Sunday, March 30, 2025

पूंजीवादी आलजाल को रचती फिल्में: अनोरा और द ब्रूटलिस्ट

 

ऑस्कर पुरस्कार समारोह में अनोरा और द ब्रूटलिस्ट फिल्म की चर्चा रही. इंडी फिल्मकार सीन बेकर की फिल्म अनोरा को बेहतरीन फिल्म, निर्देशन, संपादन और बेस्ट एक्ट्रेस समेत सबसे ज्यादा पुरस्कार मिले. वहीं द ब्रूटलिस्ट को बेस्ट एक्टरबेस्ट सिनेमेटोग्राफी, ओरिजिनल स्कोर के लिए चुना गया.

पूंजीवादी समाज में वर्गीय विभेद, प्रेम और सेक्स के इर्द-गिर्द यह फिल्म घूमती है. असल में इसे एक कॉमेडी फिल्म कहा गया है, जिसके केंद्र में अमेरिका के स्ट्रीप क्लब में काम करने वाली एनी (अनोरा) है. रूस के एक धनाढ्य युवा के साथ उसके संबंध बनते हैं, जैसा कि हमने सिंड्रेला की कहानी में पढ़ा है. पर कहानी तो कहानी है, वह जीवन नहीं हो सकती!

सीन बेकर हमेशा दर्शकों के मन में यह भाव जगाए रखते हैं कि आप महज एक फंतासी देख रहे हैं. यथार्थ की पुनर्रचना के क्रम में पूंजीवादी आलजाल से हमारा साक्षात्कार होता है.

अनोरा (मिकी मैडिसन) की स्वप्निल आँखों में प्रेम का भाव है, पर उसके हाव-भाव में लोभ. रूसी युवा के साथ वह शादी रचाती है. इस उम्मीद में कि उसकी जिंदगी परियों सी हो जाएगी.  कहानी-सिनेमा से चमत्कार की उम्मीद तो हम रख ही सकते हैं! सीन बेकर हालांकि ऐसी कोई उम्मीद नहीं जागते हैं.

सीन बेकर बिना किसी फलसफे  के, बड़ी सहजता से, आधुनिक मानवीय त्रासदी को दो युवाओं के संबंधों के माध्यम से सामने लाते हैं. इस उत्तर आधुनिक युग में सवाल प्रेम’ की अवधारणा पर भी है. मिकी मैडिसन एनी के किरदार में कुशलता से रची-बसी है. महज 25 वर्ष की उम्र में ऑस्कर अपने नाम कर उन्होंने इतिहास रचा है. भले ही कहानी अमेरिका की हो इसे हम इस भूमंडलीकृत पूंजीवादी ग्राम में कहीं पर अवस्थित कर सकते हैं.

वहीं ब्रैडी कॉब्रेट की फिल्म द ब्रूटलिस्ट’ के केंद्र में कुशल अभिनेता एड्रीन ब्रॉडी हैं. नाजी यूरोप में नरसंहार के दौरान हंग्री के यहूदी मूल के लास्ज़लो टोथ (ब्रॉडी) अमेरिका आते हैं. एक कुशल वास्तुशिल्पी (ऑर्किटेक्ट) की जीवन यात्रा के माध्यम से हम सपनों के पीछे भागते ब्रॉडी को देखते हैं. साथ ही अमेरीकी पूंजीवादी सभ्यता के वीभत्स रूप से भी रू-ब-रू होते हैं, जो स्व को छीन लेता है.  

अनोरा फिल्म परदे पर तेज रफ्तार से भागती है. फिल्म का टाइम-स्पेस समकालीन है, जबकि द ब्रूटलिस्ट को एक उपन्यास की तरह विभिन्न खंडों में बुना गया है. करीब साढ़े तीन घंटे की यह फिल्म लंबी जरूर है, पर बोझिल नहीं. फिल्म बेहद खूबसूरत छवियों के माध्यम से सफेद और स्याह को सामने लाती है. ऐतिहासिक ताने-बाने के सहारे रची इस फिल्म को हम वर्तमान समय की राजनीति से भी जोड़ कर देख सकते हैं. एक माइग्रेंट के रूप में लास्जलो अपने स्व की तलाश में जिंदगी भर भटकते हैं.  उन्हें पहचान मिलती है, जिसकी कीमत उन्हें अपने को देकर चुकानी पड़ती है.  

