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Friday, August 19, 2022

शहरनामा-झंझारपुर



जिले की चाह लिए एक कस्बा

गाँवों से घिरा झंझारपुर एक कस्बा हैजो शहर होना चाहता है. बिहार के मधुबनी जिले के इस सब डिवीजन के अंदर जिला बनने की ख्वाहिश कई दशक से है. जैसा कि छोटे कस्बों में रहने वालों की चाह होती हैस्कूल से पढ़-लिखकर हर कोई दरभंगा-दिल्ली की रेलगाड़ी पकड़ना चाहता है. अब तो दरभंगा में हवाईअड्डा भी है! क्या यह शहर हैयह सवाल बहुत बाद में हमारे मन में आयाजब हमने शहरों को देखा और वहीं के होकर रह गए. लेकिन हमारे बचपन का तो यही पहला शहर है. यहाँ थाना हैबाजार हैकोर्ट--कॉलेज हैस्टेडियम भी है. हांयहां के बांस टॉकीज’ में ही हमने पहली फिल्म देखी. माँ भी कहती है कि मैथिली की पहली फिल्म कन्यादान’ उन्होंने वर्ष 1972-73 में बांस टॉकीज में ही देखी थी.

जिसके आंगन बहती है नदी

झंझारपुर के आंगन में नदी बहती है. असल में कमला और बलान नदियों के तट पर बसा यह शहर राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण रहा है. यह लोकसभा क्षेत्र भी है जहाँ से चुनकर देवेंद्र यादव जैसे सांसद केंद्र सरकार में मंत्री बने. पर बिहार के राजनीतिक इतिहास में यह पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की वजह से जाना जाता हैजो झंझारपुर विधानसभा से चुन कर बिहार के मुख्यमंत्री बनते रहे. लंगड़ा चौक पर बैठ कर राष्ट्रीय जनता दल के नेताप्रोफेसर रामदेव भंडारी को अखबार बांचते हमने देखा और बाद में राज्यसभा में भी. यहीं हमने राजीव गाँधीचंद्रशेखरवी पी सिंह और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता को देखा-सुना. दादी के मुँह से लाट साहबों से किस्से सुने.  भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वर्ष 1942 में झंझारपुर स्थित थाने को घेरने-जलाने की बात भी मैंने स्वतंत्रता सेनानियों के मुँह से सुनी है. किसी इतिहासकार को इस शहर के राजनीतिक इतिहास को पंक्तिबद्ध करनी चाहिए.

सांस्कृतिक एकता का पुल

बीसवीं सदी की शुरुआत में कमला-बलान नदी पर करीब दो सौ बीस फीट लंबा रेल बिज्र बना कर अंग्रेजों ने झंझारपुर को अन्य शहरों से जोड़ा था. 1970 के दशक की शुरुआत में इस पुल को रेल-सह-सड़क में तब्दील कर दिया गया, जो दशकों तक लोगों के लिए कौतुक का केंद्र बना रहा. ट्रैफिक के कारण और बाढ़ के दिनों में यह अक्सर परेशानी का सबब भी रहा. अब यह पुल इतिहास के पन्नों में है. पिछले दिनों इसी पुल के समांतर रेलवे ने एक ब्रिज तैयार कर दिया. वैसे दस-बारह साल पहले ही राष्ट्रीय राजमार्ग 57 ने इस ‘अजीबोगरीब पुल’ की अहमियत कम कर दी थी. कोसी के किनारे बसे शहर अब कमला-बलान के करीब आ गए हैं. रेलमार्ग और राजमार्ग मिथिला की सांस्कृतिक एकता के पुल हैजो शहर के कारोबारियों के लिए भी नए अवसर लेकर आया है.

कला पारखी की तलाश में

मधुबनी मिथिला पेंटिंग का दूसरा नाम है, हालांकि यह नाम मिथिला पेंटिंग के साथ न्याय नहीं करता. झंझारपुर के आस-पड़ोस के लगभग हर गाँव में मिथिला पेंटिंग होती है. दरभंगा-मधुबनी से दूरी होने की वजह से कलाकारों की पहुँच सत्ता केंद्रों तक नहीं हो पाती है. मधुबनी जिले के रांटी’ और जितवारपुर’  गांव राष्ट्रीय पटल पर छा गएझंझारपुर के गाँव उसी तरह कला पारखियों के इंतजार में हैं. क्या पता कोई सीता देवीगंगा देवीदुलारी देवी भविष्य के गर्भ में छिपी हो?

