एक पत्रकार के नोट्स
Wednesday, December 25, 2024
सिनेमा को सामाजिक बदलाव का बड़ा माध्यम मानते थे बेनेगल
Sunday, December 15, 2024
यथार्थ को नए मुहावरे में रचती फिल्म
Sunday, December 01, 2024
आराम नगर में चैन कहां
कहते हैं मुंबई को नींद नहीं आती. आए भी कैसे? हर दिन सैकड़ों लोग अपनी किस्मत आजमाने माया नगरी आते हैं. उनके ख्वाब मुंबई को जगाए रखते हैं, उनके संघर्ष सोने नहीं देते.
पिछले दिनों एक दोपहर वर्सोवा के नजदीक आराम नगर में बिताने का मौका मिला. यहाँ पर बीसियों कास्टिंग कंपनी है जहाँ अदाकारों की भीड़ रहती है. आँखों में सपने लिए, अदाकार, लेखक और भविष्य के फिल्म निर्देशक मिल जाते हैं. पिछले दशक में बॉलीवुड में यह नगर ऐसा अड्डा बन कर उभरा है जहाँ सैकड़ों युवा रोज आते-जाते हैं. कुछ दशक पहले जहाँ प्रोड्यूसरों के ऑफिस में अदाकार अपना ‘पोर्टफोलियो’ लेकर पहुँचते थे, वहीं अब कास्टिंग डायरेक्टर के यहाँ लंबी लाइन लगी रहती है.
दिल्ली के मुकेश छाबड़ा का नाम कास्टिंग डायरेक्टर में आज सबसे ऊपर है. आराम नगर में स्थित उनके ऑफिस के बाहर युवकों की लंबी लाइन लगी थी. उनमें ही एक 22 साल के युवा नमन भारद्वाज भी थे. नमन दिल्ली में थिएटर से जुड़े रहे और छह महीने पहले ही मुंबई आए हैं. वह कहते हैं ‘यहाँ पर आपको कैमरे के सामने अपना नाम, उम्र और एक्टिंग का अनुभव बताना होता है. यदि आपके लायक कोई काम किसी फिल्म या सीरीज में हो तो फिर कास्टिंग कंपनी आपको कॉन्टेक्ट करती है. इनके पास बहुत बड़ा डेटाबेस है.’ न सिर्फ संघर्षरत युवा बल्कि कई जाने-पहचाने नाम भी यहाँ मिल जाते हैं. ‘फैमिली मैन’ सीरीज से चर्चित हुए कुशल अभिनेता शारिब हाशमी भी यहाँ दिख गए.
आराम नगर में थिएटर के भी कई मंच उपलब्ध हैं, जहाँ पर आए दिन स्थापित और एमेच्योर थिएटर ग्रुप के नाटकों का मंचन होता रहता है. बहरहाल, जब मैंने नमन से पूछा कि क्या यहाँ पर आप किसी एक्टिंग वर्कशॉप या थिएटर से भी जुड़े हैं? उन्होंने कहा कि ‘एक्टर तो मैं हूं, पर काम नहीं है.' उन्होंने कहा कि यहां पर आपको 'मिडिल क्लास के स्ट्रगलर्स मिलेंगे, पृथ्वी थिएटर के आस-पास जो घूमते फिरते आपको मिलेंगे वे थोड़े अपर क्लास के होते हैं.’ शाम में जब पृथ्वी थिएटर फेस्टिवल में हम एक नाटक देखने गए तो नमन का कहा सच लगा.
ऐसा नहीं कि आराम नगर में सिर्फ कास्टिंग कंपनियां ही हैं. यहाँ पर कई नामी निर्माता-निर्देशकों के प्रोडक्शन हाउस भी रहे हैं. पर छाबड़ा के एक सहयोगी ने बताया कि ‘अब प्रोडक्शन हाउस कहाँ अभिनेता को काम दे पाती है, जो भी काम मिलता है कास्टिंग कंपनियों के माध्यम से ही उन्हें मिल रहा है.’
