एक पत्रकार के नोट्स
Sunday, August 24, 2025
Sunday, August 17, 2025
Monday, August 11, 2025
दृश्य है मगध की संस्कृति यहां
प्रवासी होने की पीड़ा है कि आप घर में रह कर बेघर होते हैं. पिछले दस सालों में पटना जब भी आया महज दो-चार घंटे के लिए. इन वर्षों में बिहार संग्रहालय देखने की उत्कट चाह रही.
बिहार म्यूजियम बिनाले 2025 ने मुझे यह अवसर दिया. असल में दस सालों में बिहार संग्रहालय ने देश और दुनिया में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है.
मुझे पेरिस, लंदन, पर्थ, लिंज, वियना, म्यूनिख, शंघाई आदि शहरों के संग्रहालयों को देखने का मौका मिला है. अपने सीमित अनुभव के आधार पर मैं कह सकता है बिहार संग्रहालय विश्व स्तरीय है. हैदराबाद से बिनाले में भाग लेने आए संस्कृतिकर्मी सी वी एल श्रीनिवास ने मुझसे कहा कि ‘सच पूछिए तो देश में भी ऐसा कोई संग्रहालय नहीं है.’
वास्तुशिल्प, परिकल्पना, खुले स्पेस, कला दीर्घाओं के संयोजन में बिहार संग्रहालय का कोई जोर नहीं. बिहार की प्राचीन सभ्यता और कला-संस्कृति के साथ-साथ आधुनिक कला-संस्कृति का यह घर वास्तव में एक ‘ग्लोबल विलेज’ है.
आश्चर्य नहीं कि इस बिनाले (जिसका आयोजन हर दो साल पर हो) की परिकल्पना के केंद्र में ‘ग्लोबल साउथ: इतिहास की साझेदारी’ है.
संग्रहालय में विभिन्न भाव-भंगिमाओं में बुद्ध, सम्राट अशोक के शासन काल के दौरान बनाए गए दीदारगंज की बहुचर्चित यक्षी की प्रतिमा आदि कला प्रेमियों को आकर्षित करता है.
कवि श्रीकांत वर्मा ने अपनी बहुचर्चित मगध कविता में लिखा है: 'वह दिखाई पड़ा मगध, लो, वह अदृश्य'. यहां मगध की सांस्कृतिक विरासत इतिहास के पन्नों से निकल कर अपनी कहानी खुद बयान करती है. साथ ही क्षेत्रीय और लोक कलाओं का दीर्घा भारत की बहुस्तरीय रचनात्मकता और आधुनिक भाव बोध को दर्शाता है.
मगध बौद्ध सभ्यता का केंद्र था और मिथिला वैदिक सभ्यता का. आधुनिक भारत में मिथिला कला अपनी लोक तत्वों के अनूठेपन के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान बना चुकी है. समकालीन कला के साथ-साथ मिथिला लोक कला को जगह देकर यह संग्रहालय अपने वृहद दृष्टि का परिचय देता है. यहाँ पर यह नोट करना उचित होगा कि जापान स्थित मिथिला म्यूजियम में मिथिला कला की मूर्धन्य कलाकारों मसलन, गंगा देवी, सीता देवी गोदावरी दत्त, बौआ देवी आदि की पेंटिंग संग्रहित है. क्या ही अच्छा हो कि बिहार म्यूजियम उसे देश में लाने की पहल करे!
बहरहाल, यह बिनाले सिर्फ कला-संस्कृति के प्रदर्शनी तक सीमित नहीं है, जो कि हर बिनाले का मूल तत्व रहता आया है. जैसा कि आयोजन के कर्ता-धर्ता कहते हैं, ‘यह बिनाले पूरी तरह संग्रहालय केंद्रित है जो वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक संस्थाओं की बुनियादी संरचना को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास करता है.’ सेमिनार के दौरान हुए संवाद में वक्ताओं ने ग्लोबल साउथ के देशों के बीच आपसी अनुभवों की साझेदारी और एकजुटता पर जोर दिया.
पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के विकसित देशों की तरफ से भूमंडलीकरण पर जिस तरह से सवाल उठाए जा रह हैं और भू-राजनीति तेजी बदल रही है ‘ग्लोबल साउथ’ के देशों के बीच न सिर्फ राजनीति बल्कि कला-संस्कृति को लेकर समन्वय और सामंजस्य समय की मांग है.
