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Saturday, October 22, 2022

मैथिली सिनेमा: 'कन्यादान' से कान तक का सफर


दो साल पहले इन्हीं पन्नों पर जब मैंने लिखा था कि मैथिली फिल्में
 ‘देस की तलाश में हैमुझे इस बात का अंदाजा नहीं था वे इतनी जल्दी विदेश पहुँच जाएगी. फ्रांस का प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह ने इसी साल 75वीं वर्षगांठ मनायावहाँ भारत को ‘कंट्री ऑफ ऑनर’ के रूप में शामिल किया गया था. समारोह के फिल्म बाजार में अचल मिश्र की मैथिली फिल्म धुइन (धुंध)’ दिखाई गई. यह मैथिली सिनेमा के इतिहास में  एक गौरवपूर्ण और अभूतपूर्व घटना है. समारोह के दौरान मैथिली के अलावे हिंदीमराठीतमिलमलयालम और मिशिंग भाषा की पाँच अन्य फिल्में भी दिखाई गईं. मराठीबांग्लाअसमियातेलुगूतमिलमलयालमभोजपुरीमैथिली सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैंएक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति और सौंदर्यशास्त्र से परिचित होते रहते हैं. लोकतांत्रिक भारत में बहुलतावाद को इससे बढ़ावा मिलता है.

आज मीडिया में दक्षिण भारतीय सिनेमा की चर्चा हर तरफ है. वहाँ के निर्देशकों और कलाकारों की अखिल भारतीय लोकप्रियता आश्चर्यचकित करता है. कहा तो यह भी जा रहा है कि दक्षिण की तरफ से आ रही इस तेज बयार में कहीं बॉलीवुड बिखर न जाए. इस बात से इंकार नहीं कि सबटाइटल’ और ‘डबिंग’ के मार्फत क्षेत्रीय सिनेमा के प्रसार से देश में जो भाषाई विभाजन हैवह मिटने लगा है. सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता हैपर मैथिली सिनेमा भारतीय सिनेमा के इतिहास का एक ऐसा पन्ना है जिस पर कहीं कोई बातचीत नहीं होती. मैथिली सिनेमा के इतिहास और वर्तमान से दूसरी भाषाओं के दर्शकों के साथ-साथ सिनेमा उद्योग से जुड़े निर्माता-निर्देशक और वितरक भी सर्वथा अपरिचित ही हैं.

मैथिली सिनेमा का अतीत

मैथिली के चर्चित लेखक हरिमोहन झा (1908-1984) के लिखे उपन्यास 'कन्यादान' (1933) में इस संवाद को पढ़ते ही ठिठक गया. सी सी मिश्रा और रेवती रमण के बीच यह संवाद है:

रे. रे: नाउ यू आर गोइंग टू सी हर विथ योर आईज

(आब त अहाँ स्वंय अपना आँखि सँ देखबाक हेतु चलिये रहल छी)

मि. मिश्रा: बट ह्वाट आइ वैल्यू मच मोर दैन ब्यूटी इज पर्सनल ग्रेस एंड चार्म. द सीक्रेट ऑफ अट्रैक्शन लाइज इन दी आर्ट ऑफ पोजिंग. यू हैव सीन द बिविचिंग पोजेज ऑफ दि फेमस सिनेमा स्टार लाइक देविका रानी. (रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.”)

हरिमोहन झा मैथिली साहित्य में यह वर्ष 1933 में लिख रहे थे,  जब सिनेमा का प्रसार गाँव-कस्बों तक नहीं पहुँचा थालेकिन मैथिली साहित्य में सिनेमा की आवाजाही हो रही थी. हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक मैथिली साहित्य को लोकप्रिय बनाया. ‘कन्यादान’ पुस्तक शिक्षित मैथिल परिवारों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई. यह पुस्तक ‘द्विरागमन’ के समय मिथिला में स्त्रियों के साथ दिया जाने लगा. कहते हैं कि इस किताब को पढ़ने के लिए कई लोगों ने मैथिली सीखी. ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास पर फणि मजूमदार के निर्देशन में वर्ष 1964-65 में पहली मैथिली फिल्म बनीजो वर्ष 1971 में 'कन्यादान' नाम से रिलीज हुई. सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता रहा है. साथ ही सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं हैहालांकि बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई. असल में पिछले दशकों में हमने भारत की सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पावर) के तौर पर बॉलीवुड को ही देखा-समझा!

