पचासी वर्षीय मराठी के चर्चित नाटककार महेश एलकुंचवार ने विजय तेंदुलकर (1928-2008) और सतीश आलेकर के साथ मिलकर मराठी रंगकर्म को नई रंगभाषा और मुहावरे दिए हैं. यदि इन तीनों नाटककारों की तुलना पारसी रंगमंच के राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब और आगा हश्र कश्मीरी से की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. इन नाटककारों ने पारंपरिक, महाकाव्य को आधार बना कर किए जाने वाले म्यूजिकल नाटकों से अलग सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से मराठी रंगकर्म को जोड़ा. जिसका असर भारतीय रंगमंच पर गहरा पड़ा.
एक पत्रकार के नोट्स
Sunday, June 01, 2025
महेश एलकुंचवार की रंग यात्रा
पचासी वर्षीय मराठी के चर्चित नाटककार महेश एलकुंचवार ने विजय तेंदुलकर (1928-2008) और सतीश आलेकर के साथ मिलकर मराठी रंगकर्म को नई रंगभाषा और मुहावरे दिए हैं. यदि इन तीनों नाटककारों की तुलना पारसी रंगमंच के राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब और आगा हश्र कश्मीरी से की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. इन नाटककारों ने पारंपरिक, महाकाव्य को आधार बना कर किए जाने वाले म्यूजिकल नाटकों से अलग सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से मराठी रंगकर्म को जोड़ा. जिसका असर भारतीय रंगमंच पर गहरा पड़ा.
Sunday, May 11, 2025
करुणा के चितेरे शाजी करुण
Sunday, April 27, 2025
'स्वांग' की राजनीतिक चेतना
'I’m Still Writing, Why Should I Look Back', Says Veteran Playwright Mahesh Elkunchwar
The importance of Vijay Tendulkar (1928–2008), Mahesh Elkunchwar and Satish Alekar to modern Marathi theatre is comparable to that of Radhashyam Kathavachak, Narayan Prasad Betab and Agha Hashr Kashmiri to Parsi theatre. They introduced a new idiom that was distinct from the traditional Marathi musicals or epic dramas.
Sunday, April 13, 2025
प्रतिरोध की कहानी
इस साल जनवरी के मध्य से इजराइल और फिलिस्तीन के बीच युद्ध विराम जारी है, पर संघर्ष खत्म होने के आसार आसानी से नजर नहीं आ रहे हैं. 7 अक्टूबर 2023 की हमास की चरमपंथी घटना में करीब 1200 इजराइली मारे गए और 251 लोगों को बंधक बना लिया गया था. युद्धविराम के तहत हमास बंधकों को टुकड़ो मे रिहा करेगा ताकि युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ा जा सके. युद्ध में कम से 48 हजार फिलिस्तीनी हताहत हुए हैं और लाखों बेघर.
इजराइल और फिलिस्तीन समस्या के जड़ें काफी गहरी है जो पिछली सदी में वर्ष 1948 में अरब-इजरायल युद्ध के साथ एक नया मोड़ ले लिया. इस युद्ध (नक्बा) में सात लाख पचास हजार फिलिस्तीनी शरणार्थी बना दिए गए.
मौजूदा इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में ‘फिलिस्तीन: जो गायब भी है हाजिर भी’ पढ़ना रोचक है. हिंदी में अंतरराष्ट्रीय मसलों पर किताबों का सर्वथा अभाव रहा है. अजीजुर रहमान आजमी की यह किताब इस कमी को पूरा करती है. इस किताब में तथ्यों के आधार पर सवाल उठाया गया है कि इजरायल-फिलिस्तीन विवाद आखिरकार आज तक सुलझ क्यों नहीं पाया है? इसके पीछे क्या कारण रहे हैं?
दस अध्यायों में विभाजित इस किताब में फिलिस्तीन के इतिहास और दावे के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं. लेखक ने लिखा है कि “ आज फिलिस्तीन जिसको संयुक्त राष्ट्र ने मान्यता दी है, वह वेस्ट बैंक और गाजा तक फैला भाग है जिसका अधिकांश भाग इजराइल के कब्जे में है और वेस्ट बैंक में अवैध बस्तियाँ बसाने की प्रक्रिया सतत चालू है.”
