Sunday, June 01, 2025

महेश एलकुंचवार की रंग यात्रा


पचासी वर्षीय मराठी के चर्चित नाटककार महेश एलकुंचवार ने विजय तेंदुलकर (1928-2008) और सतीश आलेकर के साथ मिलकर मराठी रंगकर्म को नई रंगभाषा और मुहावरे दिए हैं. यदि इन तीनों नाटककारों की तुलना पारसी रंगमंच के राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब और आगा हश्र कश्मीरी से की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. इन नाटककारों ने पारंपरिक, महाकाव्य को आधार बना कर किए जाने वाले म्यूजिकल नाटकों से अलग सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से मराठी रंगकर्म को जोड़ा. जिसका असर भारतीय रंगमंच पर गहरा पड़ा.

पिछले दिनों पुणे और मुंबई में एलकुंचवार के लिखे आत्मकथा (ऑटोबायोग्राफी) नाटक का मंचन लिलेट दुबे के निर्देशन में हुआ. इस नाटक के केंद्र में मराठी का एक लेखक है. एक लेखक की आत्मकथा के बहाने मानवीय संबंधों, सुरक्षा, स्त्री स्वतंत्रता और लेखकीय दुचित्तापन को बखूबी यह नाटक हमारे सामने लाता है. अंग्रेजी में इस बहुआयामी और सशक्त नाटक को मंच पर लिलेट दुबे, डेंजिल स्मिथ जैसे सिद्ध कलाकार लेकर आए. उन्हें सुचित्रा पिल्लई और सारा हाश्मी का भरपूर सहयोग मिला.

महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में जन्मे एलकुंचवार के नाटकों का हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला समेत कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. पिछले साल दिल्ली में हुए भारत रंग महोत्सव के दौरान अनिरुद्ध खुटवड के निर्देशन में मैंने इनका लिखा बहुचर्चित नाटक 'विरासत (वाडा चिरेबंदी, 1987)' नाटक देखा था. आजादी के बाद विदर्भ इलाके के सामंती परिवेश में संयुक्त परिवार के विघटन को केंद्र में रख कर लिखा नाटक आज भी उद्वेलित करता है.

हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने उनके लिखे नाटक ‘पार्टी’ (1981) का मंचन किया. उल्लेखनीय है कि गोविंद निहलानी ने नाटक को आधार बना कर इसी नाम से फिल्म भी निर्देशित किया है, जो आज भी लेखकीय समाज और बुद्धिजीवियों की निर्मम आलोचना के लिए याद की जाती है.

भारतीय रंगमंच के नामी निर्देशकों, जैसे इब्राहिम अल्काजी, सत्यदेव दुबे, विजया मेहता, डॉ श्रीराम लागू आदि ने विभिन्न समय पर एलकुंचवार के नाटकों को निर्देशित किया. साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों से सम्मानित एलकुंचवार ने साठ साल के लेखन कर्म के दौरान ने बीस से ज्यादा नाटकों की रचना की है.

एलकुंचवार के नाटकों की विशेषता उनके प्रयोगात्मक शैली में है. सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाते हुए इन नाटकों में भाषा की मितव्ययिता अलग से रेखांकित की जाती रही है. अल्पविराम, मौन भी यहाँ मुखर होकर बोलता है. इनके किरदार किसी ओढ़ी हुई भाषा में संवाद नहीं करते हैं! मैंने जब उनके लेखन पर पड़े प्रभाव के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ‘हर रचनाकार जिसे मैंने पढ़ा है, उसका प्रभाव मेरे लेखन पर है.’ तेंदुलकर और विजया मेहता के साथ उनके संबंध काफी गहरे रहे.