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी ‘कन्यादान फिल्म दिखी. उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं हैजैसा कि लोग बताते रहे हैं. जब वर्ष 1971 में इसे रिलीज किया गया था तब दरभंगा-मधुबनी और पटना में लोगों ने देखा और सराहा था. पिछली पीढ़ी के लोगों के जेहन में यह फिल्म थी, लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए महज यह एक सूचना भर रही. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय से कुछ वर्ष पहले संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. भाषा के प्रसार के साथ ही सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. सिनेमा के खोने से आने वाली पीढ़ियां उन स्मृतियों से वंचित हो जाती है जिसे फिल्मकार ने सिनेमा में अभिव्यक्त किया था. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए.  ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है.

इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को दिखाया गया है. एक उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष की एक अशिक्षित स्त्री से शादी हो जाती है. इससे उत्पन्न समस्या और मिथिला की सामाजिक कुरीतियों को फिल्म में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है. जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ सी परमानंद के निर्देशन में भी बन रही थीजो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर वर्ष 1982 में रिलीज हुई. अस्सी के दशक के मध्य में हमने दूरदर्शन पर इस फिल्म को देखा था. इस फिल्म के निर्माता रहे केदारनाथ चौधरी ने अपनी मैथिली किताब ‘अबारा नहितन’ में फिल्म निर्माण से जुड़े प्रसंगों और संघर्ष को खूबसूरती से पंक्तिबद्ध किया है.

कन्यादान’ की तरह ही ‘ममता गाबए गीत फिल्म के प्रिंट भी दुर्लभ हैं. इस फिल्म को लोग गीत-संगीत के लिए आज भी याद करते हैं. महेंद्र कपूरगीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. ‘अर्र बकरी घास खोछोड़ गठुल्ला बाहर जो’, ‘भरि नगरी मे शोरबौआ मामी तोहर गोर’ के अलावे विद्यापति का लिखा-माधव तोहे जनु जाह विदेस’ भी फिल्म में शामिल था. मैथिली भाषा अपनी मिठास के लिए प्रसिद्ध है. संवाद के लिए यह फिल्म खास तौर पर उल्लेखनीय है.

कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. इस फिल्म में पटकथा नवेंदु घोष और संवाद हिंदी के चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखे थे. हम जानते हैं कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म में इससे पहले उन्होंने साथ काम किया था. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही बिहार का वृहद समाज भी उदासीन ही रहा! जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती हैवहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. इसकी क्या वजह है? 

इस फिल्म में स्त्रियों के हास-परिहाससभागाछीशादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेलागोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदीउर्दूबंगलामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदीउर्दूबांग्लामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह मैथिली से भिन्न भाषा के लोगों ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी.

सवाल उठता है कि क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुएजबकि बिहार में सिनेमा के प्रदर्शन और देखने की परंपरा मूक फिल्मों के दौर से रही हैयहाँ यह नोट करना उचित होगा कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनींजिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. सवाल यह भी है क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थीजब मैंने यह सवाल केदारनाथ चौधरी से पूछा तब उन्होंने कहा- ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ (1966) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता. सी परमानंद की इस फिल्म में छोटी भूमिका थीजहाँ वे अपने संवाद मैथिली में बोलते हैं. यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘न्यू थिएटर्स स्टूडियो' की देवकी बोस के निर्देशन में हिंदी और बांग्ला में बनी ‘विद्यापति’ (1937) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता? इस फिल्म में एक भी गीत विद्यापति के नहीं थे!

मैथिली सिनेमा का वर्तमान

कन्यादान’ और ‘ममता गाबए गीत’ के बाद ‘जय बाबा वैद्यनाथ (मधुश्रावणी)’ फिल्म 70 के दशक के आखिर में प्रदर्शित हुईलेकिन इस फिल्म में भी मैथिली के साथ हिंदी का प्रयोग मिलता है. इन फिल्मों के अलावे ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’, 'कखन हरब दुख मोरजैसी फिल्में बाद के दशक में आई पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई. ये फिल्में पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों को समेटे हुई थी. फिल्मांकन और कहानी कहने का ढंग (नैरेटिव) हिंदी सिनेमा से ही प्रेरित रहा.

हाल के वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित ‘मिथिला मखान’ (2015)रूपक शरर निर्देशित ‘प्रेमक बसात’ (2018) रिलीज हुई. इन दोनों फिल्मों पर भी बॉलीवुड का स्पष्ट प्रभाव है. प्रसंगवश, ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.

अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ (2019) फिल्म समारोहों में सराही गई और पुरस्कृत हुई है. मीडिया में भी इसकी खूब चर्चा हुई. पिछले दिनों इस फिल्म को म्यूजियम ऑफ मार्डन आर्ट, न्यूयॉर्क में भी समकालीन भारतीय सिनेमा के तहत प्रदर्शित किया गया. इससे पहले फिल्म को ऑनलाइन ‘मूबी’ प्लेटफार्म पर रिलीज किया गया थासंक्षेप में, ‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म हैजिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है. मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है. अचल मिश्र मैथिली सिनेमा के युवा स्वर हैंजिनसे काफी उम्मीदें हैं. ‘गामक घर’ की तरह ही धुइन’ भी प्रतिष्ठित मुंबई फिल्म समारोह में इस वर्ष दिखाई गई थी. जहाँ गामक घर’ की कथा गाँव के जीवन और बाद में पलायन को समेटती हैवहीं ‘धुइन’ की कथा दरभंगा शहर में अवस्थित है. 

कला के अन्य रूपों की तरह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का एक माध्यम है. यह अलग बात है कि बॉलीवुड में बनने वाली कमर्शियल फिल्मों के केंद्र में मनोरंजन और ‘स्टार’ तत्व हावी रहा है और आलोचना का तत्व कहीं हाशिए पर ही दिखता है. क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों- मलयालममराठीअसमिया आदि में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में कुछ निर्देशकों के विशिष्ट स्वर जरूर सुनाई पड़ते रहे हैं. 'धुइन' फिल्म इसी कड़ी में शामिल है. धुइन’ के केंद्र में 25 वर्षीय युवा पंकज हैजो दरभंगा में अपने माता-पिता के साथ रहता है. उसके सपने मुंबई की दुनिया में बसते हैं. वह दरभंगा से भागना चाहता है. वह कहता है-यहाँ से भागना है तो भागना हैपर पारिवारिक परिस्थिति अनुकूल नहीं है. पिता सेवानिवृत्त हैंपर उन्हें नौकरी की तलाश है ताकि बुढ़ापा कट सके. पिता को पंकज की ‘नौटंकी’ (थिएटर से जुड़ाव) पसंद नहीं है. आज भी देश के बड़े हिस्से में सिनेमा-थिएटर के काम को घर-परिवार के लोग आवारगी ही समझते हैं! लोग उसे रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन करने की सलाह देते हैं. ध्यान रहे कि पिछले दिनों बिहार में युवा छात्रों ने बेरोजगारी को लेकर उग्र आंदोलन किया था! पंकज के किरदार में अभिनव झा एक छोटे शहर के एक युवा कलाकार के अंतर्मन की उलझन को चित्रित करने में सफल हैं.


इस फिल्म में रेल का रूपक बार-बार आता है. फिल्म की शुरुआत ही दरभंगा रेलवे स्टेशन के बाहर एक नुक्कड़ नाटक से होती है. जब पंकज अपने मोबाइल पर ऑनलाइन एक्टिंग के गुर सीख रहा होता हैतब पृष्ठभूमि में रेलगाड़ी की आवाज सुनाई देती है. छोटे से घर के कोलाहल से दूर जब वह बाहर निकलता है तब भी रेलगाड़ी जा रही होती है. यह एक वास्तविकता है कि पिछले दशकों में बड़ी संख्या में बिहार के मध्यवर्गीय युवा नौकरी की तलाश में बाहर निकल गए. यह सिलसिला आज भी जारी है. एक धुंध है जिसमें उनका वर्तमान और भविष्य लिपटा पड़ा है. पर जैसा कि दुष्यंत कुमार कह गए हैं- ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है/ ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.’ ‘धुइन देखते हुए सत्यजीत रे की फिल्म प्रतिद्वंदी’ (1970) की याद आती है. ‘प्रतिद्वंदी’ कलकत्ता (कोलकाता) में अवस्थित है. फिल्म का नायक सिद्धार्थ (धृतमन चटर्जी) एक शिक्षित बेरोजगार युवक है, जिसे नौकरी की तलाश हैलेकिन वाम विचारधारा के कारण उसे बार-बार असफलता हाथ लगती है. देश-काल के बदलते यथार्थ की वजह से उसका व्यक्तित्व अशांत और अस्थिर है. इस फिल्म में रे ने उन्हीं तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है जिसमें मृणाल सेन सिद्धहस्त थे. हिंदी के आलोचक  प्रोफेसर वीर भारत तलवार बातचीत में अक्सर कहते हैं कि 'रे की फिल्मों में कलात्मक संयम दिखाई देता है'. सिनेमा तकनीक आधारित कला है जो समय के साथ पुरानी पड़ जाती है. ‘प्रतिद्वंदी’ फिल्म अपनी विषय-वस्तु की वजह से पचास साल बाद भी मौजूं हैभले ही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य बदल गया हो. इस वर्ष कान फिल्म समारोह में 'प्रतिद्वंदीभी दिखाई गई थी. सत्यजीत रे भारतीय सिनेमा के ऐसे पुरोधा है जिनसे फिल्मकार हमेशा प्रेरणा ग्रहण करते हैंअचल मिश्र अपवाद नहीं हैं. ‘गामक घर’ के एक दृश्य के माध्यम से उन्होंने उनकी फिल्म पाथेर पांचाली’ को याद किया है. अचल मिश्र की फिल्मों में बिंब और ध्वनि के संयोजन में कलात्मकता है. यहाँ कोई ताम-झाम नहीं है, एक सादगी है.