दोनों ही फिल्मों का निर्माण और निर्देशन साफ अलग है, पर एक स्तर पर पूंजीवादी संस्कृति की आलोचना है. सीन बेकर प्रयोगात्मक फिल्मों के लिए जाने जाते हैं.  इन्होंने इस फिल्म को महज छह मिलियन डॉलर में बनाया है.  इस बात पर बहस की जा सकती है कि क्या वास्तव में अनोरा’ इतने ऑस्कर की हकदार थी, लेकिन एक बात तय है कि ऑस्कर ने इंडिपेंडेंट सिनेमा को केंद्र में ला दिया है. चुनौती बड़े बजट की फिल्मों को इन्हीं फिल्मों से मिल रही है. क्या बॉलीवुड  इससे कोई सबक लेगा?


Sunday, March 09, 2025

पांच साल बाद फिर पाताल लोक


पांच साल के बाद पाताल लोक वेब सीरीज अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही है. अविनाश अरुण के निर्देशन में इसे सुदीप शर्मा ने रचा है. इस सीरीज में चर्चित असमिया फिल्म निर्देशक जानू बरुआ को देखना सुखद है. हालांकि इस बार भी वेब सीरीज के केंद्र में पुलिस इंस्पेक्टर हाथी राम चौधरी (जयदीप अहलावत) हैं, जो हत्या और नशे के अपराधियों की खोजबीन, धरपकड़ में दिल्ली से उत्तर-पूर्व नागालैंड की यात्रा करते हैं. नागालैंड की राजनीति, विकास और शांति के द्वंद्व को पकड़ने की यह सीरीज कोशिश करता है, लेकिन आखिर एपिसोड तक तक आते-आते सिरा छूटने लगता है. इस लिहाज से यह सीरीज पहले सीजन की तरह बांध कर नहीं रख पाती है. साथ ही नागालैंड समाज को लेकर एक तरह का रूढ़िबद्ध अवधारणा भी यहां दिखाई देता है, खास कर हिंसा को लेकर.

हिंदी फिल्मों, वेब सीरीज में उत्तर-पूर्वी राज्यों की संस्कृति का चित्रण गायब रहा. अगर कोई किरदार नजर आता भी हैतो वह अमूमन स्टीरियोटाइप ही होता है. वर्ष 2020 में निकोलस खारगोंकोर की अखोनी फिल्म इस मामले में अलग थी, जहां हम नस्लवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे से रू-ब-रू होते हैं. बहरहाल,  पिछले साल जिस तरह से यथार्थपरक सिनेमा और वेब सीरीज का सूखा रहा, ऐसे में पाताल लोक से साल की शुरुआत में ही दर्शकों को उम्मीद बंधी है.

वेब सीरीज ने निस्संदेह भारतीय सिनेमा उद्योग को कुछ अच्छे कलाकार दिए हैं. जयदीप अहलावत उनमें से एक हैं. उनके अभिनय के रेंज के लिए यह सीरीज देखी जानी चाहिए. ऐसा लगता है कि पहले सीजन में जिस भूमि पे वे खड़े थे, वही से उन्होंने फिर से अपने किरदार को आत्मसात किया है. एक कलाकार के लिए पाँच साल का समय कम नहीं होता. इन वर्षों में उनकी अभिनय प्रतिभा और निखरी है.

ऐसा नहीं है कि पाताल लोक से पहले उन्हें पहचान नहीं मिली थी. वर्ष 2018 में मेघना गुलजार की राजी फिल्म में उन्होंने एक खुफिया अधिकारी की भूमिका निभाई थी, जहां लोगों ने नोटिस किया था, पर वे कहते रहे हैं कि इसके बावजूद  उन्हें काम मिलने में परेशानी हुई. कोरोना के दौरान पाताल लोक सीजन-एक के स्ट्रीम होने के बाद दर्शकों के बीच उनके अभिनय की खूब चर्चा हुई और पहचान मिली. उसके बाद थ्री ऑफ अस’ और महाराज’ जैसी फिल्मों में भी उनके अभिनय की प्रशंसा हुई.

