प्रयोग करने की ललक है. पिछले वर्ष मैंने अदूर गोपालकृष्णन की एक नयी फिल्म सुखयांतमदेखी थी. यह फिल्म तीन छोटी कहानियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जिसके केंद्र में आत्महत्याहै, पर हर कहानी का अंत सुखद है. हास्य का इस्तेमाल कर निर्देशक ने समकालीन सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को सहज ढंग से चित्रित किया है. यह एक मनोरंजक फिल्म है, जो बिना किसी ताम-झाम के प्रेम, संवेदना, जीवन और मौत के सवालों से जूझती है.

खास बात यह है कि सुखयांतमडिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए बनायी गयी है. इसकी अवधि महज तीस मिनट है. दिल्ली के छोटे सिनेमा-प्रेमी समूह के सामने फिल्म के प्रदर्शन के बाद अदूर गोपालकृष्णन ने कहा था कि कथ्य और शिल्प को लेकर उन्होंने उसी शिद्दत से काम किया है, जितना वे फीचर फिल्म को लेकर करते हैं. अपने पचास वर्ष के करियर में पहली बार अदूर ने डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए निर्देशन किया है.

गौतमन भास्करन की लिखी जीवनी ए लाइफ इन सिनेमामें अदूर एक जगह कहते है, ‘सिनेमा असल में फिल्ममेकर का अपना अनुभव होता है. उसकी जीवन के प्रति दृष्टि उसमें अभिव्यक्त होती है.अदूर की फिल्मों को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म को निर्देशक का माध्यम क्यों कहा गया है. फिल्म के हर पहलू पर उनकी छाप स्पष्ट दिखती है. हालांकि, सिनेमा अदूर का पहला प्रेम नहीं था. शुरुआत में उनका रुझान थिएटर की तरफ ज्यादा था.

करीब पंद्रह वर्ष पहले दिल्ली में एक फिल्म समारोह के दौरान हुई मुलाकात में उन्होंने कहा था, ‘काॅलेज के दिनों में मेरी अभिरुचि नाटकों में थी. मैंने फिल्म के बारे में कभी नहीं सोचा था. जब मैंने 1962 में पुणे फिल्म संस्थान में प्रवेश लिया, तो वहां देश-विदेश की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को देख पाया. मुझे लगा कि यही मेरा क्षेत्र है, जिसमें मैं खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता हूं.

वर्ष 1964 में फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक एफटीआइआइ, पुणे में बतौर शिक्षक नियुक्त हुए थे. वे शीघ्र ही छात्रों के चेहते बन गये. व्यावसायिक सिनेमा के बरक्स 70 और 80 के दशक में भारतीय सिनेमा में समांतर फिल्मों की जो धारा विकसित हुई, अदूर मलयालम फिल्मों में इसके प्रणेता रहे. उनकी पहली फिल्म स्वयंवरम’ (1972) को चार राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुए. अदूर घटक और सत्यजीत रे दोनों के प्रशंसक रहे हैं, पर उनकी फिल्में घटक के मेलोड्रामा और एपिक शैली से प्रभावित नहीं दिखती हैं.

यथार्थ चित्रण पर जोर व मानवीय दृष्टि के कारण समीक्षक उनकी फिल्मों को रे के नजदीक पाते हैं. हालांकि, उनकी फिल्म बनाने की शैली काफी अलहदा है. उनकी फिल्में जीवन के छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे अनुभवों को फंतासी के माध्यम से संपूर्णता में व्यक्त करती रही हैं. केरल का समाज, संस्कृति और देशकाल इसमें प्रमुखता से उभर कर आया है, पर भाव व्यंजना में वैश्विक है. यह विशेषता एलिप्पथाएम’, ‘अनंतरम’, ‘मुखामुखम’, ‘कथापुरुषनआदि फिल्मों में स्पष्ट दिखायी देती है. एलिप्पथाएमउनकी सबसे चर्चित फिल्म है.

