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Friday, July 03, 2020

उत्तर पूर्व के कलाकारों को भी जगह दे बॉलिवुड

नस्लवाद जैसे मुद्दे पर फिल्म बनाने का विचार आपके मन में कैसे आया?
असल में नस्लवाद को मैं खुद झेल चुका हूँ. यह ऐसा विषय है जो हमेशा मेरे दिमाग में रहा है. मैं करीब 25 सालों से नार्थ-ईस्ट बाहर हूँ, जिसमें से लंबा समय दिल्ली में गुजारा है. मैं बाहर रह रहे उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ होने वाले भेद-भाव के बारे में फिल्म बनाना चाहता था.
कोई व्यक्तिगत अनुभव जो आप हमसे शेयर करना चाहें...
बहुत सारे अनुभव हैं, लेकिन अभी जो तुरंत मेरे दिमाग में आ रहा है वो आपसे शेयर करुंगा. मैं हूमायूंपुर इलाके में रहता था जो अखोनी फिल्म की जगह भी है. 90 के दशक के आखिरी वर्षों की बात है मैं डियर पार्क में रोज दौड़ा करता था. कुछ लोग मुझे देख कर दलाई लामा, जैकी चान कहकर हमेशा चिल्लाया करते थे. एक दिन मैंने उनसे पूछा कि जैकी चान तो मैं समझ सकता हूँ, मैंने खुद उनकी कई फिल्में देखी हैं, पर दलाई लामा क्यों? अभी दिल्ली के लोगों में उत्तर-पूर्वी राज्यों के प्रति जागरुकता बढ़ी है, पर बीस साल पहले ऐसा नहीं था. इसमें इंटरनेट जैसी सूचना प्राद्योगिकी की काफी भूमिका है.
फिल्म के बारे में बात करें तो ‘अखोनी’ (सोयाबीन को फर्मेंट करके बना खाद्य पदार्थ) की गंध के माध्यम से आप नस्लीय भेदभाव को दिखाते हैं. यह विचार कैसे आया?
आप उत्तर-पूर्वी राज्यों से बाहर निकलते हैं तो पहली समस्या खाना पकाने और उसकी गंध को लेकर आती है. इसे सभी अनुभव करते हैं. जब मैंने इस कहानी को लिखना शुरु किया तबसे ही यह मेरे मन में सहज रूप में उपस्थित था. गंध सापेक्षिक होती है. जैसे कढ़ी हमारे लिए सामान्य है, पर 60-70 के दशक में इसकी तीव्र गंध की वजह से गोरे लोग लंदन में दक्षिए एशिया के लोगों को किराए पर घर देना पसंद नहीं करते थे. इसी तरह अखोनी अन्य लोगों के लिए तीव्र गंध लिए होता है, पर हमारे लिए सामान्य है.
अखोनी पहली ऐसी पहली फिल्म है जो उत्तर-पूर्वी राज्यों की भाषा, संस्कृति और उनके साथ होने वाले भेदभाव को विषय के रूप में चित्रित करती है. बॉलिवुड से यह विषय अब तक गायब क्यों चला आ रहा है?
हां, यह समस्या तो है जिसके बारे में बॉलिवुड में सोच-विचार नहीं किया जाता और बॉलीवुड को यह आरोप झेलना पड़ेगा. एक उदाहरण से में बात करना चाहूँगा. हॉलिवुड के बारे में बात करें तो 20-30 साल पहले तक वहां गोरे और अश्वेत लोग ही सिनेमा में दिखते थे. लेकिन आज बहुत सारे चीनी मूल के अमेरीकी, वियतनामी दिख जाएँगे. कास्टिंग डायरेक्टर को इस बारे में सोचना चाहिए. यदि फिल्म की कहानी किसी गांव पर केंद्रित हो तो समझ आता है, पर शहरी कहानी में उत्तर-पूर्वी राज्यों का रिप्रजेंटेशन होना चाहिए.
क्या नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, हॉट स्टार जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के आने से कुछ बदलाव की संभावना आपको दिखती है?
हां, विविध विषयों के तरफ निर्देशकों का ध्यान अब जाने लगा है लेकिन इसके लिए शिद्दत से कोशिश करनी होगी. ओटीटी प्लेटफॉर्म निस्संदेह अच्छा है, नए विषयों के लिए. न सिर्फ उत्तर-पूर्वी लोग, बल्कि जो भी अल्पसंख्यक हैं, शारीरिक रूप से अक्षम हैं उन विषयों को भी हमें अपनाना चाहिए.
अखोनी में ज्यादातार कलाकार उत्तर-पूर्वी राज्यों से हैं. क्या आपको कास्टिंग में दिक्कत आई?
हां, कास्टिंग एक बड़ी समस्या मेरे लिए थी. क्योंकि आपको उत्तर-पूर्व के बहुत कम कलाकार मिलेंगे. अभिनय उनके लिए कोई करियर ऑप्शन नहीं है. फिल्म में आपको लिन लैश्राम और लानुकुम एओ दिखेंगे जो काफी प्रतिभाशाली हैं. एओ एनएसडी से प्रशिक्षित हैं. उनके जैसे कई कलाकार उत्तर-पूर्वी राज्यों से हैं पर काम के अभाव में वे कोई और रास्ता चुन लेते हैं. वे कहते हैं, काम ही नहीं है क्या करुँ.
फिल्म का गीत-संगीत काफी भावपूर्ण है. इस बारे में कुछ बताइए?
गीत-संगीत का कुछ हिस्सा मेघालय से है और कुछ मणिपुर से. एक गीत असम से भी मैंने लिया है. मैंने फिल्म में उत्तर-पूर्वी राज्यों की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का ख्याल रखा है. आप देखेंगे कि एक दृश्य में कमरे में बैठे लोग एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते जबकि वे सब उत्तर-पूर्वी राज्यों से आते हैं. 

