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Tuesday, September 18, 2018

सबाल्टर्न स्वर का सौंदर्य: कविता वीरेन


नवारुण प्रकाशन से प्रकाशित
समकालीन हिंदी कविता की बनावट और बुनावट दोनों पर लोक की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है. लोक की यह परंपरा निराला-मुक्तिबोध-नागार्जुन-केदारनाथ सिंह से होकर अरुण कमल-मंगलेश डबराल-आलोकधन्वा-वीरेन डंगवाल तक जाती है. हालांकि समाज के अनुरूप और समय के दबाव के फलस्वरूप लोक चेतना के स्वर और स्वरूप में अंतर स्पष्ट है.

नवारुण प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित वीरेन डंगवाल (1947-2015) की संपूर्ण कविताओं की किताब-कविता वीरेन, को पढ़ते हुए यह बोध हमेशा बना रहता है. उनकी कविता का स्वर और सौंदर्य समकालीन कवियों से साफ अलग है. मंगलेश डबराल ने इस किताब की लंबी भूमिका में ठीक ही नोट किया है: “...रामसिंह, पीटी ऊषा, मेरा बच्चा, गाय, भूगोल-रहित, दुख, समय और इतने भले नहीं बन जाना साथी जैसी कविताओँ ने वीरेन को मार्क्सवाद की ज्ञानात्मक संवेदना से अनुप्रेरित ऐसे प्रतिबद्ध और जन-पक्षधर कवि की पहचान दे दी थी, जिसकी आवाज अपने समकालीनों से कुछ अलहदा और अनोखी थी और अपने पूर्ववर्ती कवियों से गहरा संवाद करती थी.उनकी कविताओं में जो चीजें सबाल्टर्नचेतना से लैस है, साधारण दिखती है वह गहरे स्तर पर जाकर हमारे मन के अनेक भावों को एक साथ उद्वेलित करने की क्षमता रखती है. अधिकांश कविताएँ 1980 के बाद की हैं. अपने समय और समाज से साक्षात्कार करती ये कविताएँ आत्मीय और सहज है. यह सहजता कवि के सायास कोशिश से ही संभव है. उन्हीं के शब्दों में:  एक कवि और कर ही क्या सकता है/सही बने रहने की कोशिश के सिवा.

वीरेन की कई कविताएँ जन आंदोलनों के लिए गीत बन चुकी हैं, ऐसे ही जैसे गोरख पांडेय की कविताएँ. उनकी मात्र तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुई थी.  इस समग्र में तीनों संग्रहों के लिए लिखी गई भूमिका को भी शामिल किया गया है. दुष्चक्र में स्रष्टा’, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, में शामिल इन पंक्तियों में- किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है/ जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?’क्षोभ और हताशा है. पर कवि उजले दिन जरूर आएँगेको लेकर आश्वस्त भी है. मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ/हर सपने के पीछे सच्चाई होती है/हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है/ हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है’, ये आशा और संघर्ष उनकी कविता का मूल स्वर भी है.

परमानंद श्रीवास्तव ने 1990 में समकालीन हिंदी कवितानाम से एक किताब लिखी थी जिसे साहित्य अकादमी ने छापा था. सभी प्रमुख समकालीन कवि और उनकी कविताएँ इसमें शामिल हैं. कॉलेज के दिनों में जब मैं हिंदी साहित्य का छात्र नहीं था तब मेरे लिए यह एक रेफरेंस बुक की तरह था और इस किताब में शामिल समकालीन कवियों की कविताएँ ढूंढ़ कर पढ़ता था. आश्चर्य है कि इस किताब में वीरेन नहीं हैं. मेरी मुलाकात वीरेन की कविताओं से विश्वविद्यालय में जाकर ही हुई.

कविता वीरेनइस कमी को पूरा करता है. इस खूबसूरत संग्रह में उनकी असंकलित और कुछ नयी कविताओं के साथ नाजिम हिकमत की कविताओँ के अनुवाद भी शामिल है. इस किताब के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए नवारुण प्रकाशन के कर्ता-धर्ता संजय जोशी बधाई के पात्र हैं.


