Showing posts with label bihar. Show all posts
Showing posts with label bihar. Show all posts

Monday, August 11, 2025

दृश्य है मगध की‌ संस्कृति यहां



प्रवासी होने की पीड़ा है कि आप घर में रह कर बेघर होते हैं.  पिछले दस सालों में पटना जब भी आया महज दो-चार घंटे के लिए. इन वर्षों में बिहार संग्रहालय देखने की उत्कट चाह रही.

 

बिहार म्यूजियम बिनाले 2025 ने मुझे यह अवसर दिया. असल में दस सालों में बिहार संग्रहालय ने देश और दुनिया में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है 

 

मुझे पेरिस, लंदन, पर्थ, लिंज, वियना, म्यूनिख, शंघाई आदि शहरों के संग्रहालयों को देखने का मौका मिला है. अपने सीमित अनुभव के आधार पर मैं कह सकता है बिहार संग्रहालय विश्व स्तरीय है. हैदराबाद से बिनाले में भाग लेने आए संस्कृतिकर्मी सी वी एल श्रीनिवास ने मुझसे कहा कि सच पूछिए तो देश में भी ऐसा कोई संग्रहालय नहीं है.

 

वास्तुशिल्प, परिकल्पना, खुले स्पेस, कला दीर्घाओं के संयोजन में बिहार संग्रहालय का कोई जोर नहीं. बिहार की प्राचीन सभ्यता और कला-संस्कृति के साथ-साथ आधुनिक कला-संस्कृति का यह घर वास्तव में एक ग्लोबल विलेज है.

 

आश्चर्य नहीं कि इस बिनाले (जिसका आयोजन हर दो साल पर हो) की परिकल्पना के केंद्र में ग्लोबल साउथइतिहास की साझेदारी’ है.

 

संग्रहालय में विभिन्न भाव-भंगिमाओं में बुद्ध, सम्राट अशोक के शासन काल के दौरान बनाए गए दीदारगंज की बहुचर्चित यक्षी की प्रतिमा आदि कला प्रेमियों को आकर्षित करता है.


कवि श्रीकांत वर्मा ने अपनी बहुचर्चित मगध कविता में लिखा है: 'वह दिखाई पड़ा मगध, लो, वह अदृश्य'. यहां मगध की सांस्कृतिक विरासत इतिहास के पन्नों से निकल कर अपनी  कहानी खुद बयान करती है. साथ ही क्षेत्रीय और लोक कलाओं का दीर्घा भारत की बहुस्तरीय रचनात्मकता और आधुनिक भाव बोध को दर्शाता है.



मगध बौद्ध सभ्यता का केंद्र था और मिथिला वैदिक सभ्यता का. आधुनिक भारत में मिथिला कला अपनी लोक तत्वों के अनूठेपन के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान बना चुकी है. समकालीन कला के साथ-साथ मिथिला लोक कला को जगह देकर यह संग्रहालय अपने वृहद दृष्टि का परिचय देता है. यहाँ पर यह नोट करना उचित होगा कि जापान स्थित मिथिला म्यूजियम में मिथिला कला की मूर्धन्य कलाकारों मसलन, गंगा देवी, सीता देवी गोदावरी दत्त, बौआ देवी आदि की पेंटिंग संग्रहित है. क्या ही अच्छा हो कि बिहार म्यूजियम उसे देश में लाने की पहल करे!


बहरहाल, यह बिनाले सिर्फ कला-संस्कृति के प्रदर्शनी तक सीमित नहीं है, जो कि हर बिनाले का मूल तत्व रहता आया है. जैसा कि आयोजन के कर्ता-धर्ता कहते हैं, 
यह बिनाले पूरी तरह संग्रहालय केंद्रित है जो वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक संस्थाओं की बुनियादी संरचना को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास करता है.’ सेमिनार के दौरान हुए संवाद में वक्ताओं ने ग्लोबल साउथ के देशों के बीच आपसी अनुभवों की  साझेदारी और एकजुटता पर जोर दिया. 

 

पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के विकसित देशों की तरफ से भूमंडलीकरण पर जिस तरह से सवाल उठाए जा रह हैं और भू-राजनीति  तेजी बदल रही है ग्लोबल साउथ के देशों के बीच न सिर्फ राजनीति बल्कि कला-संस्कृति को लेकर समन्वय और सामंजस्य समय की मांग है.  