सामंतवादी व्यवस्था के मकड़जाल में उलझे जीवन को चूहेदानी में कैद चूहेके रूपक के माध्यम से एलिप्पथाएम’ (1981) में व्यक्त किया गया है. फिल्म में संवाद बेहद कम है और भाषा आड़े नहीं आती. बिंबों, प्रकाश और ध्वनि के माध्यम से निर्देशक ने एक ऐसा सिने संसार रचा है, जो चालीस वर्ष बाद भी दर्शकों को एक नये अनुभव से भर देता है और नयी व्याख्या को उकसाता है. एक कुशल निर्देशक के हाथ में आकर सिनेमा कैसे मनोरंजन से आगे बढ़ कर उत्कृष्ट कला का रूप धारण कर लेती है, ‘एलिप्पथाएमइसका अन्यतम उदाहरण है. प्रसंगवश, सामंतवाद और उसके ढहते अवशेषों को रे ने भी जलसाघर’ (1958) में संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया है, पर दोनों फिल्मों के विषय के निरूपण में कोई समानता नहीं दिखती.

कहानी कहने का ढंग अदूर का नितांत मौलिक है, पर उतना सहज नहीं है, जैसा कि पहली नजर में दिखता है. कहानी के निरूपण की शैली के दृष्टिकोण से अनंतरमसिने प्रेमियों के बीच विख्यात रही है. उनकी फिल्मों में स्त्री स्वतंत्रता का सवाल सहज रूप से जुड़ा हुआ आता है. साथ ही, राजनीतिक रूप से सचेत एक फिल्मकार के रूप में वे हमारे सामने आते हैं. इनमें आत्मकथात्मक स्वर भी सुनायी पड़ते हैं. हिंदी सिनेमा-प्रेमियों के लिए अभी भी अदूर की फिल्में पहुंच से दूर है. बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंच के लिए अदूर की फिल्मों को ऑनलाइन सबटाइटल के साथ रिलीज की कोशिश होनी चाहिए.

(प्रभात खबर, 8 जुलाई 2020)

Sunday, December 08, 2019

समकालीनता को चित्रित करतीं क्षेत्रीय फिल्में



इस साल दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित मलयालम के चर्चित फिल्म निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन की एक फिल्म-सुखयांतम देखी थी. यह फिल्म तीन छोटी कहानियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जिसके केंद्र में आत्महत्या है. पर हर कहानी का अंत सुखद है. हास्य का इस्तेमाल कर निर्देशक ने समकालीन सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को सहज ढंग से चित्रित किया है. यह एक मनोरंजक फिल्म है, जो बिना किसी ताम-झाम के प्रेम, संवेदना, जीवन और मौत के सवालों से जूझती है.


खास बात यह है कि सुखयांतमडिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए बनायी गयी है. इसकी अवधि महज 30 मिनट है. अदूर गोपालकृष्णन ने कहा था कि कथ्य और शिल्प को लेकर उन्होंने उसी शिद्दत से काम किया है, जितना वे फीचर फिल्म को लेकर करते हैं. अपने पचास साल के करियर में पहली बार अदूर ने डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए निर्देशन किया है.

हाल के वर्षों में नयी तकनीक, इंटरनेट पर फिल्म के प्रसारण की संभावना ने न सिर्फ सिद्ध फिल्मकारों, बल्कि युवा फिल्मकारों की अभिव्यक्ति को भी गहरे प्रभावित किया है. लिजो जोस पेल्लीसेरी की मलयालम फिल्म जलीकट्टूइसका सफल उदाहरण है. पिछले दिनों गोवा में संपन्न हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस फिल्म के लिए पेल्लीसेरी को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला. जलीकट्टू की सिने भाषा समकालीनता में लिपटी है.