इस बिनाले में विभिन्न सभ्यताओं में मुखौटे की अवस्थिति को लेकर बेहद दिलचस्प दीर्घा सजाई गई है. मुखौटे की उत्पत्ति को लेकर कलाकारों में सहमति नहीं है, पर भारत की बात करें तो हड़प्पाकालीन सभ्यता में भी टेराकोटा के मुखौटे मिलते हैं. प्रदर्शनी में चिरांद, बिहार में मिले पहली-दूसरी शताब्दी के टेराकोटा मास्क शामिल है. मास्क के बारे में रेखांकित किया गया है कि ‘यह आदमकद मास्क भारत की प्राचीन मास्कों में से एक है.’ मुखौटे का इस्तेमाल झाड़-फूंक, जादू-टोने, रीति-रिवाज , अनुष्ठान, अभिनय आदि में सदियों से चला आता रहा है और आज भी कायम है. आधुनिक कलाकारों, मसलन, सचिंद्रनाथ झा की ‘गंगा घाट (मास्क)’ नाम से कलाकृति परंपरा और आधुनिकता के बीच एक पुल की तरह दिखाई देती है. असल में मुखौटा जितना छिपता है उससे ज्यादा कहीं उजागर करता है. मुखौटा एक रूपक है!
साथ ही प्रदर्शनी में भारत के अलावे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की सभ्यता-संस्कृति में रामकथा की उपस्थिति को लेकर ‘विश्वरूप राम: रामायण की सार्वभौमिक विरासत’ नाम से एक अलग दीर्घा है. इंडोनेशिया की चर्चित छाया कठपुतली में ‘वायांग क्लितिक’ में राम की नृत्यकारी मुद्राएँ हैं. भारतीय कथा में पुरुषोत्तम राम को धीरोदात्त नायक के रूप में ही चित्रित किया जाता रहा है, राम की यह मुद्रा अह्लादकारी है!
वर्तमान में उत्तर औपनिवेशिक देशों में ज्ञान के उत्पादन के क्षेत्र में विउपनिवेशीकरण पर जोर है. बिनाले में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देश भाग ले रहे हैं जिनका इतिहास उपनिवेशवाद से संघर्ष का रहा है. इंडोनेशिया के अलावे श्रीलंका, कजाख्स्तान, इथोपिया, मैक्सिको, अर्जेंटीना, इक्वाडोर, पेरु और वेनेजुएला के साथ देश के तीन संस्थान- नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और मेहरानगढ़ म्यूजियम आयोजन में शामिल है.
प्राचीन काल में बिहार की एक पहचान ज्ञान के केंद्र की रही है. बिहार म्यूजियम बिनाले का तीसरा संस्करण साल के आखिर तक संस्कृतियों के मेल-जोल और वाद-विवाद-संवाद का मंच बना रहेगा. विश्वविद्यालय की चाहरदिवारी से बाहर कला-संस्कृति में आम लोगों की यहां हिस्सेदारी सुखद है.
(एनडीटीवी के लिए)
Monday, August 04, 2025
गुजिश्ता खुशबुओं के दिन: कैफी और मैं
पुणे में व्यावसायिक मराठी रंगमंच काफी संवृद्ध है, वहीं हिंदी और अंग्रेजी नाटकों का भी एक अलग दर्शक वर्ग है.
पिछले दिनों चर्चित अदाकार नसीरुद्दीन शाह अपना नाटक ‘द फादर’ लेकर आए थे, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा. वहीं रविवार को पुणे के रंगमंच पर मशहूर अदाकारा शबाना आजमी दिखाई थी. खचाखच भरे सभागार में दर्शकों का उत्साह देखते बना.
असल में, रमेश तलवार निर्देशित बहुचर्चित नाटक ‘कैफी और मैं’ में शबाना आजमी एक बार फिर से दर्शकों से रू-ब-रू थी. यह नाटक अपने बीसवें साल में है. अगले महीने वे पचहत्तर वर्ष की हो जाएँगी, ऐसे में रंगमंच पर उनकी सक्रियता थिएटर को लेकर उनके जुनून को दिखाता है.
संस्कृतिकर्मी और अदाकार शौकत आजमी की आपबीती ‘याद की रहगुजर’ और कैफी आजमी के साक्षात्कारों, खतो-किताबत को यह नाटक समेटे है जिसे जावेद अख्तर ने बुना है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है शौकत के नजरिए से कैफी और उनके संबंधों, कैफी की शायरी, उनके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार यहाँ दिखाई देते हैं.
शौकत की भूमिका में शबाना आजमी और कैफी की भूमिका में कंवलजीत सिंह मंच पर थे. पर ऐसा नहीं कि यह नाटक केवल दो तरक्कीपसंद लोगों के आपसी प्रेम संबंधों का दस्तावेज बन कर रह गया है, बल्कि इसके मार्फत मानवीय मूल्यों, सहजीवन और आजाद भारत के सपनों की अभिव्यक्ति भी यहाँ मिलती है. एक ऐसे दौर को हम जीते हैं, जो अतीत का पन्ना हो चला है. हमारे हिस्से महज खुशबू रह गई है!