 

इस बिनाले में विभिन्न सभ्यताओं में मुखौटे की अवस्थिति को लेकर बेहद दिलचस्प दीर्घा सजाई गई है. मुखौटे की उत्पत्ति को लेकर कलाकारों में सहमति नहीं है, पर भारत की बात करें तो हड़प्पाकालीन सभ्यता में भी टेराकोटा के मुखौटे मिलते हैं. प्रदर्शनी में चिरांद, बिहार में मिले पहली-दूसरी शताब्दी के टेराकोटा मास्क शामिल है. मास्क के बारे में रेखांकित किया गया है कि यह आदमकद मास्क भारत की प्राचीन मास्कों में से एक है.’  मुखौटे का इस्तेमाल झाड़-फूंक, जादू-टोने, रीति-रिवाज , अनुष्ठान, अभिनय आदि में सदियों से चला आता रहा है और आज भी कायम है. आधुनिक कलाकारों, मसलन, सचिंद्रनाथ झा  की गंगा घाट (मास्क) नाम से कलाकृति परंपरा और आधुनिकता के बीच एक पुल की तरह दिखाई देती है. असल में मुखौटा जितना छिपता है उससे ज्यादा कहीं उजागर करता है. मुखौटा एक रूपक है!

 

साथ ही प्रदर्शनी में भारत के अलावे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की सभ्यता-संस्कृति में रामकथा की उपस्थिति  को लेकर विश्वरूप रामरामायण की सार्वभौमिक विरासत’  नाम से एक अलग दीर्घा है. इंडोनेशिया की चर्चित छाया कठपुतली में वायांग क्लितिक’ में राम की नृत्यकारी मुद्राएँ हैं. भारतीय कथा में पुरुषोत्तम राम को धीरोदात्त नायक के रूप में ही चित्रित किया जाता रहा है, राम की यह मुद्रा अह्लादकारी है!

 

वर्तमान में उत्तर औपनिवेशिक देशों में ज्ञान के उत्पादन के क्षेत्र में विउपनिवेशीकरण पर जोर है. बिनाले में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देश भाग ले रहे हैं जिनका इतिहास उपनिवेशवाद से संघर्ष का रहा है. इंडोनेशिया के अलावे श्रीलंका, कजाख्स्तान, इथोपिया, मैक्सिको, अर्जेंटीना, इक्वाडोर, पेरु और वेनेजुएला के साथ देश के तीन संस्थान- नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और मेहरानगढ़ म्यूजियम आयोजन में  शामिल है.

 

प्राचीन काल में बिहार की एक पहचान ज्ञान के केंद्र की रही है. बिहार म्यूजियम बिनाले का तीसरा संस्करण साल के आखिर तक संस्कृतियों के मेल-जोल और वाद-विवाद-संवाद का मंच बना रहेगा. विश्वविद्यालय की चाहरदिवारी से बाहर कला-संस्कृति में आम लोगों की यहां हिस्सेदारी सुखद है.


(एनडीटीवी के लिए)

Sunday, February 07, 2021

नाच के सौंदर्य का सम्मान: रामचंद्र मांझी


कोरोना काल में लोक कलाकारों की स्थिति बदहाल रही. ऐसे में इस बार पद्म पुरस्कारों में लोक कलाकारों की पहचान और उन्हें पुरस्कृत करने की पहल प्रशंसनीय है ‘भोजपुरी के शेक्सपीयर’ भिखारी ठाकुर (1887-1971) के सहयोगी रहे बिहार के चर्चित कलाकार रामचंद्र मांझी को नाच परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए पद्मश्री देने की घोषणा हुई है, वहीं मिथिला पेंटिंग के लिए दुलारी देवी और भीली शैली चित्रकला के लिए भूरीबाई को भी यह पुरस्कार मिला है. ये सभी कलाकार हाशिए के समाज से आते हैं जिन्हें काफी संघर्ष से अपने क्षेत्र में प्रसिद्धि मिली है.

बारह वर्ष की उम्र में मंच पर पैर रखने वाले 94 साल के मांझी आज भी नाच कला में सक्रिय हैं. पिछले साल एनएसडी के भारत रंग महोत्सव में ‘भिखारीनामा’ में लोगों ने उन्हें मंच पर देखा था. असल में लौंडा नाच की प्रसिद्धि का श्रेय भिखारी ठाकुर और उनकी मंडली को है. रामचंद्र मांझी भिखारी ठाकुर की नाट्य मंडली में शामिल थे. स्त्री रूप और साज-सज्जा में मंच पर आकर दर्शकों को रिझाने की कला को भिखारी ठाकुर और उनकी मंडली ने अपूर्व ऊंचाई दी, पर धीरे-धीरे यह कला समाज से ओझल होती चली गयी.रात भर दर्शकों का मनोरंजन करने वाली यह कला सामंती संस्कृति की उपज थी, जिसे मंडली ने पिछले सदी में सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता का औजार बनाया. भिखारी ठाकुर की रचना में निम्नवर्गीय चेतना (सबअल्टर्न) मुखर रूप से अभिव्यक्त हुई है.
गीत-संगीत, हास्य, व्यंग्य इस कला के मूल में है. ‘बिदेसिया’ नाटक में जो पलायन और अपनी जमीन से बिछुड़ने की पीड़ा है वह सिनेमा और नाटक के समकालीन कलाकारों को आज भी अपनी कला में ढालने के लिए उकसाता रहता है. हाल के दशक में इस कला के प्रति सामाजिक अस्वीकृति और तिस्कार का भाव जन्मा है. समाजशास्त्री पूरनचंद जोशी ने लिखा है, “लोक अध्ययन अवधारणाओं के संबंध में एक तरफ हम ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं, जिसने लोक समुदाय को आधुनिक सभ्यता के दायरे से बाहर मानकर वास्तव में सभ्यता के ही बाहर माना है.” हालांकि भिखारी ठाकुर की कला को लेकर कुछ शोध हुए हैं.

हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार संजीव ने भिखारी ठाकुर को केंद्र में रख कर ‘सूत्रधार’ की रचना की थी. उत्साह से भरपूर ठेठ भोजपुरी में मांझी कहते हैं कि ‘समाज में इसे हीन भावना से लोगों ने देखना शुरू किया पर इस पुरस्कार से लोगों में कला के प्रति फिर से वैसी ही सम्मान की भावना जागेगी जैसा कि भिखारी ठाकुर के समय में थी.’ वे कहते हैं कि उन्हें पहले भी बहुत पुरस्कार मिले हैं, पर यह सम्मान उनके लिए खास है.
हाल ही में जैनेंद्र दोस्त और शिल्पी गुलाटी ने चार कलाकारों को केंद्र में रख कर ‘नाच भिखारी नाच’ वृत्तचित्र का निर्देशन किया है. चारों कलाकार भिखारी ठाकुर नाच मंडली के सदस्य रह चुके हैं. इस वृत्तचित्र में लोक कला की राजनीति और सौंदर्य बोध को उजागर किया है. साथ ही इस कला से जुड़ा जातीय पहलू भी सामने आता है, क्योंकि ज्यादातर कलाकार सामाजिक रूप से पिछड़े तबके से ही आते रहे हैं.

(प्रभात खबर, 7 फरवरी 2021)

Tuesday, March 19, 2019

मिथिला की लिखिया कला


पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मिथिला कला की वयोवृद्ध एवं सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त को पद्मश्री से सम्मानित किया. राष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल से राष्ट्रपति भवन ने गोदावरी दत्त की तस्वीर शेयर करने के साथ ही लिखा कि पारंपरिक कला को बढ़ावा देने, उभरते कलाकारों को प्रशिक्षित करने और मार्गदर्शन के लिएउन्हें यह सम्मान दिया गया.

मधुबनी जिले के रांटी गांव में रहनेवाली, शिल्प गुरु, गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है. उनके यहां रंगों का प्रयोग कम-से-कम होता है. साथ ही उनके बनाये चित्रों के विषय पारंपरिक आख्यानों से जुड़े हैं.

रामायण, महाभारत के अनेक प्रसंगों को उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया है. भले ही उनके विषय पारंपरिक हों, पर उनके चित्र आधुनिक भाव-बोध के करीब हैं. वे खुद कहती हैं कि मेरी मां या पद्मश्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग फोक टचको लिए होता था. आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में बदलाव आया है.

कोहबर, सीता-राम, अर्धनारीश्वर जैसे पारंपरिक विषयों के अलावे मिथिला कला में भ्रूण हत्या, आतंकवाद, खेती जैसे विषय भी पिछले दो दशकों में चित्रित किये गये हैं. यह सैकड़ों साल पुरानी इस कला के विकसनशील होने का प्रमाण है.

पिछली सदी में जब प्रसिद्ध मिथिला कलाकार गंगा देवी ने अमेरिकी प्रवास को अपनी पेंटिंग मे चित्रित किया, आत्मकथात्मक रेखांकन किया, तब कला के पारखियों की नजर इस कला में निहित आधुनिक भाव बोध और संवेदनाओं की ओर गयी.

इसी तरह संतोष कुमार दास ने गुजरात सीरीजबनाकर गुजरात दंगों के दौरान धर्म-हिंसा के गठजोड़ को चित्रित कर इस कला को समकालीन समय और समाज से जोड़ा. आम तौर पर पारंपरिक कला में इस तरह के विषय नहीं देखे जाते.
हाल ही में शांतनु दास ने नागार्जुन की चर्चित कविता अकाल और उसके बादको एक बड़े कैनवस पर मिथिला कला की शैली में चित्रित किया है. नये युवा कलाकारों की शिक्षा-दीक्षा और माइग्रेशनने उनकी सोच और संवेदना का विस्तार किया है, जो इस कला में आज प्रमुखता से दिखायी देता है.