(जानकीपुल पर प्रकाशित)

Saturday, August 07, 2010

नागार्जुन: सच का साहस

दरभंगा जिले में सकरी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए जैसे ही हम नागार्जुन के गाँव तरौनी की ओर बढ़ते हैं, मिट्टी और कंक्रीट की पगडंडियों के दोनों ओर आषाढ़ के इस महीने में खेतिहर किसान धान की रोपनी करने में जुटे मिलते हैं. आम के बगीचे में बंबईआम तो नहीं दिखता पर कलकतियाऔर सरहीकी भीनी सुगंध नथुनों में भर जाती है. कीचड़ में गाय-भैंस और सूअर एक साथ लोटते दिख जाते हैं. तालाब के महार पर कनेल और मौलसिरी के फूल खिले हैं...हालांकि यायावर नागार्जुन तरौनी में कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे छूटा भी नहीं. तरह-तरह से वे तरौनी को अपनी कविताओं में लाते हैं और याद करते हैं. लोक नागार्जुन के मन के हमेशा करीब रहा. लोक जीवन, लोक संस्कृति उनकी कविता की प्राण वायु है. लोक की छोटी-छोटी घटनाएँ उनके काव्य के लिए बड़ी वस्तु है. नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता, ‘अकाल और उसके बादमें प्रयुक्तत बिंबों, प्रतीकों पर यदि हम गौर करें तो आठ पंक्तियों की इस कविता पर हमें अलग से टिप्पणी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नहीं है. उनका कृतित्व उनके जीवन के घोल से बना है. यह घलुए में मिली हुई वस्तु नहीं है. नागार्जुन की रचना जीवन रस से सिक्त है जिसका उत्स है वह जीवन जिसे उन्होंने जिया. सहजता उनके जीवन और साहित्य का स्वाभाविक गुण है. इसमें कहीं कोई दुचित्तापन नहीं. लेकिन यह सहजता सरल सूत्र उलझाऊहै.

नागार्जुन कबीर के समान धर्मा हैं. नामवर सिंह ने उन्हें आधुनिक कबीर कहा है. सच कहने और गहने का साहस उन्हें दूसरों से अलगाता है. युवा कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो उनमें सच को सच की तरह कहने और सच को सच की तरह सुनने का साहस था’. नागार्जुन दूसरों की जितनी निर्मम आलोचना करते हैं, खुद की कम नहीं. जो इतनी निर्ममता से लिख सकता है- कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप (कर्म का फल भोगे बूढ़े पिता)...तब आश्चर्य नहीं कि ...बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को...सरीखी पंक्तियाँ उन्होंने कैसे लिखी होगी!

उनकी यथार्थदृष्टि उन्हें आधुनिक मन के करीब लाती है. यही यथार्थ दृष्टि उन्हें कबीर के करीब लाती है. यथार्थ कबीर के शब्दों का इस्तेमाल करें तो और कुछ नहीं-आँखिन देखीहै. नागार्जुन को भी इसी आँखिन देखी पर विश्वास है, भरोसा है. मैथिली में उनकी एक कविता है परम सत्यजिसमें वे पूछते हैं-सत्य क्या है? जवाब है-जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है. जीवन सत्य है. संघर्ष सत्य है. (हम, अहाँ, , , थिकहुँ सब गोट बड़का सत्य/ सत्य जीवन, सत्य थिक संघर्ष.)

नागार्जुन की एक आरंभिक कविता है- बादल को घिरते देखा है.देखा है, यह सुनी सुनाई बात नहीं है. अनुभव है मेरा. इस तरह का अनुभव उसे ही होता है जिसने अपने समय और समाज से साक्षात्कार किया हो. कबीर ने किया था और सैकड़ों वर्ष बाद आज भी वे लोक मन में जीवित हैं. कबीर ने इसे अनभै सांचाकहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुताबिक यह अनुभव से उपजा और अनभय सत्य है.