एलकुंचवार ने कई बार कहा है कि जब उन्होंने विजय तेंदुलकर के लिखे नाटक ‘मी जिंकलो, मी हरलो’ देखा तब नाटक लिखने की इच्छा जागी. वर्ष 1970 में उनका लिखा सुल्तान (एकांकी) मराठी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सत्यकथा’ में छपा, जिस पर विजया मेहता की नजर गई और उन्होंने इसे प्रोड्यूस किया. मैंने पूछा कि आप अपनी कला यात्रा को कैसे देखते हैं, उन्होंने कहा कि 'मैं अभी भी लिख रहा हूँ, पीछे मुड़ कर क्यों देखूं?'.

Sunday, May 11, 2025

करुणा के चितेरे शाजी करुण


कुछ वर्ष पहले कन्नड़ सिनेमा के निर्देशक और समांतर सिनेमा के चर्चित फिल्मकार गिरीश कासारवल्ली से जब मैंने कान फिल्म समारोह में दिखाए जाने वाली फिल्मों के बाबत सवाल पूछा तब उन्होंने ‘पिरवी (द बर्थ 1989)’ फिल्म का नाम लिया था.


इस फिल्म के निर्देशक शाजी एन करुण (1952-2025) हैं, जिनका पिछले दिनों निधन हो गया. पुणे के फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित करुण की फिल्मी यात्रा एक सिनेमैटोग्राफर के रूप में शुरू हुई और जी अरविंदन के वे प्रमुख सहयोगी रहे. उल्लेखनीय है कि मलयालम न्यू वेब फिल्मकारों में अडूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, के जी जॉर्ज प्रमुख फिल्मकार रहे हैं.

समातंर सिनेमा के लिए 70 और 80 का दशक काफी मुफीद रहा था, जिसने विभिन्न भारतीय भाषाओं में हमें उत्कृष्ट फिल्में दिया. 80 के दशक के बाद यह धारा हालांकि कमजोर पड़ गई, पर कुछ फिल्मकारों की सिनेमा को एक कला माध्यम के रूप मे देखने-परखने की प्रतिबद्धता में कमी नहीं आई.

‘पिरवी’ फिल्म के साथ शाजी करुण ने एक निर्देशक के रूप में समांतर धारा के मलयालम चित्रपट पर सशक्त हस्तक्षेप किया था. पिछली सदी में आपातकाल के दौरान एक बेटे के कॉलेज हॉस्टल से लापता होने और एक पिता की अंतहीन प्रतीक्षा को जिस कलात्मक संवेदनशीलता से उन्होंने परदे पर चित्रित किया है वह मार्मिक है. केरल का मानसून इस फिल्म में मानो एक पिता (प्रेमजी) की वेदना का रूपक है. इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले और कान समारोह के दौरान ‘कैमरा द ओर’ में फिल्म की खास तौर पर सराहना हुई थी. बिना किसी शोर के यह फिल्म मानवीय दुख और संत्रास को हमारे सामने लाती है और राजनीतिक-ऐतिहासिक विफलता को पूरी शिद्दत से रेखांकित करती है. पिता के किरदार में प्रेमजी की भावपूर्ण और ढूंढती आँखें फिल्म देखने वालों को देर तक कचोटती है.

पूरे करियर में हालांकि करुण ने बहुत कम फिल्में ही निर्देशित की, लेकिन ये फिल्में उन्हें विश्व सिनेमा के मंजे निर्देशकों की श्रेणी ला कर खड़ा करती हैं. कान फिल्म समारोह में उनकी दो अन्य फिल्में ‘सोहम (1994)’ और ‘वानप्रस्थम (1999)’ भी दिखाई गई थीं. प्रसंगवश, उनकी फिल्मोग्राफी में हिंदी में बनी ‘निषाद (2002)’ भी शामिल है.

स्थानीय भाषा और संस्कृति की भूमि पर खड़ी होकर उनकी फिल्में सही मायनों में भूमंडलीय है. बहरहाल, यहाँ पर हम अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित एक अन्य फिल्म ‘वानप्रस्थम’ की चर्चा करते हैं. यह फिल्म कथकली के एक कलाकार कुंजिकुट्टन के बहाने आजाद भारत में कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सामाजिक (अ)स्वीकृति, तथाकथित निम्न जाति और उच्च जाति के बीच प्रेम, यथार्थ और मिथक के बीच कुशलता से आवाजाही करती है.