असल में, 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में ही आधुनिक विषय-वस्तु का इस पारंपरिक कला में प्रवेश दिखता है. अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यूजी आर्चर ने मार्गपत्रिका में वर्ष 1949 में जब मैथिल पेंटिंगलेख लिखा, तब उन्होंने इस कला के लिए फोक (लोक) शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था.

साथ ही मिथिला क्षेत्र में वर्ष 1934 में आये भूकंप के बाद आर्चर ने जो चित्र उतारी थी, उनमें दीवारों पर मिथिला शैली में रेलगाड़ीका चित्रण मिलता है. जाहिर है, उस समय भी लोग पारंपरिक विषय-वस्तुओं से अलग आधुनिक विषयों को अपनी कलम और कूची का आधार बनाते रहे थे. प्रसंगवश, आज भी पुराने लोग मिथिला कला को लिखियाकहते हैं, पेंटिंग नहीं.


(प्रभात खबर, 19 मार्च 2019 को प्रकाशित)

Wednesday, September 12, 2018

लोक नाट्य विधाओं की बदहाल स्थिति: रंगमंच पर नेटुआ


किसी मंत्र की तरह अक्सर ही यह सुनने को मिलता है कि लोक उत्सवधर्मी होता है। लेकिन जिन परंपराओं, लोकविधाओं के कारण लोक में उत्सव आकार लेता रहा है आधुनिकता के संसर्ग में उसका विघटन भी हुआ है, इस पर बात कम की जाती है। यह अच्छी बात है कि आधुनिक रंगमंच के कलाकारों के बीच इस तरह का मंथन चल रहा है। पिछले दिनों रतन वर्मा के लिखे नाटक नेटुआ करम बड़ा दुखदायीका दिलीप गुप्ता के निर्देशन में दिल्ली में मंचन हुआ। इस नाटक में बिहार की लोक नाट्य शैली, नेटुआ को लेकर आधुनिक मन में जो दुचित्तापन है, समाज में जेंडर को लेकर जो स्टिरियोटाइप है, कलाकारों के साथ जो भेदभाव है उसे नृत्य-संगीत के साथ प्रस्तुत किया गया। मौजूदा समय में लोक नाट्य शैली की बदहाली पर भी यह एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है।
बिहार में नेटुआ एक प्रकार का नृत्य है जिसे पुरुष पात्रों के द्वारा स्त्री के भेष में किया जाता रहा है। पैरों में घुंघरू बांध, स्त्रियों की आंगिक भाव-भंगिमाओं से नर्तक लोक का मनोरंजन करते रहे हैं। मेरे बचपन की अनेक स्मृतियों में यह भी सुरक्षित है। अपने इलाके, मिथिला की बात करूं तो वहां इसे नटुआ कहा जाता था। शादी-ब्याह के अवसर पर शामियाने के नीचे या किसी पर्व-त्योहार पर चौकियां जोड़ कर मंच तैयार किया जाता था, जिस पर ये नर्तक नाचते थे। ढोल, ढाक और अन्य वाद्य यंत्रों के बीच नाचते पैर देखने वालों को अपने सम्मोहन में बांधे रखते थे। हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गायक उदित नारायण अपने कई इंटरव्यू में इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि इन्हीं महफिलों, मंचों से निकल कर उन्होंने बॉलिवुड की ऊंचाइयों को छुआ है।
प्रसंगवश, छह-सात साल पहले मैंने मनोज वाजपेयी से पूछा था कि आप नेटुआलेकर मंच पर कब आ रहे हैं? उन्होंने कहा था- जल्दी ही। पर लगता नहीं कि वे मंच पर फिर लौटेंगे। रंगमंच से जुड़े एक मित्र कहते हैं कि अब वे कहां वापस लौटेंगे! फिल्मों से पहले 90 के शुरुआती वर्षों में उन्हें दिल्ली रंगमंच पर नेटुआनाटक से ही प्रसिद्धि मिली थी।
इसी तरहपिछले साल भारत रंग महोत्सव में नौटंकी की वर्तमान समाज में स्थिति, उसके उरूज और अवसान को लेकर भी एक नाटक का मंचन किया गया था। बात चाहे नौटंकी की हो, जात्रा की, तमाशा या भवाई की, आधुनिक समाज में लोक नाट्य विधाओं की जो स्थिति है, वह सुखद नहीं कही जा सकती।
जब से पॉपुलर कल्चर और खासतौर पर सिनेमा का प्रचार-प्रसार हुआ लोक में प्रदर्शनकारी कला के जो रूप चलन में थे वे हाशिये पर आ गए। जाहिर है सिनेमा के प्रचलन में आने से पहले और बाद के दशकों में भी ये लोक नाट्य विधाएं लोगों की रुचि और प्रोत्साहन की वजह से चलन में रहीं। अगर आज ये दर्शकों या मंच के लिए तरस रही हैं तो इसके लिए हमारा समय और समाज भी जिम्मेदार है।
सच तो यह है कि हमारे समाज में अभिनेताओं को वह स्थान कभी नहीं दिया गया जो साहित्यकारों या मूर्तिकारों को प्राप्त रहा है। आधुनिक काल में फिल्मों के अभिनेताओं की प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा अपवाद है। इसी बात को लक्ष्य कर संजीव के लिखे चर्चित उपन्यास सूत्रधारके नायक, भोजपुरी के प्रसिद्ध लोक कलाकार भिखारी ठाकुर क्षोभ के साथ कहते हैं: जिस साहित्य और साहित्यकार को वे इतनी बड़ी चीज मानते आए थे, वहां भी वही कनफुसुकिया और चपड़-चालाकी, वही डाह, वही बाभन-सूद चलता है क्या?’
असल में लोक कलाओं, नाट्य विधाओं से जुड़ने वाले अधिकांश कलाकार समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदाय से आते रहे हैं। सामंती और पूंजीवादी समाज की जाति और वर्ग व्यवस्था इस कला के सम्यक मूल्यांकन और कलाकारों के प्रति संवेदनशील दृष्टि में बाधा बन कर उपस्थित रही है। पर नृत्य जीवन है और इसलिए लोक में यह स्वर हमेशा सुनाई पड़ता है-जे नाची से बाची।

(नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर 12 सितंबर 2018 को प्रकाशित) 

Wednesday, April 12, 2017

चंपारण सत्याग्रह का कलमकार: पीर मुहम्मद मूनिस

पीर मुहम्मद मुनीस
आधुनिक भारत के इतिहास की तारीख़ में अप्रैल 1917 का भारी महत्व है. सौ साल पहले इसी महीने मोहनदास करमचंद गाँधी ने बिहार के चंपारण में जाकर सत्याग्रह की शुरुआत की थी. भारत की धरती पर अपने पहले अहिंसक सत्याग्रह के बारे में उन्होंने लिखा है- मैंने वहाँ ईश्वर का, अहिंसा का और सत्य का साक्षात्कार किया.भले ही गाँधी के लिए चंपारण अनजाना था, बिहार की जनता, चंपारण के लोक के लिए वे अपरिचित नहीं थे.

चंपारण के एक युवा पत्रकार, पीर मुहम्मद मूनिस (1882-1949) ने उन्हें चंपारण आने का निमंत्रण देते हुए एक पत्र में लिखा था- हमारी दुख भरी गाथा उस अफ्रीका के अत्याचार से, जो आप और आपके अनुयायी वीर सत्याग्रही भाइयों और बहनों के साथ हुआ- कहीं अधिक है.इस पत्रकार का नाम न तो गाँधी की आत्मकथा में मिलता है, न ही आधुनिक भारत के किसी इतिहास में. हाल के वर्षों में छिटपुट कुछ लेखों में गाँधी को चंपारण की धरती पर लाने में सूत्रधार की भूमिका में खड़े राजकुमार शुक्ल के साथ चलते-चलते इस पत्रकार की भी चर्चा कर दी जाती है. यहाँ तक कि बिहार की पत्रकारिता का इतिहासलिखने वालों की नज़र में भी वे नहीं समा पाते!

मेरे लिए आश्चर्य की बात है कि गाँधी, जो खुद एक पत्रकार भी थे, चंपारण सत्याग्रह के कलमकार, पत्रकार, सत्याग्रही पीर मुहम्मद मूनिस का उल्लेख करने से कैसे चूक गए!

मूनिस कानपुर से निकलने वाले पत्र प्रताप’ (संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी, 1913-31) के संवाददाता थे. वर्ष 1914 से वे नियमित रूप से प्रताप में पत्रों, लेखों, टिप्पणियों के माध्यम से नीलहों के आतंक, अत्याचार, किसानों की परेशानी, शोषण और उनके संघर्ष को दुनिया के सामने ला रहे थे. इनमें कई लेख उन्होंने छद्म नाम दुखी आत्मासे भी लिखा. गाँधी के चंपारण आने से पहले ही वे प्रताप में चंपारण में अंधेर’ (13 मार्च 1916), ‘चंपारण की दुर्दशा’ (10 अप्रैल 1917) आदि लेख लिख चुके थे. उन्होंने गाँधी की चंपारण यात्रा की रिपोर्ट भी प्रताप को भेजी थी. प्रसंगवश इसी दौर में बिहारीअखबार (1912) में संपादक बाबू महेश्वर प्रसाद ने चंपारण के रैयतों पर नीलहों के दमन की रिपोर्टों, टिप्पणियों को प्रकाशित किया जिसकी वजह से उन्हें अपने संपादक पद से हाथ धोना पड़ा था. मूनिस के लिए इस तरह की रिपोर्ट लिखना आसान नहीं था जिसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा.