कवि नागार्जुन में साहस है. सत्य का अनुभव है. सत्य के लिए वे न तो शास्त्र से डरते हैं, न लोक से. जिस प्रकार कबीर की रचना में भक्ति के तानेबाने से लोक का सच मुखरित हुआ है, उसी प्रकार नागार्जुन ने आधुनिक राजनीति के माध्यम से लोक की वेदना, लोक के संघर्ष, लोक-चेतना को स्वर दिया है. बात 1948 के तेलंगाना आंदोलन की हो, 70 के दशक के नक्सलबाड़ी जनान्दोलन की या 77 के बेलछी हत्याकांड की, नागार्जुन हर जगह मौजूद हैं. सच तो यह है कि नागार्जुन इस राजनीति के द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनैतिक उतार-चढ़ाव, उठा-पठक, जोड़-तोड़ और जनचेतना का जीवंत दस्तावेज है उनका साहित्य. नागार्जुन के काव्य को आधार बना कर आजाद भारत में राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है.

असल में साधारणता नागार्जुन के काव्य की बड़ी विशेषता है. सिके हुए दो भुट्टेसामने आते ही उनकी तबीयत खिल उठती है. सात साल की बच्ची की गुलाबी चूड़ियाँउन्हें मोह जाती है. काले काले घन कुरंगउन्हें उल्लसित कर जाता है. उनके अंदर बैठा किसान मेघ के बजते ही नाच उठता है. नागार्जुन ही लिख सकते थे: पंक बना हरिचंदन मेघ बजे.

नागार्जुन जनकवि हैं. वे एक कविता में लिखते हैं: जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊँ/ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ. नागार्जुन में जनता का आत्मविश्वास बोलता है. नागार्जुन की प्रतिबद्धता है जन के प्रति और इसलिए विचारधारा उन्हें बांध नहीं सकी. न हीं उन्होनें कभी इसे बोझ बनने दिया. नागार्जुन प्रतिबद्ध लेखक हैं. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा किसके प्रति? उन्हीं के शब्दों में: बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’, उनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति-लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं.

नागार्जुन जीवन पर्यंत सत्ता और व्यवस्था के आलोचक रहे. जन्मशती वर्ष में यदि सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें याद नहीं करें तो बात समझ में आती है, पर जिस जनको उन्होंने अपना पूरा जीवन दिया उसने उन्हें कैसे भूला दिया?

(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता, 7 अगस्त 2010 को प्रकाशित, चित्र : नागार्जुन के गाँव तरौनी में उनकी प्रतिमा)

Thursday, March 04, 2010

यात्रा में निर्मल वर्मा…






















धुंधलकी शाम में
बारिश की हल्की फुहाड़ों के बीच
बर्फ़ीली पगडंडी से गुज़रते हुए
उस उदास गिरजे के पास
निर्मल वर्मा साथ हो लेते हैं मेरे
मुस्कुराते हुए
हौले से कहते हैं
'यह चमत्कार नहीं, सच है!'

सच जैसे
वह दिसंबर की शाम थी
दिल्ली की सर्द हवाओं में
उसकी चंपई नाक की नोंक पर
चमकती पसीने की बूँद
हरी घास पर टिके ओस की तरह...

फ़रवरी-मार्च की इन सफ़ेद रातों में
अक्सर वे मेरी नींद में आ जाते हैं
चुपके से
मेरे कानों में आवाज़ आती है
'बुरूस के लाल फूल लाए हो झूठे!'
और उसकी खिलखिलाती हुई हँसी
झिलमिलाती आँखों की कोर
सच जैसे
फ़रीदा ख़ानम की 'न जाने की ज़िद...'

पिक्चर पोस्टकार्ड उलटते-पुलटते
ज्योंही मेरी नज़र एक सुर्ख़ गुलाब पर टिक जाती है
इशारों से वे टोकते हैं
ये गर्मियों के दिन नहीं…
और मेरी ऑखें उन शब्दों के अर्थ ढूँढ़ने लगती है
जो समय के चहबच्चे में कहीं गुम गए
जैसे चेकोस्लोवाकिया...