इस फिल्म का मुख्य स्वर करुणा है. एक तिस्कृत बालक और पिता के रूप में मोहन लाल (कुंजिकुट्टन) ने जिस सहजता और मार्मिकता से किरदार को निभाया है वह सबके बस की बात नहीं थी. एक कलाकार की त्रासदी हमें मंथती रहती है. करुण की फिल्मों का कथा-वृत्तांत जहाँ बांध कर रखता है वही, ध्वनि, कैमरा, संपादन और संगीत अलग से उल्लेखनीय है. करुण की फिल्में विश्व सिनेमा की धरोहर है, तो इसका कारण यही है. 

Sunday, April 27, 2025

'स्वांग' की राजनीतिक चेतना


'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत नाटकों के चयन में विषय-वस्तु को लेकर पर्याप्त विविधता दिखाई देती रही है. पिछले दशक में यह नाट्य महोत्सव रंगकर्मियों के बीच अपना एक मुकाम हासिल किया है. पिछले दिनों दिल्ली में हुए इस नाट्य समारोह में एक तरफ रामायण के मिथक को आधार बना कर ‘दशानन स्वप्नसिद्धी (कन्नड़)’ जैसे नाटक की प्रस्तुति हुई, वहीं ‘एलजीबीटी प्लस’ समुदाय को केंद्र में रख कर ‘बी-लव्ड’ जैसे आधुनिक नाटक भी देखने को मिले. बहरहाल, इस बार चुने गए दस नाटकों में हिंदी और बुंदेलखंडी में प्रस्तुत नाटक ‘स्वांग: जस की तस’ नाटक अपनी प्रस्तुति को लेकर काफी चर्चा में रहा. इसे बेस्ट डायरेक्टर, साउंड-म्यूजिक, अदाकारी समेत कई पुरस्कार मिले.


जहां सरकारी नाट्य उत्सवों में सत्ता और व्यवस्था की आलोचना, टीका-टिप्पणी गायब होती जा रही है, ‘स्वांग: जस की तस’ नाटक में मुखर रूप से समकालीन राजनीति पर चोट उल्लेखनीय है. ऐसा नहीं कि ऐसे में दर्शकों के मनोरंजन में कोई बाधा पहुँची हो.

चर्चित लेखक विजय दान देथा की कहानी ‘ठाकुर का रूठना’ पर आधारित यह नाटक पारंपरिक ‘स्वांग’ शैली के लोक तत्वों का इस्तेमाल कर समकालीन सामाजिक-राजनीतिक अराजक व्यवस्था को सामने लाती है. नाटक के केंद्र में एक ठाकुर है जो बात-बेबात रूठ जाता है और लोगों पर बिना किसी सोच-विचार के अपना निर्णय थोपता रहता है. उसके काम करने की अराजक शैली से सभी परेशान रहते हैं.

ऐसे ही एक दिन ठाकुर गाँव वालों से कहता है कि जितने भी पानी से भरे कुएँ है उसे रेत से भर दे! गाँव वाले परेशान हाल में ठाकुर की माँ (अभिषेक गौतम) के पास फरियाद लेकर पहुँचते हैं. ठाकुर अम्मा की बात से रूठ कर गाँव छोड़ कर चला जाता है, फिर उसे मनाने की कवायद होती है.

अम्मा की भूमिका में गौतम काफी प्रभावी थे, साथ ही उन्हें नमन मिश्रा (ठाकुर) और पूजा केवट (ठकुराइन) का सहयोग मिला. गौतम को सहयोगी अभिनेता के रूप में उत्कृष्ट भूमिका के लिए पुरस्कृत भी किया गया. स्वांग शैली में गीत-संगीत की प्रमुख भूमिका होती है. इस नाटक में मुख्य कलाकार नमन और पूजा दोनों ही अपने गायन से कथा को आगे ले जाने में कुशल दिखे. वाद्य यंत्रों के साथ मंच पर बैठे संगीतकारों की टोली ने उन्हें भरपूर साथ दिया.