ऑफिस के केबिन के बाहर छाबड़ा का एक कथन मोटे अक्षरों में लिखा दिखता है: ‘दुनिया बदल गई है. अब हम हीरो या कद-काठी, डील-डौल से आगे बढ़ चुके हैं.’ यह सच है कि पिछले दशक में ओटीटी के उभार ने अदाकारों के लिए एक बड़ा स्पेस मुहैया कराया है. खुद छाबड़ा की पहचान अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में कास्टिंग डायरेक्टर से बनी. इस फिल्म ने कई कलाकारों को बॉलीवुड की दुनिया में स्थापित कर दिया, जो वर्षों से बॉलीवुड में समंदर के थपेड़े खा रहे थे.
Sunday, November 17, 2024
सिनेमा में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई विक्रमादित्य मोटवानी की फिल्म सीटीआरएल (कंट्रोल) चर्चा में है. यह फिल्म सोशल मीडिया, कृत्रिम मेधा (एआइ) और दो युवा सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर प्रेमियों के संबंधों के इर्द-गिर्द बुनी गई है. इस लिहाज से यह फिल्म समकालीन यथार्थ से रू-ब-रू है.
Saturday, November 09, 2024
इंटरव्यू: ‘मुझे ऐसा सिनेमा पसंद है जो सोचने पर मजबूर कर दे’
मूर्धन्य कलाकार मोहन अगाशे की शख्सियत के कई पहलू हैं। एक अभिनेता के बतौर उन्होंने समानांतर सिनेमा के कई प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम किया। घासीराम कोतवाल (1972) नाटक में अपनी भूमिका के लिए वे खास तौर से जाने जाते हैं। वे मनोचिकित्सक भी हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर उन्होंने कई फिल्में बनाई हैं। वे भारतीय फिल्म और टेलिविजन संस्थान (एफटीआइआइ) के निदेशक भी रह चुके हैं। उनके जीवन और काम के बारे में हाल ही में अरविंद दास ने उनसे बातचीत की। संपादित अंशः
आपकी रंगमंचीय यात्रा से बात शुरू करते हैं। रंगमंच पर अभिनय का अपना पहला अनुभव आपको याद है?
मेरे लिए अभिनय बच्चों के खेल जैसा था। जैसे हम सभी तीन, चार या पांच साल की उम्र में कुछ हरकतें करते हैं। जैसे, हम सब नकल मारते हैं, चाहे शिक्षकों की नकल हो, पिता की हो या किसी और की। यह सम्प्रेेषण का एक माध्यम होता है। बेशक यह पेशेवर नहीं होता। अभिनय मेरे स्वभाव में है। खुद के और दुनिया के बारे में जानने का यह एक कुदरती तरीका है। जिस स्कूल में मैं पढ़ा वहां कुछ शिक्षक नाटक करने में अच्छे थे। मैं भी खुशकिस्मत रहा क्योंकि उसी दौरान सई परांजपे और अरुण जोगलेकर ने पुणे में बाल रंगमंच की शुरुआत की थी। वे पुणे आकाशवाणी पर हर रविवार प्रसारित होने वाले बालोद्यान नाम के एक कार्यक्रम के लिए बच्चे तलाश रहे थे। यह पचास के दशक के अंत और साठ के दशक के आरंभ की बात है। उससे पहले मैंने रवींद्रनाथ ठाकुर की जन्मशती पर डाकघर नाम के एक नाटक में एक बीमार बच्चे अमल का किरदार निभाया था। दुनिया से उसका संवाद का माध्यम केवल एक खिड़की थी, जहां खड़ा होकर वह दोस्त बनाता था।
डाकघर आकाशवाणी के लिए था?