पैंतालीस वर्ष के जयदीप ने थिएटर से जुड़ने के बाद पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान से वर्ष 2008 में अभिनय का प्रशिक्षण लिया है. हाथी राम चौधरी का किरदार उन्हीं के लिए लिखा गया  लगता है. हरियाणवी बोली-बानी वाले एक ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और साफ-शफ्फाक इंसान जो एक पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में एक साथ कड़क और भावुक है. उसे सामाजिक बीमारियों का इलाज करना है, पर अपने परिवार और बेटे की चिंता भी है. जो सहजता से रो सकता है और एंग्री यंग मैन की तरह अपराधियों से दो-दो हाथ कर सकता है. हाथी राम चौधरी के किरदार में एक साथ विभिन्न भावों को जयदीप अहलावत ने जिस कुशलता निभाया है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए.

Sunday, February 02, 2025

विभाजन का चितेरा: ऋत्विक घटक

 


महान फिल्मकार ऋत्विक घटक (1925-76) का यह जन्मशती वर्ष है, पर जिस रूप में भारतीय सिनेमा में उनके योगदान की चर्चा होनी चाहिए वह नहीं दिखती. अजांत्रिकमेघे ढाका ताराकोमल गांधारसुवर्ण रेखातिताश एकटी नदीर नाम जैसी उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा की थाती है. 

घटक ढाका में जन्मे थे और विभाजन की त्रासदी को झेला था. बंगाल विभाजन ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को काफी प्रभावित किया था. आत्मानुभूति पर उनका काफी जोर था.


कुमार शहानी ने एक जगह लिखा है, ऋत्विक दा का काम हमारी पहचान की हिंसक अभिव्यक्ति है. यह मेघे ढाका तारा में मरणासन्न लड़की का रुदन  है जो पहाड़ियों से गूंजता है, हमारे जीने का अधिकार है. वर्षों पहले मणि कौल ने मुझे कहा था कि ‘ऋत्विक दा की फिल्मों से आज भी में बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नव-यथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.’ उन्होंने कहा था ‘उनकी फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है. वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे. उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाए.’

 

घटक ने भारतीय फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित कियाजब वे वर्ष 1965-67 में भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (फटीआइआइ)पुणे से उप-प्राचार्य के रूप में जुड़े. पिछली सदी के 70-80 के दशक में व्यावसायिक फिल्मों से अलग समांतर सिनेमा की धारा को पुष्ट करने वाले फिल्मकार मणि कौलकुमार शहानीसईद मिर्जाजैसे फिल्मकार खुद को ‘घटक की संतान’ कहलाने में फख्र महसूस करते रहे हैं. मणि कौल और कुमार शहानी दोनों उनके एपिक फॉर्म से काफी प्रभावित थे.

 

कुमार शहानी ने मुझे कहा था कि ‘जब आप मेरी फिल्म चार अध्याय देखेंगेतो ऋत्विक दा आपको भरपूर नजर आएंगे’. शहानी ने बताया था कि एपिक फॉर्म से घटक ने ही फिल्म संस्थान में उनका परिचय करवाया था. इसी तरह पुणे फिल्म संस्थान के छात्र रहे फिल्मकार अनूप सिंह की फिल्मों में भी एपिक फॉर्म दिखाई देता है. सिंह की बेहतरीन फिल्म ‘एकटी नदीर नाम’ (2002) ऋत्विक घटक को ही समर्पित है.

 

असमिया फिल्मों के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ बताते हैं, “मैं जिंदगी में पहली बार ऐसे आदमी (ऋत्विक घटक) से मिला जिसके लिए खाना-पीनासोनाउठना-बैठना सब कुछ सिनेमा था.” ऋत्विक घटक के बिना आज भी फिल्म संस्थान के बारे में कोई भी बात अधूरी रहती है.