कैफी की जीवन यात्रा के कई रंग हैं. वे उर्दू के प्रगतिशील धारा के प्रमुख शायर रहे और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अग्रणी स्वर. वहीं हिंदी सिनेमा के लिए उन्होंने जी गीत रचे, वे हमारी थाती हैं. आश्चर्य नहीं मंच पर उनके लिखे गीतों के टुकड़ों को जसविंदर सिंह ने गाया और दर्शक उनसे पूरा गाने की फरमाइश करते रहे.
चर्चित अदाकार जोहरा सहगल ने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के शुरुआती दिनों को याद करते हुए लिखा है कि हर एक कलाकार जो बंबई (मुंबई) में 1940 और 1950 के बीच रह रहा था, वह किसी न किसी रूप में इप्टा से जुड़ा था. गीत-संगीत, नृत्य, नाटक के जरिए मौजूदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत और फासीवाद से लड़ने के लिए इप्टा का गठन किया गया था, जिसके केंद्र में मेहनतकश जनता की संस्कृति थी. कैफी के साथ शौकत भी इप्टा से एक अदाकार के रूप में जुड़ी थी. देश विभाजन को आधार बना कर बनी फिल्म ‘गर्म हवा’ (1974) में उनका अभिनय आज भी याद किया जाता है.
सज्जाद जहीर, चेतन आनंद, के ए अब्बास, सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई, मजरूह सुल्तानपुरी, दीना पाठक, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, कृष्ण चंदर जैसे उर्दू-हिंदी साहित्य के कद्दावर नाम इस नाटक में लिपटे चले आते हैं. इस तरह से यह नाटक साहित्य-सिनेमा के एक सुनहरे दौर का वृत्तांत भी रचता है.
इस साल गुरुदत्त की जन्मशती मनाई जा रही है. ‘कागज के फूल’ के लिए कैफी आजमी के लिखे गीत- ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ और ‘बिछड़े सभी बारी बारी’ को समीक्षकों ने रेखांकित किया. जहाँ ये गीत लोगों की जबान पर बस गए, वहीं फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई. उन्हें सफलता मिली चेतन आनंद की फिल्म ‘हकीकत’ के लिखे गानों के साथ, जो बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही और चेतन आनंद-मदन मोहन-कैफी आज़मी की जोड़ी चल निकली.
कैफी ने पहली नज्म महज ग्यारह साल की उम्र में पढ़ी थी. मुंबई आने से पहले ही उनकी प्रसिद्धि ‘औरत’ नज्म (उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे...) से फैल चुकी थी. इसी नज्म को सुन कर शौकत ने ठान लिया था कैफी ही उनके जीवन साथी बनेंगे और उन्होंने उनके साथ बंबई के एक 'होल टाइमर कम्युनिस्ट' के साथ ‘कम्यून’ में रहने का फैसला किया.
जब कैफी समाज के हाशिए पर रहने वालों के साथ काम कर रहे थे तभी उन्होंने ‘मकान’ नज्म लिखा था. जब मंच से कैफी के इन नज्म से इन ‘पंक्तियों का पाठ किया गया: आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है/आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी/सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी, तब लगा कि किस तरह उनकी कविता समकालीन है. कैफी जैसा रचनाकार समय-सीमा के परे है.
इन नाटक के लिए मंच पर बेहद कम साजो-सामान का इस्तेमाल किया गया. फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'तुम्हारी अमृता' नाटक में हमने शबाना को देखा है. इस नाटक में अमृता और जुल्फी के बीच प्रेम प्रसंग को खतों के माध्यम से संवेदनशील और मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है. ठीक वही शैली इस नाटक में भी अपनाई गई है. जहाँ शौकत के किरदार में शबाना ने प्रभावित किया वहीं ऐसा लगा कि कंवलजीत कैफी ने किरदार के लिए तैयारी करके नहीं आए थे. कई बार संवाद अदायगी में वे फिसले. वे रसास्वादन में बाधा बन कर सामने आया. उल्लेखनीय है कि कैफी के किरदार को जावेद अख्तर निभाते रहे हैं, हमने उन्हें मिस किया.
आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव में जन्मे कैफी आजमी भले गाँव से वर्षों से दूर रहे, पर उनकी शायरी में गाँव-जवार रचा-बसा रहा. वर्षों बाद वे गाँव लौटे और शौकत के साथ मिल कर घर बनाया, बच्चों के लिए स्कूल, सड़क और अन्य सुविधाओं के लिए लड़ाई लड़ी थी.