मूनिस के लेखों का संकलन-संपादन करने वाले पत्रकार श्रीकांत लिखते हैं: मूनिस अरबी का शब्द है जिसका अर्थ है मददगार, साथी, कामरेड. मूनिसपीर मुहम्मद अंसारी का तखल्लुस (उपनाम) था. अपने नाम की सार्थकता उन्होंने जीवनपर्यंत सिद्ध की. जैसा नाम वैसा काम.’’
प्रभात प्रकाशन, दिल्ली  से प्रकाशित


जब देश में हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान की बात की जा रही थी तब मूनिस हिंदुस्तानी भाषा की वकालत कर रहे थे. बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का 15वां अध्यक्ष उन्हें बनाया गया था और वे इस संस्थान के संस्थापकों में शामिल थे. भाषा के प्रति उनका नजरिया एकदम स्पष्ट था. भाषा ऐसी हो जिसमें लोगों की आत्मा बोले. उन्होंने हिंदी भाषा के बारे में जो बात वर्ष 1937 में कही वह आज भी मौजूं है- कुछ लोग हिंदी-भाषा को जनता की भाषा न बनाकर पंडितों की भाषा बनाने का विफल प्रयत्न कर रहे हैंजनता के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग-लिखने और बोलने में करना चाहिए जो सरल, सुबोध और भावमय हो, जनता जिसे तुरंत समझ जाए और उसी भाषा में अपना अभिप्राय आसानी से प्रकट कर सके.भाषा के प्रति ऐसा रवैया वही अपना सकता है जिसका जुड़ाव जनता से हो. उनके लेखों में शायरों की पंक्तियाँ और रामचरित मानस के दोहे एक साथ उद्धृत मिलते हैं.

वे कलम के सिपाही होने के साथ-साथ देश के लिए लड़ने वालों के साथ खड़े थे. जब चंपारण में कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1921 में हुई तब वे उससे जुड़े. बाद में आंदोलनों के दौरान वे जेल भी गए. जब तिनकठिया प्रथा समाप्त हो गई तो ऐसा नहीं कि वे चुप बैठ गए. उन्होंने वर्ष 1920 में चंपारण में फिर नादिरशाहीजैसे रिपोर्ताज लिखे थे. उन्होंने लिखा- कोठी के साहब बहादुर ने मोटरकार खरीदने के लिए गाँव के रैयतों पर हूबलीटैक्स लगाया.’’ वे जीवनपर्यंत गरीब किसानों, मजलूमों के साथ खड़े रहे.

मूनिस हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे. वर्ष 1915 में प्रताप में  हिंदू-मुस्लिम एकताशीर्षक से लिखे लेख में उनके लोकतांत्रिक विचारों की झलक मिलती है. वे लिखते हैं- ‘‘जहाँ एकता है वहाँ विरोध भी है और जहाँ विरोध है वहाँ एकता भी साथ ही साथ है. सारे जन-समुदाय का एक विचार, एक भाव और एक ख्यालात का होना सर्वथा असंभव है.इस लेख के प्रकाशन का वर्ष यदि 1915 के बदले 2015 कर दिया जाए तो ऐसा लगेगा कि वे समकालीन भारत को संबोधित कर रहे हैं!

आचार्य शिवपूजन सहाय ने मूनिस के व्यक्तित्व और कृतित्व पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि मूनिस एक निर्भीक, स्वाभिमानी, बलिदानी पत्रकार थे, पर जब विद्यार्थी जी हिंदू-मुस्लिम एकता की बलिवेदी पर शहीद हो गए तब मूनिसजी सर्वथा असहाय हो गए.जाहिर है, मूनिस, प्रताप के संपादक और स्वतंत्रता सेनानी विद्यार्थी से गहरे प्रभावित थे.

सहाय के मुताबिक मूनिस के लेखों का संग्रह जो प्रकाशक के पास था वह बिहार में 1934 में आए भूकंप में नष्ट हो गया था. मूनिस के लेखों, निजी पत्रों के अभाव में इतिहास के कई प्रश्न अनुत्तरित रह गए हैं. प्रसंगवश, 23 अप्रैल 1917 की शाम में गाँधी मूनिस की माता से मिलने बेतिया स्थित उनके घर पैदल गए. वहाँ हजारों लोग मौजूद थे, पर मूनिस की चर्चा कहीं नहीं है. क्या उस दिन मूनिस मौजूद थे? इस बात का उल्लेख न गाँधी करते हैं, न हीं राजकुमार शुक्ल? फिर वे उस दिन कहाँ थे? सवाल यह भी है कि चंपारण सत्याग्रह के इतिहास में मूनिस कहां हैं? या इसे इस तरह भी कहा जा सकता है क्या सरकार और बौद्धिक वर्ग को मूनिस की सुधि है?