मिथिला के इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी ने लिखा है कि झंझारपुर के बने कांस्य-पीतल के बर्तनों की मांग दक्षिणी राज्यों में थी. आज भी बाजार में कुशल कारीगर मौजूद हैंलेकिन वस्तुओं की मांग नहीं है. बाजार में गहमागहमी रहती हैपर वह रौनक नहीं जो तीन दशक पहले तक थी. कई मारवाड़ी उद्यमी शहर छोड़ कर दिल्लीसूरतमुंबई जा बसे हैं.

बेलारही का पुस्तकालय

शहरी क्षेत्र से सटे गांव बेलारही में 85 साल पुराना एक पुस्तकालय है, मिथिला मातृ-मंदिर. पिछले दिनों इसे सांसद-विधायक विकास निधि से किताबों की आमद हुई है. शहर में एक भी पुस्तकालय न होना अखरता है, जबकि ललित नारायण जनता कॉलेज करीब साठ साल पुराना है. केजरीवाल और टेवरीवाल हाईस्कूल से निकले पुराने छात्र पूरे देश में मौजूद हैंलेकिन अपनी मातृ संस्था की सुध किसे है! कहते हैं प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर डी एन झा ने अपनी नौकरी की शुरुआत झंझारपुर से ही की थी. यशवंत सिन्हा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के दौरान अपना पहला प्रशिक्षण नजदीक के 'सिमरा' गाँव के निवासी आइएएस भागीरथ लाल दास के साथ किया था. शांति स्वरूप भटनागर सम्मान से सम्मानित गणितज्ञ अमलेंदु कृष्ण भी इसी जगह से ताल्लुक रखते हैं.

कोई भी बन जाए भोजन भट्ट

मिथिला अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता की वजह से पूरी दुनिया में जाना जाता है. शहर में ‘पग-पग पोखर माछ मखान’ है. तरह-तरह की मछलीकिस्म-किस्म के चावलचूड़ासाग-सब्जीआम के विभिन्न प्रकार किसी को भी भोजन भट्ट’ बनाने के लिए पर्याप्त हैं. अब स्ट्रीट फूड- मुरहीचूड़ाकचरीचप के साथ-साथ चाउमीन और चाट भी नुक्कड़-चौराहे पर मिलने लगे हैं.

आस-पड़ोस के लोग शहर छोड़कर महानगरों में जा बसे हैंलेकिन वे शादी-ब्याहछठ आदि में गामक घर’ देखने जरूर आते हैं. यदि यहाँ स्वास्थ्य सुविधा बहाल हो जाए तो आने वाले सालों में लोग वापस अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपने अनुभव से इस शहर को संवृद्ध करेंगे. यूं एक मेडिकल कॉलेज का निर्माण कार्य जोर-शोर से चल रहा है.

{आउटलुक (5 सितंबर 2022)}

Thursday, January 30, 2014

अंतिम प्रणाम



वे दिन फाख्ताओं के पीछे भागने के थे. आम, अमरुद, जामुन के पेड़ों पर चढ़ने के थे. डिबिया (ढिबरी) और लालटेन की रोशनी में अक्षरों और शब्दों से खेलने के थे. 

स्कूल से आते-जाते किसी और के खेतों से मटर और छिमियाँ हम उखाड़ लाते. किसी के पेड़ से आम तोड़ लाते.  स्कूल नहीं जाने के दस बहाने करते. हम भाई-बहनों की इस खेल में दादी, जिसे हम दाय कहते थे, हर पल शामिल रहती थी, गोइयां की तरह.
 
बाबा जब गुजरे तब मैं बहुत छोटा था, वो मुझे याद नहीं. दाय के आँचल में ही हमने जीवन के पहले गीत सुने-पाथेर पांचाली. मुझे याद नहीं कि दादी ने कभी राजा-रानियों की कहानी हमें सुनाई हो. दादी की कहानियाँ उसके जीवन संघर्ष की कहानियाँ होती थी. 