 

बहरहालजहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर थावहीं ‘धुइन’ में हराही पोखर’ हैदरभंगा राज का किला हैहवाई अड्डा है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता हैपर वहाँ रह रहे कलाकारों की बदहाली इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी हैजो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. अचल मिश्र ने बातचीत में मुझसे कहा भी कि उनके ऊपर ईरानी फिल्मकार अब्बास किरोस्तामी का प्रभाव है. इस फिल्म का एक दृश्य खास तौर से उल्लेखनीय हैजहाँ फिल्मों से जुड़े हुए बाहर से आए कुछ युवा पंकज के साथ किरोस्तामी की फिल्मों की चर्चा करते हैं और उसमें एक तरह से हीनता का बोध भरते हैं. कम बजट की ये फिल्में लोकेशन पर शूट की गई है.

 

मैथिली सिनेमा का भविष्य


आधुनिक समय में सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है. किसी भी कला से ज्यादा सिनेमा का प्रभाव बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. पिछले पचास वर्षों में मैथिली में साठ से ज्यादा फिल्में बनी हैंलेकिन इन दशकों में मैथिली फिल्मों को लेकर निर्माताओं-वितरकों में कोई  उत्साह नहीं रहा. जहाँ भोजपुरी सिनेमा का एक बाजार हैवहीं मैथिली सिनेमा एक बाजार विकिसित करने में नाकाम रहा है, जबकि दोनों ही भाषाओं में सिनेमा निर्माण एक साथ ही पिछली सदी के साठ के दशक में शुरु हुआ था. भोजपुरी और मैथिली फिल्म के निर्देशक नितिन चंद्रा इन दिनों  मैथिली में जैक्शन हॉल्ट’ के निर्माण में लगे हैं और लोगों से फिल्म पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता (क्राउडफंडिंग) की मांग कर रहे हैंताकि वे इस साल फिल्म रिलीज कर सकें. उन्हें आम जनता से हालांकि उत्साहवर्धक सहायता नहीं मिल रही है. उन्होंने ‘मिथिला मखान’ के लिए भी लोगों से सहायता की अपील की थी. मिथिला मखान’ को जब नेटफ्लिक्सअमेजन प्राइमहॉटस्टार आदि ओटीटी प्लेटफॉर्म प्रदर्शित करने को राजी नहीं हुआ तब उन्होंने खुद इसे चार साल बादवर्ष 2020 में एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्मबेजोड़पर रिलीज करने का फैसला किया. 'मिथिला मखानमिथिला में रोजगार की समस्यापलायन और एक शिक्षित युवा की उद्यमशीलता को दिखाती है. अभिनय और गीत-संगीत मोहक है. ‘मखान’ संघर्ष और संभावनाओं का एक रूपक है. साथ ही ‘मखान’ मिथिला की सांस्कृतिक पहचान भी है.

दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर दो दशक पहले तक सिनेमा प्रदर्शन के लिए जो सिनेमाघर थे वे भी लगातार कम होते गए. जो भी सिनेमाघर बचे हैं वहाँ भोजपुरी फिल्मों का ही प्रदर्शन होता है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उत्साही नहीं हैंभले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो. इस भाषा पर एक जाति विशेष का दबदबा हमेशा रहा है. अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बहुसंख्यक जनता के सरोकार मैथिली साहित्य और सिनेमा से नहीं जुड़ पाए हैं. साथ ही मैथिली फिल्मों के प्रदर्शन के लिए प्लेटफार्म’ का अभाव भी एक बड़ी समस्या रही है. पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान कन्नड़ सिनेमा के चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली ने मुझे बताया कि केरल सरकार ने हाल में एक ओटीटी प्लेटफॉ़र्म चालू किया हैजिस पर मलयालम की मुख्यधारा से अलग फिल्में दिखाई जाएंगी. यह वैसी फिल्में होंगीजिन्हें आलोचकों ने सराहा है और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने ध्यान खींचा है. इस मामले में केरल ने नेतृत्व किया हैदूसरे राज्यों को उसका पालन करना चाहिए.” क्या बिहार सरकार कसारावल्ली के सुझाव पर अमल करेगी?

आखिर मेंपिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकीमल्टीप्लेक्स सिनेमाघरओटीटी प्लेटफॉर्म और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता के बल पर कम लागत में फिल्में बनाई जा रही हैं. अचल मिश्र की फिल्में इसका खूबसूरत उदाहरण है. जाहिर है मैथिली सिनेमा के भविष्य का सफर संघर्षों से भरा हैलेकिन सफलता भी इन्हीं पगडंडियों से होकर जाती है. कान इस सफर में एक अहम मुकाम है, जो युवा फिल्मकारों को मैथिली में फिल्म निर्माण-निर्देशन के लिए प्रोत्साहित करेगा


(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2022)


Saturday, December 05, 2020

Maithili Cinema: In search of a home

Pahari Sanyal in Vidyapati (1937). Courtesy National Film Archive of India.

The New Theatres classic Vidyapati, directed by Devaki Bose and exploring the life and times of the fourteenth-century court poet Vidyapati, is remembered even today for its sonorous songs and melodious music. Surprisingly, the song lyrics draw no inspiration from the renowned poet’s words. Nor is the film in Maithili, the language in which he communicated. Rather, the 1937 film is in Hindi and Bengali.

Maithili cinema had to wait until the 1960s to begin its journey in Indian cinema. Kanyadan from 1965 is credited as the first movie in Maithili. Phani Mazumdar’s film is based on Harimohan Jha’s novel of the same name. The theme of a mismatched married couple is depicted through a difference in language – the characters speak Maithili and Hindi, respectively. Noted Hindi writer Phanishwar Nath “Renu” wrote the dialogue for Kanyadan.

Naihar Bhel Mor Sasur, directed by C Parmanand, might have been released earlier than Kanyadan had it not faced production obstacles. Ultimately released in the mid-1980s under the title Mamta Gabay Geet, the movie is still remembered for its dialogue and songs, by such leading playback singers as Geeta Dutt, Mahendra Kapoor and Suman Kalyanpur.

The list of Maithili-language movies is sparse. It includes Jai Baba Vaidyanath (Madhusravani), Sasta Jingi Mahg SenurKakhan Harb Dukh Mor and Ghogh Me Chand. These productions revolved around social themes and used the narrative idioms of mainstream Hindi cinema.

Maithili was included in the Eighth Schedule of the Indian Constitution in 2004. The Mithila region, which encompasses parts of present-day Bihar and Nepal, is known for its language, literature and culture. And yet, it is Bhojpuri, the language spoken in Uttar Pradesh, Bihar and Jharkhand, that has produced a more vibrant and sustainable cinema. Any discussion of the cinema of Bihar begins and ends with Bhojpuri films.

Production on the first Bhojpuri film Ganga Maiya Tohe Piyari Chadhaibo began at around the same time as Mamta Gabay Geet (which was delayed by at least two decades). Kedarnath Chaudhary, one of the producers of Mamta Gabay Geet, said, “Bhojpuri films reached their zenith while Maithili remains at the bottom.” 

The 1966 Hindi-language film Teesri Kasam, directed by Basu Bhattacharya and produced by the lyricist Shailendra, was based on the short story Mare Gaye Gulfam by Phanishwar Nath ‘Renu’. Could Teesri Kasam have been made in Maithili? The movie, starring Waheeda Rehman and Raj Kapoor, depicts Mithila’s culture and has scenes containing Maithili dialogue. Kedarnath Chaudhary said, “If Teesri Kasam had been made in Maithili, the trajectory of Maithili films would have been very different.”