इसमें कथानक और चरित्र-चित्रण पर कोई जोर नहीं है, और न संवाद प्रमुख है. पहाड़, जंगलों में जो ध्वनि हम सुनते हैं उसका सहज संयोजन फिल्म के वातावरण को रचने में किया गया है. सिनेमेटोग्राफी इस फिल्म को उत्कृष्ट कला के रूप में स्थापित करती है. भैंस की मांस के बहाने प्रकृति और मनुष्य के संबंधों और मानवीय हिंसा का चित्रण है.

इसी तरह हाल ही में रिलीज हुई भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म आमिस भी मांस के इर्द-गिर्द घूमती है. इस फिल्म में मांस एक रूपक है जो समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. पर फिल्म का ताना-बाना मानवीय प्रेम को केंद्र में रख कर बुना गया है. सिनेमा गुवाहाटी में अवस्थित है, जिसे खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है.

सिनेमा चूंकि श्रव्य-दृश्य माध्यम है, इसलिए महज कहानी में घटा कर हम इसे नहीं पढ़ सकते, पर यह फिल्म अपने अकल्पनीय कथानककी वजह से चर्चा में है. खान-पान को लेकर विकसित संबंध को हमने लंच बाक्सफिल्म में भी देखा था, पर आमिस के साथ किसी भी तरह की तुलना यहीं खत्म हो जाती है.

इस फिल्म का मुख्य पात्र सुमन एक शोधार्थी है, जो उत्तर-पूर्व में मांस खाने की संस्कृतियों के ऊपर शोध (पीएचडी) कर रहा है. निर्मली पेशे से डॉक्टर है और स्कूल जाते बच्चे की मां है. वह अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश है. उसके जीवन में सुमन का प्रवेश होता है और दोनों के बीच तरह-तरह के मांस खाने को लेकर मुलाकातें होती है, प्रेम पनपता है- शास्त्रीय शब्दों में जिसे परकीया प्रेम कहा गया है.

फिल्म खान-पान की संस्कृति को लेकर समकालीन राजनीतिक-सामाजिक शुचिता पर चोट करने से आगे जाकर लोक में व्याप्त तांत्रिक आल-जाल में उलझती जाती है. प्रेम के स्याह पक्ष को चित्रित करते हुए यह फिल्म आखिर में एब्सर्ड की तरफ मुड़ जाती है. असमिया फिल्मों के करीब 85 वर्ष के इतिहास में इस फिल्म को लेकर दर्शकों-समीक्षकों के बीच तीखी बहस जारी है.

बहरहाल, बॉलीवुड से इतर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में आजकल तकनीकी और कथ्य के स्तर पर कई ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी धमक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महसूस की जा रही है. ये सभी फिल्में बहुस्तरीय और बहुआयामी हैं, जो भारतीय सिनेमा को भी संवृद्ध कर रही है. 

(प्रभात खबर, 8 दिसंबर 2019)




Monday, January 14, 2019

सत्ता से सवाल करती फिल्में

प्रभात खबर

फिल्मकार मृणाल सेन (1923-2018) के अवसान के साथ ही करीब पचास साल की उनकी फिल्मी यात्रा थम गयी. मृणाल सेन बांग्ला सिनेमा के अद्वितीय चितेरे ऋत्विक घटक और सत्यजीत रे के समकालीन थे. 

ऋत्विक घटक की नागरिक’ (1952) और सत्यजीत रे की पाथेर पंचाली’ (1955) फिल्म के आस-पास मृणाल सेन अपनी फिल्म रात भोर’ (1956) लेकर आते हैं. पर जहां सत्यजीत रे को दुनियाभर में पहली फिल्म के साथ ही एक पहचान मिल गयी, वहीं मृणाल सेन को लंबा इंतजार करना पड़ा था.

