Sunday, November 28, 2021

मिथिला के इतिहासकार की याद: राधाकृष्ण चौधरी

 


इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी (1921-1985) का यह जन्मशती वर्ष है, लेकिन उनकी बहुमुखी प्रतिभा और रचनात्मकता के अनुकूल चर्चा नहीं हो रही. वे इतिहास के प्रोफेसर और बहुभाषी विद्वान थे. उनकी लेखनी अंग्रेजी, हिंदी और मैथिली में एक साथ मिलती है. वे मिथिला के इतिहासकार के रूप में चर्चित रहे, पर उल्लेखनीय है कि वे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के अध्ययन में बिहार के प्रथम प्रतिनिधि भी थे. उनके पुरातत्त्ववेत्ता रूप की चर्चा भी अपेक्षित है. मिथिलाक राजनीतिक इतिहास (1960)मिथिलाक सांस्कृतिक इतिहास (1963) के बाद उन्होंने अपनी बहुचर्चित कृति मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति लिखी जो साहित्य और इतिहास के शोधार्थियों के बीच आज भी समादृत है.

वर्ष 2002 में जब मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध के लिए दाखिला लिया और नागार्जुन के उपन्यासों को एमफिल लघु शोध-प्रबंध के लिए चुना था तब हिंदी के आलोचक प्रोफेसर मैनेजर पांडेय ने मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति पढ़ने की मुझे सलाह दी थी. इस पुस्तक से राधाकृष्ण चौधरी की मिथिला समाज  की गहरी ऐतिहासिक समझ और इतिहास बोध सामने आता है. साथ ही उनके विस्तृत अध्ययन और शोध का भी पता चलता है. वर्ष 1976 में प्रकाशित इस पुस्तक के आमुख में उन्होंने लिखा है- इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य मिथिला के आम जन के जीवन प्रसंग से संबंधित जितनी जानकारी संभव हो सामने लाना है. राधाकृष्ण चौधरी वामपंथी विचारधारा से प्रेरित थे. बाद के दशक में इतिहास अध्ययन में जो सबालटर्न स्टडीज का स्वर सुनाई पड़ा उसका पूर्व-पक्ष यहाँ देखा जा सकता है.

मिथिला का समाज अपनी संकीर्णता और रूढ़ियों के लिए भी कुख्यात है. जातिवाद, स्त्रियों की दारुण दशा सामंती व्यवस्था से उपजी मानसिकता से परिचालित होती रही है. चौधरी ने लिखा है: “जब से हरसिंह देव ने कुलीनवाद’ लागू की तब से इन छह सौ वर्षों में मिथिला की पुरानी सामाजिक सरंचना में बमुश्किल कोई बदलाव आया है.”  कुलीनवाद ने पहले से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को और कठोर बना दिया था. विद्यापति (1350-1450) ने अपनी नचारी और महेशवाणी जैसे पदों में जिस सामाजिक असमानता, निपट गरीबी औऱ स्त्रियों की पराधीनता और दुख का बार-बार वर्णन किया है वह आज भी आम जन के लिए उतना ही सच है जितना विद्यापति के समय और समाज के लिए के लिए था. विद्यापति देशी भाषा के पहले कवि थे जिनके यहाँ सेकुलर ध्वनि सुनाई देती है. चौधरी ने लिखा है: ‘विदयापति की रचना का उत्स मिथिला के लोगों की सामाजिक जरूरतें थीं. नचारी और महेशवाणी में विद्यापति ने आम जनों के दर्द को ही अभिव्यक्त किया है, पर उन्होंने समाजिक शोषण के प्रति विद्रोह की भावना को भगवान की तरफ मोड़ दिया.

सामंतवाद की जगह लोकतंत्र आ गया, तंत्र के बदलने से लोक’ की स्थिति कितनी बदली? आजादी के 75वें वर्ष में मिथिला के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के संदर्भ में इस प्रश्न की पड़ताल जरूरी है. मिथिला के समाज और संस्कृति से जीवनपर्यंत जुड़े रहे राधाकृष्ण चौधरी के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी. 


(प्रभात खबर, 28 नवंबर 2021)

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