भारत इजराइल फिलिस्तीन संघर्ष में दो राज्य की संकल्पना का समर्थन करता रहा है. हालांकि पिछले दशक में भारत के इजरायल के साथ संबंध गहरे हुए हैं. उदारीकरण की नीतियों के आलोक में लेखक ने दोनों देशों के साथ बदलते संबंधों पर प्रकाश डाला है. तथ्यों की रोशनी में लेखक इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष की कहानी तो कहता है, पर विश्लेषण का यहाँ अभाव है. साथ ही अनावश्यक रूप से अध्यायों में कई सब हेडिंग डाले गए हैं. कुछ जगहों पर तथ्यात्मक भूल भी है जिसे अगले संस्करण में सुधारा जा सकता है.
समीक्षक: अरविंद दास
किताब: फिलिस्तीन: जो गायब भी है हाजिर भी
लेखक: अजीजुर रहमान आजमी
प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन
कीमत; 295 रुपए
Tuesday, April 01, 2025
बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म प्रोपेगेंडा बन जाती है
भारत और बांग्लादेश के सरकार के सहयोग से बनी 'बंगबंधु' शेख मुजीबुर्रहमान पर आधारित बायोपिक ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ के निर्माण के दौरान (2022) और रिलीज होने के बाद (2023) अरविंद दास ने श्याम बेनेगल से लंबी बातचीत की थी। यह उनकी आखिरी फिल्म थी, जिसे भारत और बांग्लादेश में फिल्माया गया था। यह बातचीत अंग्रेजी में हुई थी प्रस्तुत है अनूदित संपादित अंश:
आप पचास साल से फिल्में बना रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी आप हर दिन ऑफिस जाते हैं। क्यों? आपको क्या प्रेरित करता है?
श्याम बेनेगल: यह काम है। काम मुझे आगे बढ़ाता है। इस समय मैं शेख मुजीबुर्रहमान पर एक बड़ी फिल्म पूरी कर रहा हूं। यह एक बायोपिक है।
आपने पहले महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस पर फिल्में बनाई हैं। शेख मुजीबुर्रहमान पर बनी यह फिल्म कितनी अलग है?
श्याम बेनेगल: यह एक ऐतिहासिक बायोपिक है, ठीक वैसे ही जैसे 'द मेकिंग ऑफ द महात्मा' या 'नेताजी सुभाष चंद्र बोस: द फॉरगॉटन हीरो'। यह हमारे उपमहाद्वीप के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति की कहानी है। शेख मुजीब ने एक नया राष्ट्र—बांग्लादेश—की स्थापना की। उनकी कहानी बहुत रोचक है और वे स्वयं भी एक अद्भुत व्यक्तित्व थे। वे किसी समृद्ध परिवार से नहीं थे। उनका बैकग्राउंड नेहरू या गांधी जैसा नहीं था। नेहरू प्रसिद्ध वकील के बेटे थे, गांधी भी एक प्रभावशाली परिवार से आते थे। सौराष्ट्र के दीवान परिवार से उनका ताल्लुक था। ज्यादातर राजनीतिक व्यक्ति इसी तरह की पृष्ठभूमि से थे, लेकिन शेख मुजीब एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार से थे। उनकी पृष्ठभूमि नेहरू या गांधी के जैसी नहीं थी। वे एक कामकाजी शख्स थे। उदाहरण स्वरूप नेहरू एक ऐसी पृष्ठभूमि से आते थे यदि वे सोचते तो उन्हें कोई काम करने की जरूरत नहीं थी. उनके पिता की एक सामाजिक हैसियत थी और बहुत पैसा था। शेख मुजीब के पास बहुत जमीन जायदाद या जमींदारी नहीं थी।
गांधी या सुभाष से अलग बांग्लादेश के जनक पर बायोपिक बनाना कितना चुनौतीपूर्ण था?