स्वांग की लोक-चेतना सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से जुड़ी होती है. इस नाटक में निर्देशक अक्षय सिंह ठाकुर ने हास्य-व्यंग्य और लोक गीत-संगीत का इस्तेमाल करते हुए इसे बखूबी निभाया है. वे कहते हैं कि ‘स्वांग महज एक लोक नाटक शैली नहीं है, बल्कि ऐसा सशक्त समाजिक औजार भी है जो समुदाय के भीतर जागरूकता फैलाने का काम करती है.’

यह बात अन्य लोक नाट्य शैली नौटंकी, तमाशा, बिदेसिया आदि के बारे में भी सच है. बोलचाल की भाषा और सहज संवाद इन लोक नाट्कों की विशेषता रही है जिसे आधुनिक रंगमंच में प्रशिक्षित कलाकार इस्तेमाल कर रहे हैं. आश्चर्य नहीं कि पिछले वर्षों में दिल्ली जैसे महानगर में भी इस तरह के नाटक दर्शकों को अपनी ओर खींचने में सफल रहे हैं

'I’m Still Writing, Why Should I Look Back', Says Veteran Playwright Mahesh Elkunchwar

 

At 85, one of India’s most influential playwrights remains fiercely committed to his craft. In this rare email interview, he speaks with candour– and brevity – about his plays, influences and enduring belief in the primacy of life over ideology.

The importance of Vijay Tendulkar (1928–2008), Mahesh Elkunchwar and Satish Alekar to modern Marathi theatre is comparable to that of Radhashyam Kathavachak, Narayan Prasad Betab and Agha Hashr Kashmiri to Parsi theatre. They introduced a new idiom that was distinct from the traditional Marathi musicals or epic dramas.

Born in a village in the Vidarbha region in 1939, Mahesh Elkunchwar is one of India’s most influential playwrights, with his plays regularly staged in various languages across the country. Although he never intended to become a playwright, his first one-act play, Sultan (1970), published in the renowned Marathi literary magazine Satyakatha, caught the attention of the doyenne of Marathi theatre, Vijaya Mehta. She later produced his one-act plays with her theatre group ‘Rangayan’. Over time, Elkunchwar’s plays have been directed by veterans of Indian theatre such as Ebrahim Alkazi, Satyadev Dubey, Dr. Shreeram Lagoo, Anuradha Kapur, Aniruddha Khutwad etc.
In a career spanning nearly 60 years, he has written more than 20 plays in Marathi as well as screenplays for films like Party and Holi. His plays have been translated into Bengali, English, Hindi and several other languages.
Elkunchwar has received numerous prestigious awards, including the Sangeet Natak Akademi and Sahitya Akademi awards. His works, which delve into socio-political issues, the human psyche and existential contradictions, continue to be performed to packed houses across the country. Recently, his play Autobiography (Atamkatha) was staged in Pune and Mumbai, while Party was performed at the National School Drama in Delhi.
Now 85, he remarks, “I am a very busy person and also pretty old to get into any discourse.” Yet, his plays – especially Party (1981), which critiques the role of the intellectual/writer in a society like ours – remain highly relevant. Party, also an acclaimed film directed by Govind Nihalani, continues to be watched and discussed by millennials.
Elkunchwar’s plays are known for their bold, individualistic voice and experimentation. His characters don’t speak in borrowed language but in the language of lived experience. His play, Wada Chirebandi (in Hindi translation Virasat), depicting the disintegration of a traditional joint family in a post-independence feudal set up in a village of the Vidarbha region is haunting.
Since the veteran playwright was reluctant to give a voice interview, the following is an entirely unedited interview conducted with him over email.
It indicates his hesitant and impatient nature with questions that sought to draw him out about his plays, influences and creative journey, but which, admittedly, he might have been asked many times before.
The transcript, one might add, almost reads like a script for one of his plays.
Arvind Das: I recently saw your play Autobiography, directed and produced by Lillete Dubey, in Pune. It centres around a writer, Anantrao, but also foregrounds female characters like Uttara and Vasanti. Could you share the creative process behind writing this play? Was the character of Anantrao inspired by real life experiences ?
Mahesh Elkunchwar: I don’t think any writer is able to analyse the creative process behind his work. There are too many agents, some known and some unknown even to the writer, that go into creation of art. No, it’s not based on real life characters.
AD: Autobiography feels quite different from your landmark plays like Wada Chirebandi or Party, which are rich with socio-political critique.
ME: Yes, it is different. But all my plays are different from each other. The content of each play has dictated the form.
AD: Have you ever considered writing an autobiography, like Girish Karnad’s This Life at Play?
ME: No.
AD: I saw Virasat during Bharat Rang Mahotsav in Delhi last year. Despite changes in rural India, audiences still connect deeply with the play. What do you think is the reason behind such universal resonance?
ME: Why did you connect with it? People connect with the play for the same reasons, I guess.
AD: Anuradha Kapur’s six-hour staging of your trilogy (Yuganta) in Delhi in the mid ’90s is still remembered fondly. Do you think it should be condensed for newer audiences?
ME: It depends. Depends on who wants to do it, why and when and where.
AD: There was a six-year gap between Party (1981) and Wada Chirebandi (1987). What creative impulses shaped Wada Chirebandi, and how did it come to life during that period?
ME: I have answered it already. My answer to your first question.
AD: Contemporary Indian theatre seems less focused on rural life and more on urban landscape. What do you have to say on this?