दाय निरक्षर पर जहीन थी. लोक अनुभव का ऐसा संसार उसके पास था जहाँ शास्त्रीय ज्ञान बौना पड़ जाता है! जब हम उसे चिढ़ाते तो वो अपना नाम हँसते हुए हमें लिख कर दिखाया करती- जानकी. पर यह नाम उसे पसंद नहीं था. वो कहती कि जानकी के जीवन में बहुत कष्ट लिखा होता है. मिथिला में सीता स्त्री दुख का एक रुपक है!  

दाय के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, गोकि उसके दोनों छोटे भाई बिहार सरकार में प्रशासनिक अधिकारी थे. जब हम उससे पूछते कि तुमने क्यों नहीं पढ़ाई की, वो कहती कि उस समय में लोग कहते थे कि पढ़ाई करने से वैध्वय मिलता है’.  जिस समाज में मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषियों के किस्से पीढ़ी दर पीढ़ी कायम हो वहाँ कैसे इस तरह की स्त्री विरोधी, प्रतिगामी विचारों ने जगह बनाई होगी आश्चर्यचकित करता है. यदि दाय की पीढ़ी को मिथिला में औपचारिक शिक्षा मिली होती तो मिथिला के सामंती समाज का चेहरा इतना विद्रूप नहीं होता.

दाय घड़ी देख कर समय का हिसाब नहीं लगाती. सूर्य को देख कर कहती- एक पहर बीता, दो पहर बीता. अपने जन्म का हिसाब वो 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप से लगाती. दाय कहती 1934 में जब भारी भूकंप आया था तब मैं 10-12 वर्ष की थी. शादी के बाद जिस घर में वो आई उसने कई रुप बदले. लेकिन वह लकड़ी का तामा, जो दाय के गाँव से आया था पिछले 75 सालों से आज भी घर में है. उस जमाने में तामा से नाप-तौल होता था. कवि विद्यापति ने अपनी एक कविता में लिखा है:  मांगि-चांगि लयला महादेव धान ताम दुई हे. दादी कहती उस जमाने में गाँव में कहीं-कहीं चूल्हा जलता था, पर लोग मिल-बांट कर खाते थे. जब भी हम उससे आज की गरीबी की बात करते तो वह कहती नहीं, पहले जैसी स्थिति नहीं है. अब सब घर में चूल्हा तो जलता है. औपनिवेशिक दौर में पली-बढ़ी उस पीढ़ी के लिए भूख सबसे बड़ा सच था.

पहली बार विस्थापन की पीड़ा हमने दाय से ही जानी. भले ही 75 वर्ष पहले वो गौने होकर आई पर उसका अपना गाँव, नैहर उससे मरते समय तक नहीं छूटा. जब कभी हम पूछते गाँव चलोगी? एक चमक उसकी आँखों में कौंध उठती.  

हम रोजी-रोटी के लिए इस शहर उस शहर भटकते रहे. दाय खूंटे की तरह अपनी जमीन से गड़ी रही. जब भी उससे कहते दिल्ली चलो, तो उसका टका सा जवाब होता- मरने समय क्या मगहर जाऊँगी. हम एक बछड़े की तरह छह महीने, साल में उस खूंटे की ओर दौड़ पड़ते. 

उस दिन पापा ने फोन पर कहा, माँ गुज़र गई’. निस्तब्ध, मुझे लगा खूंटा उखड़ गया. अपनी ज़मीन से नमी चली गई. 

(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 'अंतिम पहर बीता' शीर्षक से 6.02.14 को प्रकाशित)

Saturday, June 01, 2013

फालसे काले काले

तब हम बच्चे थे. माँ के पेट पर चिपके रहते. गर्मियों में बाहर जाने से रोकते हुए मां हमें अपने पास पकड़ कर रखती. पर थोड़ी देर में वो खुद सो  जाती. सोते हुए माँ के कानों में बड़े बड़े सोने के छल्ले अच्छे लगते थे.  बड़े भाई की जब शादी हुई तो भाभी के लिए वे वैसे ही छल्ले ढूंढ रहे थे...पर समय के साथ सोने में चमक और खनक दोनों ग़ायब होती गई. बहरहाल,  मां जब सो जाती तो हम उसके कानों के छल्ले को खोलते-खेलते थक जाते. फिर गर्मी से  बेपरवाह,  इधर-उधर देख, भाग जाते आम के टिकुलो की टोह में.