(नवभारत टाइम्स, 3 जुलाई 2020)

Sunday, June 28, 2020

छोटी फिल्में, बातें बड़ी: अखोनी


बॉक्स ऑफिस के आंकड़ो का दबाव बॉलीवुड के फिल्मकारों को प्रयोग करने से हमेशा रोकता रहा है. अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक अपवाद हैं. ऐसे में ‘ओवर द टॉप’ वेबसाइट (नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, हॉट स्टार आदि) प्रयोगशील फिल्मकारों के लिए एक उम्मीद बन कर उभरे हैं. सबटाइटल के माध्यम से दुनिया भर के दर्शकों तक एकसाथ फिल्मों की पहुँच ने फिल्मकारों को नए विषय-वस्तु को टटोलने की ओर प्रवृत्त किया है. पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई लेखक-निर्देशक निकोलस खारकोंगोर की ‘अखोनी’ ऐसी ही फिल्म है, जिसमें नस्लवाद जैसे संवेदनशील विषय को मनोरंजक अंदाज में चित्रित किया गया है.


यह फिल्म उत्तर-पूर्वी राज्यों के युवाओं और उनकी खान पान की संस्कृति के इर्द-गर्द घूमती है. फिल्म के केंद्र में ‘अखोनी’ (एक प्रकार का फरमेंटेड सोयाबीन जो उत्तर-पूर्वी राज्यों में पाया जाता है और खाने में जिसका प्रयोग किया जाता है) का तीव्र गंध है. आस्कर पुरस्कार से सम्मानित बहुचर्चित दक्षिण कोरियाई फिल्म ‘पैरासाइट’ में गंध समाज में व्याप्त वर्ग विभेद को सामने लेकर आता है जबकि इस फिल्म में गंध के माध्यम से नस्लीय भेदभाव से हम रू-ब-रू होते हैं.

फिल्म दक्षिणी दिल्ली के हुमायूंपुर इलाके में अवस्थित है जहाँ रंग और रूप के आधार पर ‘आत्म’ और ‘अन्य’ का विभेद स्पष्ट है. एक दोस्त की शादी के अवसर पर ‘अखोनी पोर्क’ व्यंजन की तैयारी और उसे पकाने के लिए एक ‘सुरक्षित जगह’ की तलाश की जद्दोजहद असल में दिल्ली जैसे महानगर में युवा प्रवासियों के लिए सपनों के ठौर की तलाश भी है. ‘अखोनी’ के गंध के साथ घर से बिछुड़ने की पीड़ा और स्मृतियों का दंश भी लिपटा हुआ चला आता है.

हिंदी फिल्मों में उत्तर-पूर्वी राज्यों की संस्कृति का चित्रण गायब है. अगर कोई किरदार नजर आता है, तो वह अमूमन स्टीरियोटाइप होता है. शिलांग में पले-बढ़े निकोलस खारकोंगोर इन राज्यों की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को चित्रित करने में सफल रहे हैं. फिल्म में एक दृश्य है जहाँ मित्र अपने परिचितों-संबंधियों से फोन पर जिस भाषा में बात करते हैं वह कमरे में मौजूद एक-दूसरे के लिए अबूझ है. सयानी गुप्ता और डॉली अहलूवालिया जैसे कलाकारों के साथ इस फिल्म में ज्यादातर किरदार उत्तर-पूर्वी राज्यों से ही हैं.

कोरोना महामारी के बीच रंग और रूप के आधार पर भेदभाव की प्रवृत्ति और बढ़ गई है. यह जहाँ भारतीय समाज मे व्याप्त पाखंड और पूर्वाग्रहों को हमारे सामने लेकर आता है, वहीं राज्यसत्ता पर भी सवाल खड़े करता है. हुमायूंपुर जैसे शहरीकृत गाँव (अर्बन विलेज) का चयन फिल्म की विषय वस्तु के हिसाब से सटीक है. यह इलाका उत्तर-पूर्वी राज्यों और अफ्रीकी नागरिकों के लिए सस्ता रिहाइश है जहां विभिन्न भाषाओं-संस्कृतियों के बीच खान-पान के अड्डों के माध्यम से आदान-प्रदान होता रहता है.

दिल्ली में अवस्थित होने के बावजूद इस फिल्म में ना तो लाल किला है, ना ही इंडिया गेट. कैमरा हुमायूंपुर और आस-पास की गलियों तक ही सीमित है जो सामाजिक यथार्थ के बेहद करीब है.

(प्रभात खबर, 28 जून 2020)