नहीं, वह तो पुणे में सार्वजनिक मंचन के लिए था। मैं ‘महाराष्ट्र कालोपासक’ नाम की एक रंगमंडली से जुड़ा हुआ था। यह उसका नाटक था। महाराष्ट्र में छोटे-छोटे रंगमंडलों की मजबूत परंपरा रही है। जैसे, विजय मेहता ने ‘रंगायन’ नाम की मंडली से शुरुआत की थी। सत्यदेव दुबे का भी एक थिएटर यूनिट था। भालबा केलकर का ‘प्रोग्रेसिव ड्रामैटिक एसोसिएशन’ था। उस समय मैं अपनी रंगमंडली के अलावा रविवार को बालोद्यान में भी जाता था। उसमें गोपीनाथ तलवार, सई परांजपे और नेमिनाथ नाम के एक और सज्जन थे। मैंने सई के नाटक निरुपमा आणि परिरानी में अभिनय किया था। बाद में उस पर एक फिल्म भी बनी थी। विनय काले ने सई की स्क्रिप्ट पर 1961 में फिल्म बनाई, जिसमें मैंने पिनोकियो का रोल किया। वह मेरी पहली फिल्म थी।
मतलब आप पहले अभिनेता बने, फिर डॉक्टर और फिर एफटीआइआइ निदेशक?
अभिनेता बनने वाला कोई भी व्यक्ति शुरुआत बचपन से ही करता है। हो सकता है कि वह रंगमंच पर न हो और अपने घर में ही अभिनय कर रहा हो।
आप जुलाई 1947 में जन्मे थे, यानी आजाद भारत। अपनी जिंदगी और भारत के जीवन की यात्रा को आप कैसे देखते हैं?
आजकल हर चीज को बौद्धिकता में लपेटने का चलन बन चुका है। मेडिकल कॉलेज पहुंचने तक मैं विश्लेषण नहीं करता था, बस काम करता था। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो बहुत बौद्धिक होते हैं। मुझे लगता है जिंदगी को जब आप पीछे मुड़कर देखने लग जाते हैं तो वह बूढ़े होने का पहला लक्षण होता है।
मेडिकल की पढ़ाई के साथ रंगमंच को आपने कैसे साधे रखा?
स्कूल की पढ़ाई के बाद प्री-मेडिकल तक मैंने अभिनय जारी रखा। मेडिकल कॉलेज के पहले साल में मेरी मुलाकात रंगमंच की प्रसिद्ध हस्ती जब्बार पटेल से हुई। फिर पढ़ाई की तरह रंगमंच भी मेरे लिए एक गंभीर काम बन गया। अपने पूरे मेडिकल करियर के दौरान मैंने अभिनय किया, यहां तक कि छोटे से रंगमंडल ‘प्रोग्रेसिव ड्रामैटिक एसोसिएशन’ में जुड़ गया। मनोचिकित्सा और रंगमंच/सिनेमा मेरी जिंदगी की दो समांतर धाराएं रही हैं।
श्याम बेनेगल की निशांत (1975) के साथ समानांतर सिनेमा में आपकी शुरुआत कैसे हुई?
उन्होंने घासीराम कोतवाल में मेरा काम देखा था। मैंने नाना का किरदार निभाया था। मैंने 1972 से 1992 तक बीस साल यह किरदार निभाया। घासीराम मेरे लिए अभिनय का स्कूल जैसा था। इसी के सहारे मैं देश भर में और विदेश गया। मेरी दुनिया का विस्तार हुआ। 1975 तक तो यह नाटक भारतीय रंगमंच में मील का पत्थर बन चुका था। इसे 20 से ज्यादा रंग महोत्सवों में आमंत्रित किया जा चुका था और हमने 12 रंग महोत्सवों में कुल 61 प्रदर्शन किए। फिल्म या रंगमंच के क्षेत्र में शायद कोई नहीं होगा जिसने घासीराम न देखा हो।
हाल ही में मैंने सिनेमाघर में मंथन (1976) देखी, जब उसका रिस्टोर्ड संस्करण रिलीज हुआ था। इस फिल्म में आपको डॉक्टर के किरदार में देखकर मैं चौंक गया था।
बेनेगल के साथ समानांतर सिनेमा में मेरी शुरुआत हुई। फिर मैं उसका हिस्सा बन गया। मनोचिकित्सा से प्रेम के चलते मैं मुंबई नहीं गया। मैं साल में एकाध फिल्म ही करता था। मैंने गोविंद निहलानी, जब्बार पटेल, गौतम घोष की फिल्मों और सत्यजित रे की सद्गति (1981) में काम किया। यह इत्तेफाक ही था कि प्रेमचंद की कहानी सद्गति में ब्राह्मण का नाम घासीराम था। हो सकता है कहानी पढ़ते वक्त उनके दिमाग में घासीराम का मेरा किरदार रहा हो।
सत्यजित रे के साथ संबंध कैसा था?