दिल्ली की इन गर्मियों में जब सुबह सबेरे नींद खुल जाती है और कानों में सुरीली फालसे काले काले  की आवाज़ सुनाई पड़ती है, मन जाने क्यूँ गाँव पहुँच जाता है. मैं फोन पर माँ से पूछता हूँ- क्या मिरचई अभी भी डुगडुगी बजाता, साइकिल पर 'बरफ' लेकर गाँव आता है?  बाड़ी में आम के टिकुले अब तो बड़े हो गए होंगेडबरे का पानी तो सूख गया होगा!

यायावर नागार्जुन ने लिखा है: “याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम/ याद आतीं लीचियां, वे आम/याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान/ याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुण अनुसार ही रखे गए वे नाम. तरौनी की जगह बेलारही रख दीजिए. यह कविता मेरी हो जाएगी. वैसे तरौनी से मेरे गाँव की दूरी 20 किलोमीटर ही तो है, और ननिहाल?  महज चार. शायद हर प्रवासी की पीड़ा कहीं ना कहीं मिलती जुलती है. पहले नॉस्टेलजिया और फिर गहरा अवसाद!  

मार्च में हफ्तेभर के लिए गाँव गया था. पापा अपने स्वभाव के विपरीत शांत थे. उनकी युवोचित हँसी नहीं सुनाई पड़ रही थी. माँ से पूछा- पापा इतने चुप क्यों रहते हैं? पापा से पूछा- डिप्रेशन में तो नहीं हैं...? पापा ने कहा- नहीं. पर कुछ देर बाद कहा- अब यह उम्र पोते-पोतियों के संग खेलने की है, अकेले रहने की नहीं...रिटारयरमेंट के बाद ऐसा लगता है कि सारी ऊर्जा खत्म हो गई. बूढ़ी दादी के पूछता हूँ- दिल्ली चलोगी?  वो कहती है- मरने के समय क्या मगहर जाउँगी?

90 के दशक में जब हम बिहार से दिल्ली पढ़ने आए थे उस वक्त बच्चों को दिल्ली पढ़ने भेजना मध्यवर्गीय परिवार के लिए एक तरह का स्टेटस सिंबल था. जिनके पास भी थोड़ा-बहुत साधन था बच्चों को बाहर पढ़ने भेज दिया. और वे नौकरी-चाकरी के चक्कर में वहीं के होकर रह गए. बीस साल बाद अब दरभंगा-मधुबनी जिले के गाँव बूढ़ों का बसेरा बन गए हैं. बिहार में गाँवों में स्वास्थ्य और बिजली की सुविधा पिछले तीन दशकों में बमुश्किल सुधरी है. इन मूलभूत सुविधाओं के बिना बुढ़ापा एक रोग और भय की तरह आता है.

वीएस नायपाल के एक जुमले का इस्तेमाल कर कहें तो लालू-राबड़ी यादव के शासन के दौर में मीडिया में बिहार की छवि एक ऐसे राज्य की बन गई थी जहाँ सभ्यता का अंत हो गया है. पर नीतिश कुमार के शासन काल में मीडिया में एक ऐसी छवि बन रही है कि बिहार जल्दी ही अपने अतीत कालीन गौरवको पा लेगा. दोनों ही छवियाँ अतिरंजित और सच से परे हैं. मीडिया में इस समय सबसे ज्यादा जोर जीडीपी के आँकड़ों, नीतिश की सेक्यूलर छवि और प्रस्तावित नालंदा विश्वविद्यालय को लेकर है. पर जमीनी हकीकत बिहार के गाँव, खेत और खलिहानों में ही दिखता है,  चिकने-चुपड़े राष्ट्रीय राजमार्गों पर नहीं!