Thursday, January 30, 2014

अंतिम प्रणाम



वे दिन फाख्ताओं के पीछे भागने के थे. आम, अमरुद, जामुन के पेड़ों पर चढ़ने के थे. डिबिया (ढिबरी) और लालटेन की रोशनी में अक्षरों और शब्दों से खेलने के थे. 

स्कूल से आते-जाते किसी और के खेतों से मटर और छिमियाँ हम उखाड़ लाते. किसी के पेड़ से आम तोड़ लाते.  स्कूल नहीं जाने के दस बहाने करते. हम भाई-बहनों की इस खेल में दादी, जिसे हम दाय कहते थे, हर पल शामिल रहती थी, गोइयां की तरह.
 
बाबा जब गुजरे तब मैं बहुत छोटा था, वो मुझे याद नहीं. दाय के आँचल में ही हमने जीवन के पहले गीत सुने-पाथेर पांचाली. मुझे याद नहीं कि दादी ने कभी राजा-रानियों की कहानी हमें सुनाई हो. दादी की कहानियाँ उसके जीवन संघर्ष की कहानियाँ होती थी. 

दाय निरक्षर पर जहीन थी. लोक अनुभव का ऐसा संसार उसके पास था जहाँ शास्त्रीय ज्ञान बौना पड़ जाता है! जब हम उसे चिढ़ाते तो वो अपना नाम हँसते हुए हमें लिख कर दिखाया करती- जानकी. पर यह नाम उसे पसंद नहीं था. वो कहती कि जानकी के जीवन में बहुत कष्ट लिखा होता है. मिथिला में सीता स्त्री दुख का एक रुपक है!  

दाय के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, गोकि उसके दोनों छोटे भाई बिहार सरकार में प्रशासनिक अधिकारी थे. जब हम उससे पूछते कि तुमने क्यों नहीं पढ़ाई की, वो कहती कि उस समय में लोग कहते थे कि पढ़ाई करने से वैध्वय मिलता है’.  जिस समाज में मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषियों के किस्से पीढ़ी दर पीढ़ी कायम हो वहाँ कैसे इस तरह की स्त्री विरोधी, प्रतिगामी विचारों ने जगह बनाई होगी आश्चर्यचकित करता है. यदि दाय की पीढ़ी को मिथिला में औपचारिक शिक्षा मिली होती तो मिथिला के सामंती समाज का चेहरा इतना विद्रूप नहीं होता.

दाय घड़ी देख कर समय का हिसाब नहीं लगाती. सूर्य को देख कर कहती- एक पहर बीता, दो पहर बीता. अपने जन्म का हिसाब वो 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप से लगाती. दाय कहती 1934 में जब भारी भूकंप आया था तब मैं 10-12 वर्ष की थी. शादी के बाद जिस घर में वो आई उसने कई रुप बदले. लेकिन वह लकड़ी का तामा, जो दाय के गाँव से आया था पिछले 75 सालों से आज भी घर में है. उस जमाने में तामा से नाप-तौल होता था. कवि विद्यापति ने अपनी एक कविता में लिखा है:  मांगि-चांगि लयला महादेव धान ताम दुई हे. दादी कहती उस जमाने में गाँव में कहीं-कहीं चूल्हा जलता था, पर लोग मिल-बांट कर खाते थे. जब भी हम उससे आज की गरीबी की बात करते तो वह कहती नहीं, पहले जैसी स्थिति नहीं है. अब सब घर में चूल्हा तो जलता है. औपनिवेशिक दौर में पली-बढ़ी उस पीढ़ी के लिए भूख सबसे बड़ा सच था.

पहली बार विस्थापन की पीड़ा हमने दाय से ही जानी. भले ही 75 वर्ष पहले वो गौने होकर आई पर उसका अपना गाँव, नैहर उससे मरते समय तक नहीं छूटा. जब कभी हम पूछते गाँव चलोगी? एक चमक उसकी आँखों में कौंध उठती.  

हम रोजी-रोटी के लिए इस शहर उस शहर भटकते रहे. दाय खूंटे की तरह अपनी जमीन से गड़ी रही. जब भी उससे कहते दिल्ली चलो, तो उसका टका सा जवाब होता- मरने समय क्या मगहर जाऊँगी. हम एक बछड़े की तरह छह महीने, साल में उस खूंटे की ओर दौड़ पड़ते. 

उस दिन पापा ने फोन पर कहा, माँ गुज़र गई’. निस्तब्ध, मुझे लगा खूंटा उखड़ गया. अपनी ज़मीन से नमी चली गई. 