वे महान थे, इस पर मैं किसी से बहस नहीं करना चाहूंगा। सद्गति केवल 52 मिनट की फिल्म है, लेकिन उसमें काम करते हुए मुझे समझ आया कि सत्यजित रे क्या हैं और वे जो हैं, तो क्यों हैं। वे दूसरों से मीलों आगे क्यों हैं। फिल्म संस्थान में कई लोग होंगे जो रे को महान नहीं मानते थे। वे मणि कौल को महान मानते हैं। यह उनकी सीमित सोच है। मैंने मणि की फिल्म घासीराम कोतवाल (1976) में भी काम किया है। वह फिल्म तीन दिन भी नहीं चली थी। ऐसे फिल्मकार इस बात की चिंता नहीं करते थे कि लोग उनकी फिल्मों को पसंद करेंगे या नहीं। मणि या कुमार शाहनी की फिल्मों के किरदार मनुष्यों की तरह बात नहीं करते, किसी सामान की तरह बात करते हैं।
लेकिन मणि कौल की आषाढ़ का एक दिन (1971) और दुविधा (1973) की तो बहुत सराहना हुई थी?
आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश के नाटक पर आधारित है। मणि ने तो बस उनके लिखे को दृश्य-श्रव्य माध्यम में रूपांतरित कर दिया था। इसलिए लेखक को भी उसका काफी श्रेय जाता है। दुविधा मुझे अच्छी लगी थी। मणि जैसी फिल्में बनाना चाहते थे, वैसी बनाते थे। उन्हें किसी और चीज से कोई मतलब नहीं था। घासीराम कोतवाल में उन्होंने नाटक के आधार पर विजय तेंडुलकर से पटकथा लिखवाई थी। वह नाटक से एकदम अलहदा थी। उसमें बस नाटक के अंश इस्तेमाल किए गए थे। उसका आपको कोई अर्थ समझ आए, तो मुझे ईमानदारी से बताइएगा। डॉ. (श्रीराम) लागू ने उसके बारे में एक बार कहा था, ‘‘मैंने जीवन में नहीं सोचा था कि कभी कोई मराठी फिल्म मुझे समझ नहीं आएगी। घासीराम ऐसी फिल्म है, जो मुझे समझ ही नहीं आई।’’
आपने प्रकाश झा की फिल्मों में भी काम किया है। उसका अनुभव कैसा था?
उन्होंने सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्में बनाई हैं। बिहार की पृष्ठभूमि पर उन्होंने तीन फिल्में बनाईं, मृत्युदंड (1997), गंगाजल (2003) और अपहरण (2005)। ये सब फिल्में वर्तमान हालात से जुड़ती हैं। इसलिए मुझे काम करने में मजा आया। आपको पता है कि उनकी राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फिल्म दामुल (1985) को किसी ने पूछा तक नहीं था। उस फिल्म को दर्शक तक नसीब नहीं हुए थे। उसे किसी ने देखा भी नहीं था। तब प्रकाश झा हताश होकर बिहार लौट गए थे, लेकिन जब वे वापस आए तब उन्होंने संकल्प लिया कि मैं अब अपनी कहानी बॉलीवुड की भाषा में कहूंगा। पिछली गलती से उन्होंने सबक सीखा, फिर दोबारा लौट कर मृत्युदंड बनाई।
आपने मुख्यधारा की बॉलीवुड फिल्मों में भी काम किया, जैसे त्रिमूर्ति (1995), रंग दे बसंती (2005)?