(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 5 जून 2013 को प्रकाशित)

Sunday, July 29, 2012

दम तोड़ती सिक्की कला


उत्तरी बिहार के दरभंगा, मधुबनी और सीतामढ़ी जिले की महिलाएँ मिथिला पेंटिग के साथ-साथ वर्षों से सिक्की कला से जुड़ी रही है. जहाँ मिथिला पेंटिंग को देश-विदेश में प्रतिष्ठा और सम्मान मिला वहीं यह कला शुरु से ही संरक्षण और सहयोग के अभाव से जूझती रही है.

इस कला में एक तरफ मिथिला की ग्रामीण महिलाओँ की रचनात्मक ऊर्जा और लोक चेतना की झलक मिलती है वहीं ये उनके लिए मनोरंजन और समय के सदुपयोग का एक जरिया भी है. सदियों से एक परंपरा के रुप में यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फलती-फूलती रही. रंग-बिरंगी सिक्की को टकुआ से गूंदती, मौनी-पौती बनाती दादी-नानी की एकाग्र आँखें अब भी लोगों के जेहन में है. पर दो दशकों में मिथिलांचल के गाँवों से भारी मात्रा में लोगों के पलायन और अपनी जड़ और जमीन से उखड़ने की वजह से यह कला दम तोड़ रही है. पहले मिथिला के हर गाँव में सिक्की आर्ट विस्तार पाती थी, लेकिन अब यह महज कुछ गाँवों में सिमट कर रह गई है. वर्तमान में रैयाम, उमरी बलिया, सरिसबपाही, सुरसंड, यदुपट्टी और करुणा-मल्लाह जैसे कुछ गाँव इस कला के केंद्र हैं. हालांकि हाल के कुछ वर्षों में सिक्की कला को एक व्यवसायिक आधार मिला है जिससे इससे जुड़ी महिलाओं की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया है.

मधुबनी जिले के बेलारही गाँव की 92 वर्षीया जानकी देवी वर्षों तक इस कला से जुड़ी रही. वृद्धावस्था के कारण अब वह इस कला को नहीं साधती पर जैसे ही मैंने उनसे सिक्की कला का जिक्र छेड़ा वो मुस्कुरा दी और बोली, “कैसे आपको इसकी याद आई. अब तो कोई याद नहीं करता.” वे कहती हैं कि उन्होंने इसे खेलते-कूदते बचपन में अपनी चाची से सीखा था पर अब युवतियों में इसके प्रति कोई आकर्षण नहीं दिखता.

जहाँ बारिश की प्रचुरता हो सिक्की की उपज वहाँ ज्यादा होती है. विशेष रुप से नदीतालाबों के कछार पर दलदल जमीन में इसकी पैदावार होती है. मिथिलांचल नदी और तालाबों के लिए विख्यात है और यहाँ सिक्की प्रचुर मात्रा में मिलती रही है, फलतसिक्की कला विशेष रूप से उत्तरी बिहार की उपज है! जो इसे देश के अन्य भागों में बांस, सरकंडा, मूंज या खर से बनाई जाने वाली कलाकृतियों से विशिष्ट बनाता है.

सिक्की कलाकार सुनहरे रंग की सिक्की को पहले विभिन्न रंगों से रंगते हैं फिर टकुआ (पाँच-छह इंच लंबी लोहे की मोटी सुई जिसके पेंदी में चौड़ा बेंट लगा रहता है, ताकि पकड़ने में सुविधा हो) और कैची की सहायता से वे तरह तरह की आकृतियाँ बनाते हैं. मिथिला पेंटिंग में जिन विषयों का इस्तेमाल होता है अमूमन उसे ही कलाकार सिक्की आर्ट में भी उकेरते रहे हैं. मसलनमछलीसूर्यकदंब,आम का पेड़, आँख, गुलदान, दुर्गाशिवनाग-नागिन, कछुआ आदि. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मिथिला पेंटिंग की तरह ही इसके विषय-वस्तु में भी विस्तार आया है. अब वे इसे बाजार की माँग के मुताबिक भी तैयार करने लगे हैं.

इस कला की विशिष्टता यह है कि जहाँ एक ओर इसे घर-दीवारों की सजावट के रुप में काम में लिया जाता है, वहीं इसका इस्तेमाल, ड्राइ फ्रूटसमसाले, गहने, फूल-पत्ती आदि रखने के काम में लिया जाता रहा है.