याद आया कि पाँच साल पहले ‘मी रक्सम’ फिल्म कैफी के पुत्र बाबा आजमी से निर्देशित किया और शबाना आजमी ने प्रस्तुत किया था. इस फिल्म में निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार के जीवन और संघर्ष का चित्रण है. ‘मी रक्सम’ फिल्म आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव के आस-पास अवस्थित है. मिजवां के दृश्य मोहक हैं. बकौल बाबा आजमी एक बार कैफी आजमी ने उनसे पूछा था कि ‘क्या तुम कोई फिल्म मिजवां में शूट कर सकते हो?’
फिल्म की तरह ही यह नाटक मशहूर शायर, नग्मा-निगार और मानवीय मूल्यों को लेकर प्रतिबद्ध कैफी के प्रति श्रद्धांजलि है.
(एनडीटीवी के लिए)
Sunday, August 03, 2025
संघर्ष से उपजी कला
मिथिला चित्र शैली अपने अनोखेपन और बारीकी के लिए देश-दुनिया में प्रतिष्ठित है और कला जगत में खास महत्व रखती है. पिछले दशक में एक बार फिर से देश-दुनिया इस कला की काफी चर्चा हो रही है और कई कलाकार पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हुए हैं. विषयों की विविधता, जीवन-जगत और लोक के संघर्ष का चित्रण इस पारंपरिक कला को समकालीन बनाता रहा है.
वर्ष 1934 में मिथिला क्षेत्र में आए भीषण भूकंप के दौरान ब्रिटिश अधिकारी डब्लू जी आर्चर ने इस लोक कला को देखा-परखा. वे मधुबनी में अनुमंडल पदाधिकारी थे. राहत और बचाव कार्य के दौरान उनकी नज़र क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी. मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया. फिर जब उन्होंने वर्ष 1949 में ‘मैथिल पेंटिंग’ नाम से प्रतिष्ठित ‘मार्ग’ पत्रिका में लेख लिखा तब दुनिया की नजर इस लोक कला पर पड़ी थी.
इस कला को लेकर नौ लोगों को अब तक पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, लेकिन इन ग्रामीण महिलाओं के जीवन-वृत्त, संघर्षों के बारे में हिंदी में अभी भी स्तरीय पुस्तकों का अभाव रहा है. कलाप्रेमी और लेखक अशोक कुमार सिन्हा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक-‘आंसुओं के साथ रंगों का सफर’ इस कमी को पूरा करती है. वे इस किताब के बारे में लिखते हैं: “मिथिला पेंटिंग के कुल 25 महिला कलाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के अभिलेखीकरण का प्रयास किया है. पुस्तक में उनके दुख और संघर्ष साथ-साथ उनके सपनों की उड़ान भी है.” जैसा कि स्पष्ट है किताब में जगदंबा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी, गोदवरी दत्ता, दुलारी देवी, शांति देवी जैसे सिद्ध कलाकारो के अलावे कई जैसे कलाकारों के जीवनवृत्त और उनकी कला का ब्यौरा दिया गया है जिससे कला जगत अपरिचित है. इस लिहाज से इस किताब का महत्व बढ़ जाता है.
वर्ष 2011 में जब महासुंदरी देवी को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई तब मैं उनसे मिलने उनके गांव रांटी गया था. उन्होंने मुझे कहा था: “1961-62 में भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा. कागज वे खुद लेकर आए थे. करीब एक वर्ष बाद वे इसे लेकर गए और मुझे 40 रुपए प्रोत्साहन के रूप में दे गए.” समय के साथ मिथिला कला में पुरुषों और दलित कलाकराों का दखल बढ़ा है. नए-नए समकालीन विषय इसमें जुड़ते गए हैं. शिक्षा के प्रसार से युवा कलाकारों की दृष्टि संवृद्ध हुई है. मिथिला पेंटिंग को 'कोहबर' की चाहरदिवारी से बाहर निकाल कर देश-दुनिया में प्रतिष्ठित करने में इनका काफी योगदान है.
समीक्षक: अरविंद दास
किताब: आंसुओं के साथ रंगों का सफर
प्रकाशक: क्राफ्ट चौपाल
कीमत: 500 रुपए
Sunday, July 13, 2025
आपातकाल और एक फिल्म की याद
पिछले दिनों आपातकाल (1975-77) के पचास वर्ष पूरे हुए. इस दौरान नागरिक अधिकारों के हनन, मीडिया पर सेंसरशिप और सत्ता के अलोकतांत्रिक रवैए को लोगों ने याद किया.
Wednesday, June 25, 2025
Digital Convergence and Disruption in Hindi Media
Digital Convergence in Media:
- doi.org/10.5771/9783748954286-387
- ISBN print: 978-3-7560-3086-6
- ISBN online: 978-3-7489-5428-6