Sunday, January 02, 2022

क्रिकेट के ऐतिहासिक दृश्य को रचती फिल्म


कबीर खान निर्देशित फिल्म ‘83’ के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों के शोर और तालियों की गड़गड़ाहट से यह बात साबित हो रही थी कि सिनेमा का आनंद लेने के लिए दर्शकों को सिनेमाघरों में वापस लौटना ही होगा. पर अभी यह आसान नहीं लगता. यह फिल्म बड़े परदे के लिए बनी है और इसी कारण निर्माता-निर्देशक ने इसकी रिलीज के लिए करीब डेढ़ साल इंतजार किया.

इतिहासकार सीएलआर जेम्स ने अपनी चर्चित किताब ‘बियांड ए बाउंड्री’ में लिखा है कि ‘नाटकीय होने के साथ साथ क्रिकेट एक दृश्य कला भी है.’ इस फिल्म को देखते हुए यह बात बार-बार जेहन में आती रही. वर्ष 1983 में भारत ने कपिल देव के नेतृत्व में विश्व कप में ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी. एक कप्तान के जज्बे और टीम की उम्मीद की इस कहानी को परदे पर देखना मनोरंजक और रोमांचकारी है. इस फिल्म में क्रिकेट के साथ जुड़ी नाटकीयता को सधे ढंग से असीम मिश्रा ने कैमरे में कैद किया है.
यूँ तो जब ब्रिटेन के नाविक काम्बे के तट पर अपने बीच एक मैच वर्ष 1721 में खेलते हैं, तब पहली बार भारत में क्रिकेट की चर्चा होती है. पर कपिल देव के कप्तानी में विश्व कप में मिली जीत के बाद इस खेल को सैटेलाइट टेलीविजन ने हवा दिया और आज क्रिकेट की पहुँच शहर से लेकर गाँव, चौक-चौराहे, गली-नुक्कड़ तक है. औपनिवेशिक विरासत के रूप में इस खेल का देसीकरण हो गया.
विश्व कप के दौरान जब जिम्बाब्वे के खिलाफ कपिल देव ने 175 रन की नॉटआउट पारी खेल कर निर्णायक जीत दिलवाई थी, उस दिन बीबीसी हड़ताल पर थी तो उस मैच की कोई वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं है. पर अन्य मैचों के फुटेज मौजूद हैं. निर्देशक के फिल्म के शुरुआत से उन फुटेज का इस्तेमाल कुशलता से किया है.
ड्रेसिंग रूम की नोक-झोंक, खिलाड़ियों के हाव-भाव, तनाव, उद्वेग, आवेग को कपिल देव के किरदार में रणवीर सिंह के साथ-साथ मोहिंदर अमरनाथ के किरदार में साकिब सलीम, श्रीकांत के किरदार में जिवा और यशपाल शर्मा की भूमिका में जतिन सरना सहज और विश्वसनीय लगते है. इस फिल्म की कास्टिंग पर अलग से बात की जानी चाहिए.
टीम के मैनेजर की भूमिका में पंकज त्रिपाठी अलग से नोटिस किए जाते हैं. उनका यह संवाद-‘पैंतीस साल पहले हमने आजादी जीती, इज्जत जीतना अभी बाकी है कप्तान’, जैसे क्रिकेटीय राष्ट्रवाद की तस्दीक करता है. जैसे अक्सर खेल को केंद्र में रख कर बनी फिल्मों में राष्ट्रवाद लिपटा चला आता है, इसमें भी क्रिकेटीय राष्ट्रवाद दिखता है, पर वह हावी नहीं है. निर्देशक ने इसे फिल्म के केंद्र में नहीं रखा है. आजाद भारत में सिनेमा और क्रिकेट देश को एक सूत्र में जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं. इस फिल्म में सांप्रदायिक दंगों के बीच क्रिकेट मैच ऐसे ही दृश्य रचते हैं.
फिल्म के साथ यह सवाल भी लिपटा हुआ चला आता है कि आज जिस रूप में क्रिकेट से ग्लैमर और व्यापार जुड़ा है,क्या अब भी दर्शक उसी लगाव से इस लोकप्रिय खेल से जुड़ रहे हैं जैसा कि 1983 में जुड़े थे?

(प्रभात खबर, 2 जनवरी 2022)

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