उनकी फिल्में बंगाल विभाजनविस्थापन और शरणार्थी की समस्या का दस्तावेज है. ‘सुवर्णरेखा’ की कथा विभाजन की त्रासदी से शुरू होती है. फिल्म के आरंभ में ही एक पात्र कहता है ‘यहाँ कौन नही है रिफ्यूजी?’ ऋत्विक घटक निर्वासन और विस्थापन की समस्या को एक नया आयाम देते हैं. आज भूमंडलीय ग्राम में जब समय और स्थान के फासले कम से कमतर होते चले जा रहे हैं हमारी अस्मिता की तलाश बढ़ती ही जा रही है. ऋत्विक की फिल्में हमारे समय और समाज के ज्यादा करीब है. घटक अपनी कला यात्रा की शुरुआत में ‘इप्टा’ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) से जुड़े थे. चर्चित निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन घटक के इप्टा की पृष्ठभूमि और संगीत के कलात्मक इस्तेमाल की ओर बातचीत में इशारा करते हैं.

Wednesday, December 25, 2024

सिनेमा को‌ सामाजिक बदलाव का बड़ा माध्यम मानते थे बेनेगल


श्याम बेनेगल (1934-2024): स्मृति शेष


समांतर सिनेमा आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर श्याम बेनेगल की ख्याति एक फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक और वृत्तचित्र निर्माता के रूप में पूरी दुनिया में थी. पचास वर्षों की अपनी फिल्मी यात्रा में वे जीवनपर्यंत फिल्म निर्माण में सक्रिय रहे.

भारत और बांग्लादेश के सरकार के सहयोग से बनी उनकी आखिरी फिल्म ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ के निर्माण के दौरान और रिलीज होने के बाद मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी. जीवन से भरपूर वे एक कुशल शिक्षक की तरह थे, जिनसे आप सहजता से कोई भी सवाल पूछ सकते हैं. वर्ष 2006 में मैंने उनके साथ ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में मीडिया के ऊपर हुए एक सेमिनार में भाग लिया था. इस सेमिनार में उन्होंने हिंदी फ़िल्मों में विभाजन के चित्रण पर व्याख्यान दिया था.

वे सिनेमा को सामाजिक बदलाव का एक सशक्त माध्यम मानते थे. उन्होंने मुझसे एक बातचीत के दौरान कहा था: 'मेरे लिए प्रत्येक फिल्म का निर्माण सीखने की एक सतत प्रक्रिया है. फिल्म निर्माण के माध्यम से आप अपने आस-पड़ोस, लोगों और देश में बारे में जानते-समझते हैं. फिल्म बनाते हुए आप खुद को शिक्षित करते हैं.' इस वर्ष प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में उनकी चर्चित फिल्म ‘मंथन’ (1976) को क्लासिक खंड में दिखाया गया. बाद में जब देश के चुनिंदा सिनेमा घरों में बड़े परदे पर एक बार फिर से इसे रिलीज किया गया, तब दर्शकों का उत्साह देखते बना. सिनेमा में योगदान के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित बेनेगल की फिल्में पीढ़ियों को आपस में जोड़ती और उनसे संवाद करती है. डेयरी सहकारी आंदोलन के इर्द-गिर्द रची गई इस फिल्म में भारतीय ग्रामीण समाज में जातिगत विभेद उभर कर सामने आता है.

श्याम बेनेगल की फिल्मों का दायरा काफी व्यापक और विविध रहा. उनकी फिल्में ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को समग्रता में समेटती है. आश्चर्य नहीं कि दूरदर्शन के लिए उन्होंने नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ को निर्देशित किया था, जो काफी चर्चित रही थी.

बेनेगल की फिल्मी यात्रा के कई चरण रहे. पिछली सदी के 70 के दशक में ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘भूमिका’ जैसी फिल्में जहाँ सामाजिक यथार्थ और स्त्रियों की स्वतंत्रता के सवाल को समेटती है, वहीं ‘मम्मो’, ‘सरदारी बेगम’, ‘जुबैदा’ जैसी फिल्में मुस्लिम स्त्रियों के जीवन को केंद्र में रखती है. इस बीच उन्होंने जुनून, त्रिकाल जैसी फिल्म भी बनाई जो इतिहास को टटोलती है. फिर बाद में वे ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’, ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस: द फॉरगॉटेन हीरो’ जैसी ऐतिहासिक जीवनीपरक फिल्मों की ओर मुड़े, जिनमें उन्हें महारत हासिल रही. ‘मुजीब’ फिल्म इसी कड़ी में उनकी आखिरी फिल्म रही.