60-70 के दशक में इस कला को मधुबनी ज़िले में रैयाम गाँव की विंदेश्वरी देवी और सीतामढ़ी जिले के सुरसंड की कुमुदनी देवी जैसी प्रतिभा मिली जिन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया. दोनों ही कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था. इन्हीं दशकों में गंगा देवी और सीता देवी भी मिथिला पेंटिंग को बुलंदी पर पहुँचा रही थी. 

विंदेश्वरी देवी के भाई रामानंद ठाकुर बताते हैं कि कला के पारखी और कलाविद उपेंद्र महारथी ने विंदेश्वरी देवी को पटना स्थित शिल्प अनुसंधान संस्थान से जोड़ा था और उनकी बनाई आदमकद शंकर की मूर्ति की काफी चर्चा हुई थी. रामानंद ठाकुर बताते हैं “1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के हाथों विंदेश्वरी देवी को पुरस्कार दिया गया था, लेकिन उसके बाद सरकार ने कोई सुध नहीं ली. उन्होंने बताया कि विंदेश्वरी देवी ने इस कला को लेकर जर्मनी और अमेरीका की भी यात्रा की थी. विंदेश्वरी देवी के परिवार की महिलाएँ और इस गाँव की अन्य 25-30 महिलाएँ अब भी सिक्की कला से जुड़ी हुई है. पिछले पाँच सालों से गरीबों और ग्रामीण महिलाओं के उत्थान के लिए बिहार सरकार की पहल जीविका ने इस गाँव की महिला कलाकारों में एक नई ऊर्जा भरा है. रैयाम की सुधा देवी बताती हैं, “15-20 वर्ष पहले लगने लगा था कि यह कला अब समाप्त हो जाएगीलेकिन फिर से जीविका ने हमें एक आशा दी है.” वो बताती हैं जीविका ने हमें एक बड़ा बाजार मुहैया कराया है और साथ ही हमें नए डिजाइन भी इनसे मिलता है जिससे हम इस कला में रुप में तरह तरह के प्रयोग कर रहे हैं. इस गाँव के कलाकार दिल्ली, कोलकाता, चैन्नई, गोवा आदि शहरों में होने वाली विभिन्न प्रदर्शनियों में अपनी कला लेकर जाते रहे हैं.

मिथिला में शादी-विवाह के अवसर पर और लड़कियों के द्विरागमन (गौना)के समय दहेज के रुप में सिक्की से बनी कलाकृतियों को भेजने का पुराना रिवाज है जो आज भी कायम है. हालांकि कलाकारों का कहना है कि इस कला में जितनी रुचि इस क्षेत्र के बाहर, देश-विदेश के लोगों की है उतनी स्थानीय स्तर पर नहीं. स्थानीय स्तर पर इस कला का कोई बाजार अभी तक विकसित नहीं हो पाया है.

पिछले दिनों बिहार के 100 साल पूरे होने पर दिल्ली हाट में एक प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें बिहार के विभिन्न कला रुपों की झांकी थी. प्रदर्शनी में जहाँ मिथिला पेंटिंग के कई स्टॉल थे वहीं सिक्की कला का कोई नामलेवा नहीं था.

कुमुदनी देवी के पुत्र और मिथिला कलाकार चक्रधर लाल कहते हैं, “जितना समय इस कला को साधने में लगता है उतना मेहनताना नहीं मिलता. इसलिए अब लोगों की रुचि इसमें नहीं रही है. इतने ही समय में मिथिला पेंटिंग बनाने पर ठीक ठाक कमाई हो जाती है.” चक्रधर लाल कहते हैं कि इस कला को व्यवसायिक रुप से बाजार मुहैया कराने की जरुरत थी और कलाकारों को संरक्षण दिया जाना चाहिए था पर सरकार ने गैर सरकारी संस्थानों के भरोसे सब कुछ छोड़ रखा है. उनकी चिंता कलाकारों की कम और खुद के हित साधने की ज्यादा है.

E book: Link http://pothi.com/pothi/book/ebook-arvind-das-gardish-mein-ek-chitra-shaili

(जनसत्ता, रविवारी में 29 जुलाई 2012 को प्रकाशित)