श्याम बेनेगल: ओह, वास्तव में यह दूसरी फिल्मों की तुलना में आसान था। मुजीब की बेटी शेख हसीना ( जो उस वक्त बांग्लादेश की प्रधानमंत्री थी), से मेरी मुलाकात हुई। मैंने उनके परिवार, विशेष रूप से उनके पिता, माता और भाइयों के बारे में सुना, जिनकी हत्या कर दी गई थी। यह फिल्म उनके बारे में है, जिससे हमें उनके राजनीतिक और पारिवारिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने का अवसर मिला। हमें उनके निजी संबंधों और भूमिकाओं के माध्यम से जानने का मौका मिला, जो बाहरी लोग शायद नहीं जान पाते।
यह फिल्म एक संयुक्त परियोजना है; क्या आप इसके बारे में कुछ बता सकते हैं?
श्याम बेनेगल: हां, यह भारत और बांग्लादेश सरकारों के बीच एक सहयोगी प्रयास है। हाल ही में बांग्लादेश की 50वीं वर्षगांठ और शेख मुजीब की 100वीं जयंती मनाई गई थी। जब हमने फिल्म बनानी शुरू की, तब तक काफी देर हो चुकी थी, इसलिए यह उन समारोहों का हिस्सा नहीं बन पाई।
क्या इस परियोजना को लेकर आप पर किसी प्रकार का दबाव था?
श्याम बेनेगल: बिल्कुल नहीं। वास्तव में, मुझे यह निर्देश दिया गया था कि आप इस फ़िल्म को अपने दृष्टिकोण और सोच के अनुसार बनाएं। मुझसे कहा गया कि मुझे फिल्म उसी तरह बनाना चाहिए जैसे कोई पात्र [सामान्य रूप से] विकसित होता है। सौभाग्य से, हमारे पास इसे बनाने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी। मुजीब ने बार-बार जेल की सजाओं और कैद के दौरान डायरी में कई नोट्स लिखे थे। वे जवाहरलाल नेहरू की तरह साहित्यिक अभिरुचि रखते थे, जिन्होंने जेल में रहते हुए तीन पुस्तकें लिखी थीं।
प्रसिद्ध मलयालम फ़िल्म निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन ने एक बार मुझसे कहा था कि वे हिंदी फ़िल्म का निर्देशन नहीं कर सकते, क्योंकि वे भाषा नहीं समझते और अभिनेताओं का निर्देशन करना उनके लिए कठिन होगा। आपने हमेशा हिंदी/हिंदुस्तानी में फ़िल्में बनाई हैं, लेकिन "मुजीब: द मेकिंग ऑफ़ ए नेशन" मूल रूप से बांग्ला में है। क्या आपको अभिनेताओं के निर्देशन में कठिनाई हुई?
श्याम बेनेगल: नहीं, बिल्कुल नहीं। अलग-अलग लोगों की सोच अलग होती है। मैं बांग्ला नहीं जानता, लेकिन मेरे पास बेहतरीन भाषा सलाहकार थे। भारतीय भाषाओं की तरह, बांग्ला में भी स्थानीय मुहावरे होते हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल के बंगाली लोगों की भाषा बांग्लादेश के बंगालियों से अलग हो सकती है। यही बात हिंदी पर भी लागू होती है। एक मुहावरा है ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी'। जैसे हैदराबाद में बोली जाने वाली दक्खिनी हिंदी अलग होती है। लोग कहते हैं 'हुसैन सागर का पानी पीता है'। हैदराबाद की दक्खिनी मैसूर से अलग है।
भले ही यह फ़िल्म मुजीबुर्रहमान के संघर्ष और एक राष्ट्र के जन्म की कहानी कहती है, इसका संगीत और गीत विशेष रूप से प्रभावशाली हैं। फिल्म देखते हुए मुझे आपकी म्यूजिकल फिल्में जैसे, सरदारी बेगम (1996) और जुबैदा (2001) की याद आता रही। इस फ़िल्म के गीतों के बारे में बताइए।
श्याम बेनेगल: फ़िल्म में तीन गीत हैं। पहला गीत एक ग्रामीण भटियाली गीत "अबूझ माझी" है, जो बंगाल की समृद्ध भूमि की सुंदरता को दर्शाता है। दूसरा गीत "की की जिनीष एनेछो दुलाल" है, जो शादी का गीत है। और तीसरा गीत एक मर्सिया है—जब कोई महान व्यक्ति गुजर जाता है, तो शोकगीत के रूप में इसे गाया जाता है। यह गीत मुजीब के लिए है, जिसमें सवाल किया गया है—'आप कहां चले गए?'