वे जोर देते हुए कहते थे कि ऐतिहासिक विषयों पर आधारित फिल्मों में एक निश्चित मात्रा में वस्तुनिष्ठता का होना जरूरी है. साथ ही वे फिल्मकारों की इतिहास के प्रति जिम्मेदारी पर जोर देते हुए आगाह करते थे कि ‘बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म ‘प्रोपगेंडा’ बन जाती है’. उनका यह कथन वर्तमान समय में राष्ट्रवादी विचारधारा की आड़ में बनने वाली प्रोपेगेंडा फिल्मों के लिए एक सीख की तरह है.

एनएसडी, एफटीआईआई से प्रशिक्षित नए अभिनेताओं के लिए उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ उन्हें प्रतिभा दिखाना का भरपूर मौका मिला. उल्लेखनीय है कि बेनेगल की पहली फिल्म ‘अंकुर (1974) से ही शबाना आजमी ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा था. ‘मंडी’ फिल्म फिल्म में शबाना आजमी, स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, नीना गुप्ता, इला अरुण, अमरीश पुरी, कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकारों को परदे पर एक साथ दिखना किसी आश्चर्य से कम नहीं!

चिदानंद दासगुप्त ने अपने एक लेख में लिखा है: “बेनेगल की ज्यादातर फिल्में एक वस्तुनिष्ठ सत्य सामने लेकर आती है-एक ऐतिहासिक तथ्य, एक दी गई स्थिति, चरित्र या एक वर्ग- जिसे एक व्यवस्था, अनुशासन, क्राफ्ट्समैनशिप से लगभग करीब से रचने की सिनेमा कोशिश करता है. निजी भावपूर्ण फिल्में बनाना उनकी विशेषता नहीं है. इस मायने में वे ऋत्विक घटक से साफ विपरीत हैं, जो बेहद भावपूर्ण थे. इसी के करीब मृणाल सेन हैं, जिनके लिए वस्तुनिष्ठता का कोई मतलब नहीं है. तार्किकता बेनेगल के फिल्म निर्माण को संचालित करती है, जिससे उनकी काल्पनिकता या भावनाएँ मुक्त होने की कभी-कभार ही कोशिश करती है.” बेनेगल की अधिकांश फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल रही. इस मायने में उनकी तुलना मलयालम फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन से ही की जा सकती है, जिनकी कला से सृंवृद्ध फिल्में ‘बाक्स ऑफिस’ पर भी सफल रही. फिल्म निर्माण का उनका तरीका और सौंदर्यबोध समांतर सिनेमा के अन्य चर्चित फिल्मकार मणि कौल, कुमार शहानी आदि से साफ अलग रहा.

नई सदी में तकनीक क्रांति से सिनेमा निर्माण और दृश्य संस्कृति में काफी बदलाव आया है. सिनेमा का क्या भविष्य है, यह पूछने पर बेनेगल ने मुझे कहा था कि सिनेमा का भविष्य तो है, पर आवश्यक नहीं कि हमने जैसा सोचा था वैसा ही हो!’ उन्होंने कहा था कि ‘सिनेमा को गढ़ने में इतिहास और तकनीक दोनों की ही भूमिका होती है. आप किस तरह सिनेमा देखते हैं, वह भी सिनेमा का भविष्य तय करेगा.’ आने वाले समय में सिनेमा चाहे जो रूप अख्तियार करे पर इसमें कोई शक नहीं कि जब तक सिनेमा है, उनकी फिल्में इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर हमारे बीच हमेशा मौजूद रहेगी.