मृणाल सेन की तरह ही भारतीय सिनेमा में पचास वर्षों से ज्यादा से सक्रिय मलयालम फिल्मों के निर्देशक और दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अदूर गोपालकृष्णन कहते हैं कि मृणाल सेन को सफलता काफी संघर्ष के बाद मिली. वर्ष 1969 में आयी हिंदी फिल्म भुवन सोमने उन्हें भारतीय सिनेमा में स्थापित कर दिया.

मृणाल सेन के अवसान के बाद एक बार फिर से उनकी फिल्मों और सिनेमाई संसार में उनकी गुरुता की तुलना सत्यजीत रे से की जाने लगी है. गोपालकृष्णन कहते हैं कि घटक और रे दोनों से मृणाल सेन स्टाइल और अप्रोच में अलग थे. वे अपनी फिल्मों में प्रयोग करने से कभी नहीं डरे. वे अपनी विचारधारा के प्रति आबद्ध रहे.

खुद मृणाल सेन कहा करते थे: मैं सिनेमा में काम करता हूं, सिर से पांव तक सिनेमा में डूबा हूं. मैं सिनेमा में निबद्ध हूं, पूरी तरह आसक्त.नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि में कोलकता को केंद्र में रखकर सेन ने इंटरव्यू’ (1971), ‘कलकत्ता 1971’ (1972) और पदातिक’ (1973) नाम से फिल्म त्रयी बनायी, जो उस दौर की राजनीति, युवाओं के सपने और आम लोगों की हताशा को हमारे सामने रखती हैं. 

हाल में बॉलीवुड में बनी राजनीतिक फिल्मों के साथ इन फिल्मों को देखें, तो उत्कृष्ट कला और प्रोपगैंडा के फर्क को हम आसानी से समझ सकते हैं. सेन कभी मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य नहीं रहे. हां, इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और मार्क्सवादी आंदोलनों के साथ उनका जुड़ाव था.

मृणाल सेन की फिल्में गरीबी, सामाजिक न्याय, सत्ता के दमन और भूख के सवालों को कलात्मक रूप से हमारे सामने रखती हैं. उन्होंने प्रेमचंद की चर्चित कहानी कफन को आधार बना कर तेलगू में ओका ऊरी कथा’ (1977) बनायी. यह कहानी जितना मर्म को बेधती है, फिल्म हमें उतना ही झकझोरती है. 

फिल्म का पात्र वेंकैया कहता है कि यदि हम काम नहीं करें, तो भूखे रहेंगे, वैसे ही जैसे बेहद कम पगार पर काम करनेवाला मजदूर भूखा रहता है. तो फिर काम क्यों करना?’ इसमें उन्होंने बंटे हुए समाज में श्रम के सवाल को केंद्र में रखा है, भूख और मानवीयता के लोप को निर्ममता के साथ दर्शाया है. 

मृणाल सेन की फिल्मों पर काम करनेवाले जॉन डब्ल्यू वुड ने लिखा है: ओका ऊरी कथा एक एंटी-होरी फिल्म है. इसमें उस दुनिया का चित्रण है, जहां निर्दोष व्यक्ति दुख सहता है और अनैतिक फलता है और जहां आवाज उठाने, विरोध करने का कोई अर्थ नहीं.क्षेत्रीयता की भूमि पर विकसित उनकी फिल्में अखिल भारतीय हैं.

आपातकाल के बाद सेन की फिल्मों का स्वर बदलता है. फिल्म एक दिन प्रतिदिनऔर एक दिन अचानकमें स्त्रियों की आजादी का सवाल है. वे मध्यवर्ग की चिंताओं, पाखंडों को फिल्मों के केंद्र में रखते हैं.

वे चाहते थे कि उनकी फिल्में देखकर दर्शक उद्वेलित हों. पॉपुलर सिनेमा की तरह उनकी फिल्में हमारा मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि संवेदनाओं को संवृद्ध करती हैं, ‘अंत:करण के आयतनका विस्तार करती हैं. 

(प्रभात खबर, 13 जनवरी 2019 को प्रकाशित)