A strong culture ofmovie-watching existed in Bihar right from the earliest years of cinema. Patna still has Elphinstone Theatre, which came up in 1919 and started off by screening silent films. And yet, not only have there been relatively fewer films in the local languages, but also the existing productions are poorly preserved. Prints of the first Maithili film Kanyadan are unavailable today – even the National Film Archive of India in Pune doesn’t have a copy.

Regional cinema has managed to conquer new territories in the past two decades. Films made in Marathi, Punjabi and Malayalam films have been popular beyond their language markets. There is a glimmer of hope for Maithili films, represented by Nitin Chandra’s Mithila Makhan (2015), Roopak Sharar’s Premak Basat (2018) and Achal Mishra’s Gamak Ghar (2019).

Mithila Makhan is the only film to have won a National Award for Best Film in the Maithili language. Gamak Ghar has received widespread critical acclaim and has travelled to several film festivals. Yet, distributors have been largely unenthusiastic about backing Maithili films. Director Nitin Chandra said, “Distributors do not even know that there is a language called Maithili in which films are made.” After streaming services rejected Mithila Makhan, he released the film this year on his own online platform, Bejod.in. Clearly, the story hasn’t changed too much since Mamta Gabay Geet. It appears that all these years later, Maithili cinema is wandering in search of a home.

 (Scroll.in, 5th December 2020)

(All these years later, Maithili cinema is still in search of a home)

Sunday, November 15, 2020

'देस' की तलाश में मैथिली सिनेमा

वर्ष 1937 में ‘न्यू थिएटर्स’ स्टूडियो की ‘विद्यापति’ फिल्म खूब सफल रही थी. देवकी बोस के निर्देशन में बनी यह फिल्म खास तौर से गीत-संगीत के लिए आज भी याद की जाती है. मैथिली के आदि कवि विद्यापति (1350-1450) के गीतों की संगीतात्मकता प्रसिद्ध है. आश्चर्य की बात यह है कि इस फिल्म में गीत विद्यापति के नहीं थे, न हीं फिल्म की भाषा ही मैथिली थी. यह फिल्म हिंदी-बांग्ला में बनी थी. मिथिला अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, पर आधुनिक समय में फिल्मों में इस समाज की लगभग अनुपस्थिति एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी है.

जहाँ बोलती हिंदी फिल्मों के साथ-साथ ही बांग्ला और असमिया सिनेमा विकसित होनी शुरू हुई, वहीं मैथिली में सिनेमा का इतिहास आजादी के बाद 60 के दशक में शुरु होता है. ‘नैहर भेल मोर सासुर’ नाम से पहली मैथिली फिल्म वर्ष 1963-64 में बननी शुरु हुई, जिसके निर्देशक सी परमानंद थे. बाद में यह फिल्म काफी कठिनाइयों को झेलती हुई ‘ममता गाबय गीत’ नाम से 80 के दशक के मध्य में रिलीज हुई थी, जिसे लोग गीत-संगीत और मैथिली संवाद के लिए आज भी याद करते हैं. इस फ़िल्म में महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. ‘अर्र बकरी घास खो, छोड़ गठुल्ला बाहर जो’, ‘भरि नगरी मे शोर, बौआ मामी तोहर गोर’ के अलावे विद्यापति का लिखा-‘माधव तोहे जनु जाह विदेस’ भी इस फिल्म भी शामिल था.

मैथिली में पहली फिल्म होने का श्रेय ‘कन्यादान’ फिल्म को है. वर्ष 1965 में फणी मजूमदार ने इस फिल्म का निर्देशन किया था. हरिमोहन झा के चर्चित उपन्यास ‘कन्यादान’, जिस पर यह फिल्म आधारित है, का रचनाकाल वर्ष 1933 का है. इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से चित्रित किया गया है. चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ इस फिल्म से संवाद लेखक के रूप में जुड़े थे. फिल्म में मैथिली के साथ हिंदी का भी प्रयोग था. इस फिल्म के गीत-संगीत में प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था. इसके बाद ‘जय बाबा वैद्यनाथ (मधुश्रावणी)’ फिल्म 70 के दशक के आखिर में प्रदर्शित हुई लेकिन इस फिल्म में भी मैथिली के साथ हिंदी का प्रयोग मिलता है.

इन दो फिल्मों के अलावे ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’, 'कहन हरब दुख मोर' ‘घोघ में चाँद’ आदि इक्का-दुक्का फिल्में प्रदर्शित हुई, जिसकी छिटपुट चर्चा की जाती रही है. हालांकि इनमें कोई आलाोचनात्मक दृष्टि या सिनेमाई भाषा नहीं मिलती है, जो मिथिला के समाज, संस्कृति को संपूर्णता में कलात्मक रूप से रच सके. इनमें से ज्यादातर फिल्में सामाजिक विषयों के इर्द-गिर्द ही रही, एक-दो फिल्में धार्मिक-पौराणिक महत्व के रहे.  