Sunday, December 15, 2024

यथार्थ को नए मुहावरे में रचती फिल्म


पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ इस साल की सबसे चर्चित फिल्मों में रही. एक वजह प्रतिष्ठित कान समारोह में इस फिल्म को ‘ग्रां प्री’ पुरस्कार से नवाजा जाना है. स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए सिनेमा बनाना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है. सच तो यह है कि फिल्म बनाने के बाद उसके वितरण और प्रदर्शन की समस्या फिल्मकारों के लिए हतोत्साहित करने वाली होती है. ऐसे में उम्मीद है कि ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ की सफलता नए वर्ष में स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए एक रोशनी साबित होगी.


पिछले दिनों यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई. निस्संदेह यह फिल्म समकालीन यथार्थ को दृश्य और ध्वनि के नए 'धूसर' मुहावरे में दर्शकों के सामने लाती है. फिल्मकार की दृष्टि, संवेदना और राजनीति यहाँ मुखर है. साथ ही संपादन और सिनेमेटोग्राफी भी उत्कृष्ट है.

मुंबई महानगर में हाशिए पर रहने वाली तीन कामकाजी स्त्रियाँ प्रभा, अनु और पार्वती इस फिल्म के केंद्र में है जो अपने हिस्से की रोशनी की तलाश में है. प्रभा और अनु जहाँ एक अस्पताल में नर्स है वहीं पार्वती उसी अस्पताल में रसोई संभालती है. तीनों स्त्रियों के आपसी संबंध एक वर्ग-चेतन दृष्टि से संचालित हैं. यहाँ पर क्षेत्रीयता और भाषाई राजनीति आड़े नहीं आती है. पहले हिस्से में फिल्म भावनात्मक रूप से जकड़ कर रखती है. प्रभा की भूमिका में कनी कुश्रुति का अभिनय बेहद प्रभावी है. एक लंबे अरसे के बाद परदे पर एक सशक्त स्त्री चरित्र उभर कर आया है.

प्रभा का पति लंबे अरसे से उससे अलग जर्मनी में रहता है. अपने पति से अलग रहते हुए प्रभा का एकाकीपन उसके चेहरे पर एक उदास शाम की तरह पैवस्त है, वहीं अनु सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ती हुई एक अल्हड़ नदी की तरह बहती चलती है और मुस्लिम लड़के से प्रेम करती है. हालांकि प्रेम संबंधों की परिणति के लिए सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं है. पार्वती वर्षों से मुंबई में रह रही है, पर अपने ‘घर’ को बचाने की जद्दोजहद से जूझती है.

मुंबई के फुटपाथ, अंधेरे बंद कमरे, बड़े बिल्डरों से अपने ठौर को बचाने का संघर्ष और दो युवा प्रेमियों के संबंधों के माध्यम से हम समकालीन यथार्थ से रू-ब-रू होते हैं. फिल्म अपनी तरफ से कोई जवाब नहीं देती है, महज कुछ सवाल दर्शकों के लिए छोड़ जाती है.

उल्लेखनीय है कि इससे पहले पायल की डॉक्यूमेंट्री ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ भी कई पुरस्कारों को जीत चुकी है. भारतीय फिल्म टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई), पुणे की स्नातक पायल की इस फिल्म के कुछ दृश्य भी डॉक्यूमेंट्री शैली में रचे गए हैं. दर्शकों को माया नगरी की फंतासी से दूर रखते हुए फिल्मकार ने कहानी को समांतर सिनेमा की शैली में बुना पर मुहावरा अपना चुना है.

यह फिल्म कई स्तरों पर चलती है. कई मुद्दों (राजनीतिक भी), भाषाओं को साथ लेती हुई. इस अर्थ में फिल्म काफी महत्वाकांक्षी है. यह फिल्म वर्तमान समय में मौजूं है, पर इसे क्लासिक नहीं कहा जा सकता. हां, यह फिल्म पायल और युवा फिल्मकारों से काफी उम्मीदें जरूर जगाती है

Sunday, December 01, 2024

आराम नगर में चैन कहां


कहते हैं मुंबई को नींद नहीं आती. आए भी कैसे? हर दिन सैकड़ों लोग अपनी किस्मत आजमाने माया नगरी आते हैं. उनके ख्वाब मुंबई को जगाए रखते हैं, उनके संघर्ष सोने नहीं देते.