"की की जिनीष एनेछो दुलाल" के बारे में थोड़ा विस्तार से बात करते हैं। यह गीत बांग्ला और हिंदी संस्करणों में अलग है। बांग्ला संस्करण में सीता के सिंदूर और सामासिक संस्कृति की गूंज सुनाई देती है।
श्याम बेनेगल: यह दुल्हन के लिए गाया जाने वाला गीत है। दूल्हा शादी के लिए सिंदूर लाता है, जिसे दुल्हन की मांग में लगाया जाता है। यह एक पारंपरिक गीत है, जो विवाह समारोह से पहले गाया जाता है। हमने इसे हिंदी संस्करण में थोड़ा बदला, लेकिन बांग्ला संस्करण में यह पारंपरिक रूप में ही रखा गया। यह बंगाल की परंपरा का हिस्सा है।
बांग्लादेश में इस फ़िल्म को कैसी प्रतिक्रिया मिली?
श्याम बेनेगल: फ़िल्म बेहद सफल हो रही है। यह पूरे बांग्लादेश में 170 सिनेमाघरों में प्रदर्शित की गई। चूंकि बांग्लादेश में सिनेमाघरों की संख्या कम है, इसलिए इसे स्कूल हॉल में भी दिखाया जा रहा है। सरकार नए सिनेमाघर बना रही है, और यह फ़िल्म जबरदस्त हिट हो चुकी है।
फ़िल्म देखते समय मुझे लगा कि मुजीब के व्यक्तित्व में कोई विरोधाभास या द्वंद्व नहीं दिखाया गया है। वे एक पारिवारिक व्यक्ति के रूप में उभरते हैं…
श्याम बेनेगल: अधिकांश प्रमुख राजनेताओं के विपरीत, मुजीबुर्रहमान का पारिवारिक जीवन खुशहाल था। उदाहरण के लिए, नेहरू ने बहुत कम उम्र में अपनी पत्नी को खो दिया, और वे अधिकतर समय जेल में रहे, इसलिए उन्हें अपने परिवार के साथ ज्यादा समय नहीं मिला। गांधी पर भी अपने परिवार की उपेक्षा का आरोप लगाया गया था। उनके सबसे बड़े बेटे ने उनसे यह बात खुलकर कही थी। अधिकांश महान लोग, जो किसी उच्च आदर्श के प्रति समर्पित होते हैं, अपने पारिवारिक जीवन से कट जाते हैं। लेकिन मुजीबुर्रहमान का मामला अलग था। वे अपनी पत्नी के बहुत करीब थे और एक सुखी पारिवारिक जीवन जीते थे, भले ही वे कई बार जेल गए हों, नेहरू और गांधी की तरह।
साथ ही फ़िल्म में मुजीब के राजनीतिक जीवन की कोई आलोचना नहीं की गई है, जबकि उनकी हत्या से पहले उन्होंने समस्त शक्तियां अपने हाथों में ले ली थीं।
श्याम बेनेगल: हर नायक में एक tragic flaw (त्रासद दोष) होता है। शेक्सपियर के नाटकों में भी यही तत्व देखने को मिलता है। मुजीब के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब आप सत्ता में होते हैं, तो यह आपको जनता से दूर कर सकती है। जब आपको अपनी जान का खतरा महसूस होता है, तो आप खुद को घेरे में ले लेते हैं। यह आपकी जनता की वास्तविक भावनाओं को समझने की क्षमता को कमजोर कर सकता है। आपके आसपास के लोग भी ऐसी बातें कहने से बचते हैं, जिससे आप नाराज़ हो सकते हैं। यह बहुत सामान्य बात है, और ऐसा हर बड़े नेता के साथ होता है।
सत्तर के दशक में आपने 'अंकुर', 'निशांत', 'मंथन' जैसी फिल्में बनाई, फिर 'मम्मो', 'सरदारी बेगम', 'जुबैदा' जैसी फिल्में आईं। आपने बायोपिक भी निर्देशित की हैं। इस विविधता का आपके लिए क्या अर्थ है?