मैं फिल्मों में फर्क नहीं बरतता। मैं बस इतना जानता हूं कि एक समानांतर सिनेमा होता है और दूसरा लोकप्रिय सिनेमा। मैं ऐसे सिनेमा का आदमी हूं जो मनोरंजन के पार जाता हो। हाल ही में मैंने लापता लेडीज (2024) देखी। इसके बाद बधाई हो (2019) देखी। दोनों ही बेहतरीन फिल्में हैं। अब तो बाहुबली (2015) जैसी फिल्मों का बॉलीवुड में जलवा हो रहा है।
ओटीटी के उभार को आप कैसे देख रहे हैं, जहां फिल्मकारों की नई फसल आ रही है?
एक मायने में ओटीटी अच्छा है, लेकिन शुरू में जब वह आया था, तो केवल प्रतिभाशाली फिल्मकारों की फिल्में ही खरीदता था। या उनसे ही फिल्में बनवाता था। अब उसने अपना कंटेंट बनाना बंद कर दिया है। इसलिए फिल्मकार यहां अब अपने मन के हिसाब से फिल्में नहीं बना पा रहे हैं।
मराठी सिनेमा में आपने देवराय (2004), अस्तु (2013), कासव (2017) में काम किया है। ये सब फिल्में मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित हैं। इनके बारे में कुछ बता सकते हैं?
इन फिल्मों में मैंने केवल काम ही नहीं किया था बल्कि इन फिल्मों का निर्माण भी किया था। मैं निजी तौर पर ऐसा सिनेमा पसंद करता हूं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दे। मैं ऐसे ही सिनेमा का मुरीद हूं। यदि फिल्में सोचने पर मजबूर न कर पाएं, तो फिर उनके होने का फायदा ही क्या। ये फिल्में सुमित्रा भावे बनाई थीं। वे फिल्मकार नहीं थीं, वे समाज वैज्ञानिक थीं। उन्हें जब समझ आया कि किताबों से ज्यादा ताकवर माध्यम सिनेमा है, तो उन्होंने फिल्म बनाना सीखा। वे ऐसी फिल्में बनाती थीं, जो किसी भी दर्शक को सोचने पर मजबूर कर दे। सुमित्रा भावे, डेविड धवन या सुभाष घई जैसी फिल्में नहीं बनाती थीं। यही वजह थी कि मैंने सोचा इन फिल्मों के माध्यम से मैं आम आबादी और स्वास्थ्य विज्ञानियों तक मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता फैला सकूंगा। मानसिक बीमारी, मनोचिकित्सा जैसी बातों को कोई गंभीरता से नहीं लेता है। ऐसे विषयों का लोकप्रिय फिल्मों में मजाक बनाया जाता है। इस विषय पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि एक फिल्म आई थी तारे जमीं पर (2007), यह हर मायने में बहुत अलग फिल्म थी।
पुणे शहर ने आपकी रचनात्मक यात्रा को कैसे प्रभावित किया है?
मैं पुणे में रहता हूं और मेरे लिए आज का पुणे वही पुणे है, जो मेरे बचपन में होता था। बाकी किसी भी तरह के पुणे को मैं न मानता हूं न जानता हूं। विस्तार ले रहा, मॉडर्न हो रहा पुणे मेरे पुणे का सांस्कृतिक हिस्सा नहीं है। यहां मैं 74 साल से ज्यादा समय से रह रहा हूं। अब यह महानगर बन चुका है। आप यहां अब मराठी बोलेंगे तो लोग आपको हैरत से देखेंगे। पुणे की पहचान जा चुकी है। एक बार मैं पुणे का मृत्यु प्रमाण पत्र मांगने के लिए नगर निगम के दफ्तर चला गया था।
(अरविंद दास डीवाय पाटील इंटरनेशनल युनिवर्सिटी, पुणे में स्कूल ऑफ मीडिया ऐंड जर्नलिज्म के निदेशक और प्रोफेसर हैं) (आउटलुक 11 नवंबर 2024 अंक में प्रकाशित)
Tuesday, October 29, 2024
Habib Tanvir's Plays Raised the Ethos of India's Diverse Culture
A volume to celebrate his life's work, edited by Anjum Katyal and Javed Malick, is a tribute to his legacy
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Habib Tanvir (1923-2009) was a renaissance man of modern Indian theatre who remained active on the stage for almost 60 years.