जब भी बिहार के फिल्मों की बात होती है, भोजपुरी सिनेमा का ही जिक्र किया जाता है. मैथिली फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. जबकि पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पिअरी चढैबो’ और ‘ममता गाबए गीत’ का रजिस्ट्रेशन ‘बाम्बे लैब’ में वर्ष 1963 में ही हुआ और फिल्म का निर्माण कार्य भी आस-पास ही शुरू किया गया था. इस फिल्म में निर्माताओं में शामिल रहे केदारनाथ चौधरी बातचीत के दौरान हताश स्वर में कहते हैं-‘भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’ लेकिन, यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही ‘भईया’ नाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था. पचास-साठ साल के बाद भी मैथिली और मगही फिल्में विशिष्ट सिनेमाई भाषा और देस की तलाश में भटक रही है.

केदार नाथ चौधरी ‘ममता गाबय गीत’ फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए अपनी किताब ‘आबारा नहितन’ में लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-‘अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त’ हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा. राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं)’. 

इस फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फ़िल्म बनी. इस फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद भी मैथिली में सुनाई पड़ता है. क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थी? केदारनाथ चौधरी कहते हैं कि ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता.’ यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘विद्यापति’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता?

फिल्म नगरी बंबई में शुरुआती दौर से बिहार के कलाकार मौजूद रहे हैं और विभिन्न रूपों में अपना योगदान देते रहे हैं. प्रसंगवश, ‘ममता गाबय गीत’ के निर्देशक सी परमानंद की एक छोटी सी भूमिका ‘तीसरी कसम’ फिल्म में थी. साथ ही बिहार में भी सिनेमा देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं का जिक्र किया जाता है, तब दादा साहब फाल्के के साथ हीरा लाल सेन, एसएन पाटनकर और मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन. एल्फिंस्टन बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एल्फिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एल्फिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से मशहूर हुआ, में पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप में मौजूद है.

पर जहां तक सिनेमा के सरंक्षण और पोषण का सवाल है, बिहार का वृहद समाज और सरकार उदासीन ही रहा है. एक उदाहरण यहाँ पर देना प्रासंगिक होगा. पहली फिल्म ‘कन्यादान’ के प्रिंट आज अनुपलब्ध हैं. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित ‘नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया’ से संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. फिल्मों के खोने से आने वाली पीढ़ियाँ उन संचित स्मृतियों से वंचित हो जाती है. 


पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकी, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. जहाँ कम लागत, अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता की वजह से मराठी, पंजाबी, मलयालम फ़िल्में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही है, वहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में फुटनोट में भी मैथिली फ़िल्मों की चर्चा नहीं मिलती.  यहाँ तक कि पापुलर फ़िल्मों में भी भोजपुरी फ़िल्मों की ही चर्चा होती है.

हाल के वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित ‘मिथिला मखान’ (2015), रूपक शरर निर्देशित ‘प्रेमक बसात’ (2018), और अचल मिश्र निर्देशित ‘गामक घर’ (2019) की मीडिया में चर्चा हुई है. ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. साथ ही ‘गामक घर’ फिल्म को भी फिल्म समारोहों में सराहा गया और यह भी पुरस्कृत हुई. ‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है. मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है. इस तरह की फिल्में मैथिली सिनेमा को कला प्रेमियों और देश-विदेश के समीक्षकों की नजर में लाने में कामयाब है.

हालांकि इन फिल्मों को लेकर वितरकों में कोई  उत्साह नहीं है. नितिन चंद्रा कहते हैं कि ‘वितरक यह भी नहीं जानते कि मैथिली नाम से कोई भाषा है जिसमें फिल्में बनती हैं. हमने इस भाषा में अब तक कुछ खास बनाया ही नहीं!’ वे कहते हैं कि यहाँ तक कि ऑनलाइन प्लेटफार्म (हॉटस्टार, नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, जी 5 आदि) पर भी मिथिला मखान को कोई प्रदर्शित करने को राजी नहीं हुआ तब उन्होंने खुद इसे एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज करने का फैसला किया. नितिन चंद्रा इस फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए लोगों से चंदा (क्राउड फंडिंग) भी मांग रहे हैं, पर परिणाम उत्साहजनक नहीं रहा है. ‘ममता गाबय गीत’ को भी अपने जमाने में वितरक नहीं मिल पाया था. ऐसा लगता  है मैथिली सिनेमा इन दशकों में एक बाजार विकसित करने में नाकाम रहा है. मिथिला में कोई माहौल नहीं दिखता. 

दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर दो दशक पहले तक सिनेमा प्रदर्शन के लिए जो सिनेमाघर थे वे भी लगातार कम होते गए. जो भी सिनेमाघर बचे हैं वहाँ भोजपुरी फिल्मों का प्रदर्शन ही होता है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषा-भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उत्साही नहीं हैं, भले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो. हिंदी के वर्चस्व को लोगों ने बिना किसी दुविधा के स्वीकार कर लिया है. मनोरंजन के लिए ये बॉलीवुड की ओर ही देखते रहते हैं और इनमें मैथिली सिनेमा को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती हैं. साथ ही मैथिली भाषा पर एक जाति विशेष की भाषा होने का आरोप लगता रहा है. क्या मैथिली सिनेमा का विकास नहीं होने की एक वजह यह भी तो नहीं?

(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2020 में प्रकाशित)

Sunday, February 16, 2020

लंबी उदास कविता को रचती फिल्म: गामक घर

युवा निर्देशक अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘गामक घर' (गांव का घर) को देश के विभिन्न फिल्म समारोहों में खूब सराहना मिली है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है, जिसे हम सिनेमा की भाषा में ठहर कर पढ़ना भूल गये हैं. मैथिली सिनेमा में भी ऐसी परंपरा नहीं मिलती. इस सिनेमा का इतिहास है, लेकिन पिछले पचास वर्षों में ऐसी कोई खास फिल्म नहीं बनी है, जिसे अलग से रेखांकित किया जाए. बहुचर्चित ‘ममता गाबय गीत’ एक अपवाद है.
घर एक सपना है, जिसके पीछे हम ताउम्र भागते रहते हैं- इस शहर से उस शहर. इस लिहाज से गांव के घर का स्थानीय रूपक राष्ट्रीय-भूमंडलीय हो उठता है. पिछले दशकों में मिथिला के गांवों से शहर की ओर पलायन हुआ है, हालांकि विस्थापित बार-बार घर लौटते रहे हैं. कभी मुंडन-शादी के बहाने, कभी दीवाली-छठ के मौके पर, तो कभी पीछे छूट गये परिजनों से मिलने. शहरों का मकान उनके लिए ‘डेरा’ ही रहता है.
‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है, जहां पेड़, खेत व खलिहान हैं. मैथिली के कवि जीवकांत की एक कविता के सहारे कहूं, 'गाछ मे पात/ पात मे बसात/ पात मे फूल/ गाछ मे आम/ गमकैए गाम/ गाछ मे मेघ/ भीजैए खेत.' तीन भागों में बंटी यह फिल्म 1998, 2010 और 2019 के कालखंड को समेटे हुए है. पहले हिस्से में गांव में परिवार के पुरुष ताश की चौकड़ी जमाये, भोज खाते और स्त्रियां छठी का गीत गाते मिलती हैं. एक उत्सव है यहां, सामूहिकता है.
दूसरे खंड में पलायन है, लोगों की अनुपस्थिति है, हालांकि घर की उपस्थिति तब भी रहती है, विभिन्न रूपों में. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है.
सिनेमैटोग्राफर ने ‘क्लोज अप’ से परहेज किया है. स्टिल फोटोग्राफ और लांग शॉट के माध्यम से खालीपन और अलगाव को बेहतरीन ढंग से उकेरा गया है. इससे घर के बाशिंदों के बीच की दूरी भी मुखर हो उठती है. फिल्म में ज्यादातर कलाकार गैर-पेशेवर है. संवाद और अदाकारी में एक स्वभाविकता है. फिल्म एक धीमी लय में चलती है, पर हमें नॉस्टेलजिक नहीं बनाती है.
आखिरी खंड में पुराने घर के टूटने का दृश्य है और नये के बनने की चर्चा है. यह ध्वंस जितना भौतिक है, उतना ही आध्यात्मिक स्तर पर हमें प्रभावित करता है. पुराने घर के टूटने के साथ हमारी स्मृतियां जमींदोज नहीं होती है. किसी आश्रय के सहारे वे जी उठती हैं.
(प्रभात खबर, 16 फरवरी 2020)