पिछले दिनों एक दोपहर वर्सोवा के नजदीक आराम नगर में बिताने का मौका मिला. यहाँ पर बीसियों कास्टिंग कंपनी है जहाँ अदाकारों की भीड़ रहती है. आँखों में सपने लिए, अदाकार, लेखक और भविष्य के फिल्म निर्देशक मिल जाते हैं. पिछले दशक में बॉलीवुड में यह नगर ऐसा अड्डा बन कर उभरा है जहाँ सैकड़ों युवा रोज आते-जाते हैं. कुछ दशक पहले जहाँ प्रोड्यूसरों के ऑफिस में अदाकार अपना ‘पोर्टफोलियो’ लेकर पहुँचते थे, वहीं अब कास्टिंग डायरेक्टर के यहाँ लंबी लाइन लगी रहती है.

दिल्ली के मुकेश छाबड़ा का नाम कास्टिंग डायरेक्टर में आज सबसे ऊपर है. आराम नगर में स्थित उनके ऑफिस के बाहर युवकों की लंबी लाइन लगी थी. उनमें ही एक 22 साल के युवा नमन भारद्वाज भी थे. नमन दिल्ली में थिएटर से जुड़े रहे और छह महीने पहले ही मुंबई आए हैं. वह कहते हैं ‘यहाँ पर आपको कैमरे के सामने अपना नाम, उम्र और एक्टिंग का अनुभव बताना होता है. यदि आपके लायक कोई काम किसी फिल्म या सीरीज में हो तो फिर कास्टिंग कंपनी आपको कॉन्टेक्ट करती है. इनके पास बहुत बड़ा डेटाबेस है.’ न सिर्फ संघर्षरत युवा बल्कि कई जाने-पहचाने नाम भी यहाँ मिल जाते हैं. ‘फैमिली मैन’ सीरीज से चर्चित हुए कुशल अभिनेता शारिब हाशमी भी यहाँ दिख गए.

आराम नगर में थिएटर के भी कई मंच उपलब्ध हैं, जहाँ पर आए दिन स्थापित और एमेच्योर थिएटर ग्रुप के नाटकों का मंचन होता रहता है. बहरहाल, जब मैंने नमन से पूछा कि क्या यहाँ पर आप किसी एक्टिंग वर्कशॉप या थिएटर से भी जुड़े हैं? उन्होंने कहा कि ‘एक्टर तो मैं हूं, पर काम नहीं है.' उन्होंने कहा कि यहां पर आपको 'मिडिल क्लास के स्ट्रगलर्स मिलेंगे, पृथ्वी थिएटर के आस-पास जो घूमते फिरते आपको मिलेंगे वे थोड़े अपर क्लास के होते हैं.’ शाम में जब पृथ्वी थिएटर फेस्टिवल में हम एक नाटक देखने गए तो नमन का कहा सच लगा.

ऐसा नहीं कि आराम नगर में सिर्फ कास्टिंग कंपनियां ही हैं. यहाँ पर कई नामी निर्माता-निर्देशकों के प्रोडक्शन हाउस भी रहे हैं. पर छाबड़ा के एक सहयोगी ने बताया कि ‘अब प्रोडक्शन हाउस कहाँ अभिनेता को काम दे पाती है, जो भी काम मिलता है कास्टिंग कंपनियों के माध्यम से ही उन्हें मिल रहा है.’

ऑफिस के केबिन के बाहर छाबड़ा का एक कथन मोटे अक्षरों में लिखा दिखता है: ‘दुनिया बदल गई है. अब हम हीरो या कद-काठी, डील-डौल से आगे बढ़ चुके हैं.’ यह सच है कि पिछले दशक में ओटीटी के उभार ने अदाकारों के लिए एक बड़ा स्पेस मुहैया कराया है. खुद छाबड़ा की पहचान अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में कास्टिंग डायरेक्टर से बनी. इस फिल्म ने कई कलाकारों को बॉलीवुड की दुनिया में स्थापित कर दिया, जो वर्षों से बॉलीवुड में समंदर के थपेड़े खा रहे थे.