श्याम बेनेगल: हर फिल्म एक सीखने की प्रक्रिया होती है। फिल्म बनाना अपने आसपास, अपने लोगों, अपने देश को बेहतर समझने की प्रक्रिया है। यह खुद को शिक्षित करने का एक तरीका है।
आपकी कई फिल्में सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित रही हैं। आपने एक बार कहा था कि सिनेमा समाज को बदल नहीं सकता, लेकिन यह बदलाव का माध्यम जरूर बन सकता है। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं?
श्याम बेनेगल: बिल्कुल! फिल्में आपको एक दृष्टिकोण देती हैं। सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं है; यह आपको अपने इतिहास, अपने समाज और अपने परिवेश को समझने में मदद करता है।
आप संसद सदस्य भी रहे हैं। आज समाज में हिंसा और संघर्ष बढ़ रहे हैं। सिनेमा की भूमिका पर आप क्या सोचते हैं? उदाहरण के लिए, हाल ही में आई फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' काफी विवादित रही...
श्याम बेनेगल: यही समस्या है। फिल्मों का लोगों के सोचने के तरीके पर बहुत प्रभाव पड़ता है। मैंने 'द कश्मीर फाइल्स' नहीं देखी, लेकिन मैंने इसके बारे में सुना है। जब आप फिल्म बनाते हैं, तो आपकी एक ज़िम्मेदारी इतिहास के प्रति भी होती है। जितना अधिक प्रोपेगेंडा आपकी फिल्म में होगा, उसका उतना ही कम महत्व होगा। तथ्य यह है कि आप फिल्मों को प्रोपेगेंडा के रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन जब आप इतिहास पर आधारित फीचर फिल्म बनाते हैं, तो उसमें वस्तुनिष्ठता होनी चाहिए। बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म प्रोपेगेंडा बन जाती है।
आपने समानांतर सिनेमा के माध्यम से कई अच्छे कलाकारों को बॉलीवुड में लाने में मदद की। शबाना आज़मी ने कहा था कि आप 'अनिच्छुक गुरु' (Reluctant Guru) थे! ऐसा क्यों?
श्याम बेनेगल: शबाना एक प्रशिक्षित अभिनेत्री थीं। मुझे खुशी होती है कि वे ऐसा सोचती हैं, लेकिन वास्तव में, उन्हें उनके अभिनय कौशल और सही अवसरों के कारण सफलता मिली। उस वक्त ऐसे किरदार थे जिसके लिए मैंने उन्हें उपयुक्त पाया। 'अंकुर', 'निशांत', 'मंडी
आज के सिनेमा के बारे में आप क्या सोचते हैं?.
श्याम बेनेगल: सिनेमा बहुत बदल गया है। पहले लोग थिएटर में फिल्में देखने जाते थे, आज जरूरी नहीं कि आप सिनेमा देखने थिएटर में ही जाएं। ऐसा इसलिए कि पूरा पैटर्न बदल गया है। टेलीविजन के फैलाव से ज्यादातर लोग अब टीवी पर ही फिल्म देखते हैं। और ओटीटी प्लेटफॉर्म के आने से सिनेमा की जगह एक वैकल्पिक मंच ने ले ली है। आपको विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार समायोजन करना पड़ता है। जब आप कोई फ़िल्म बनाते हैं, तो आप उसे बड़े पर्दे पर सिनेमा हॉल में देखना चाहते हैं। लेकिन आज बहुत कम फ़िल्में सिनेमा हॉल में देखी जाती हैं। संभवतः आप इसे टेलीविजन पर देखेंगे। इससे फिल्म निर्माण के तरीके भी बदल रहे हैं।
तो आपको क्या लगता है, सिनेमा का भविष्य क्या होगा?
श्याम बेनेगल: सिनेमा का भविष्य है, लेकिन यह वही नहीं होगा जैसा हमने सोचा था। तकनीक और इतिहास दोनों मिलकर सिनेमा को आकार देते हैं। सिनेमा का रूप भी स्वयं बदल जाता है। जिस तरह से हम फिल्में देखते हैं, वह भी तय करेगा कि भविष्य में फिल्में कैसे बनाई जाएंगी।
(हंस, अप्रैस 2025, पेज 97-99)