(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 'अंतिम पहर बीता' शीर्षक से 6.02.14 को प्रकाशित)

Saturday, June 01, 2013

फालसे काले काले

तब हम बच्चे थे. माँ के पेट पर चिपके रहते. गर्मियों में बाहर जाने से रोकते हुए मां हमें अपने पास पकड़ कर रखती. पर थोड़ी देर में वो खुद सो  जाती. सोते हुए माँ के कानों में बड़े बड़े सोने के छल्ले अच्छे लगते थे.  बड़े भाई की जब शादी हुई तो भाभी के लिए वे वैसे ही छल्ले ढूंढ रहे थे...पर समय के साथ सोने में चमक और खनक दोनों ग़ायब होती गई. बहरहाल,  मां जब सो जाती तो हम उसके कानों के छल्ले को खोलते-खेलते थक जाते. फिर गर्मी से  बेपरवाह,  इधर-उधर देख, भाग जाते आम के टिकुलो की टोह में.

दिल्ली की इन गर्मियों में जब सुबह सबेरे नींद खुल जाती है और कानों में सुरीली फालसे काले काले  की आवाज़ सुनाई पड़ती है, मन जाने क्यूँ गाँव पहुँच जाता है. मैं फोन पर माँ से पूछता हूँ- क्या मिरचई अभी भी डुगडुगी बजाता, साइकिल पर 'बरफ' लेकर गाँव आता है?  बाड़ी में आम के टिकुले अब तो बड़े हो गए होंगेडबरे का पानी तो सूख गया होगा!

यायावर नागार्जुन ने लिखा है: “याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम/ याद आतीं लीचियां, वे आम/याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान/ याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुण अनुसार ही रखे गए वे नाम. तरौनी की जगह बेलारही रख दीजिए. यह कविता मेरी हो जाएगी. वैसे तरौनी से मेरे गाँव की दूरी 20 किलोमीटर ही तो है, और ननिहाल?  महज चार. शायद हर प्रवासी की पीड़ा कहीं ना कहीं मिलती जुलती है. पहले नॉस्टेलजिया और फिर गहरा अवसाद!  

मार्च में हफ्तेभर के लिए गाँव गया था. पापा अपने स्वभाव के विपरीत शांत थे. उनकी युवोचित हँसी नहीं सुनाई पड़ रही थी. माँ से पूछा- पापा इतने चुप क्यों रहते हैं? पापा से पूछा- डिप्रेशन में तो नहीं हैं...? पापा ने कहा- नहीं. पर कुछ देर बाद कहा- अब यह उम्र पोते-पोतियों के संग खेलने की है, अकेले रहने की नहीं...रिटारयरमेंट के बाद ऐसा लगता है कि सारी ऊर्जा खत्म हो गई. बूढ़ी दादी के पूछता हूँ- दिल्ली चलोगी?  वो कहती है- मरने के समय क्या मगहर जाउँगी?

90 के दशक में जब हम बिहार से दिल्ली पढ़ने आए थे उस वक्त बच्चों को दिल्ली पढ़ने भेजना मध्यवर्गीय परिवार के लिए एक तरह का स्टेटस सिंबल था. जिनके पास भी थोड़ा-बहुत साधन था बच्चों को बाहर पढ़ने भेज दिया. और वे नौकरी-चाकरी के चक्कर में वहीं के होकर रह गए. बीस साल बाद अब दरभंगा-मधुबनी जिले के गाँव बूढ़ों का बसेरा बन गए हैं. बिहार में गाँवों में स्वास्थ्य और बिजली की सुविधा पिछले तीन दशकों में बमुश्किल सुधरी है. इन मूलभूत सुविधाओं के बिना बुढ़ापा एक रोग और भय की तरह आता है.

वीएस नायपाल के एक जुमले का इस्तेमाल कर कहें तो लालू-राबड़ी यादव के शासन के दौर में मीडिया में बिहार की छवि एक ऐसे राज्य की बन गई थी जहाँ सभ्यता का अंत हो गया है. पर नीतिश कुमार के शासन काल में मीडिया में एक ऐसी छवि बन रही है कि बिहार जल्दी ही अपने अतीत कालीन गौरवको पा लेगा. दोनों ही छवियाँ अतिरंजित और सच से परे हैं. मीडिया में इस समय सबसे ज्यादा जोर जीडीपी के आँकड़ों, नीतिश की सेक्यूलर छवि और प्रस्तावित नालंदा विश्वविद्यालय को लेकर है. पर जमीनी हकीकत बिहार के गाँव, खेत और खलिहानों में ही दिखता है,  चिकने-चुपड़े राष्ट्रीय राजमार्गों पर नहीं!

(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 5 जून 2013 को प्रकाशित)