ME: I do not have anything to say on that. I am too cut off from theatre these days.
AD: You’ve often spoken about the play Mi Jinklo, Mi Harlo written by Vijay Tendulkar and directed by Vijaya Mehta. What kind of relationship did you share with them, and how did they influence your writing?
ME: I had a wonderful relationship with them. Talking of influences, one is influenced by a million things in one’s life. It is not just one or two people.
AD: When (what stage) did it become clear in your mind that you want to be a playwright?
ME: Who remembers!
AD: Your work is as poetic and layered – inviting the audience to read between the lines. Who have been your major literary influences?
ME: Every writer that I have read.
AD: Party offers a scathing critique of the urban intellectual elite and celebrates the organic intellectual. How was it received when first staged in the tumultuous period of the 70s, especially among the very circles it critiques?
ME: It was received well, I think. I really do not know. The play was done in Mumbai and I live in Nagpur. Also, the play was done 50 years ago. Who remembers?
AD: Do you feel the play’s relevance has changed – or even deepened – in today’s socio-political climate?
ME: How relevant is any work of art to any society? Not much I think.
AD: How do you view the current state of Marathi theatre ?
ME: I don’t think about it at all. It is very good, they tell me.
AD: Last question, you once wrote: “I may have felt close to certain ideologies at various stages in my life, but I have always been convinced that there is no ideology bigger or greater than life.” How do you now look back on your life and artistic journey?
ME: Why should I look back? I am still writing.

(The Wire)

Sunday, April 13, 2025

प्रतिरोध की कहानी


 इस साल जनवरी के मध्य से इजराइल और फिलिस्तीन के बीच युद्ध विराम जारी हैपर संघर्ष खत्म होने के आसार आसानी से नजर नहीं आ रहे हैं. 7 अक्टूबर 2023 की हमास की चरमपंथी घटना में करीब 1200 इजराइली मारे गए और 251 लोगों को बंधक बना लिया गया था.  युद्धविराम के तहत हमास बंधकों को टुकड़ो मे रिहा करेगा ताकि युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ा जा सके. युद्ध में कम से 48 हजार फिलिस्तीनी हताहत हुए हैं और लाखों बेघर.

 

इजराइल और फिलिस्तीन समस्या के जड़ें काफी गहरी है जो पिछली सदी में वर्ष 1948 में अरब-इजरायल युद्ध के साथ एक नया मोड़ ले लिया. इस युद्ध (नक्बा) में सात लाख पचास हजार फिलिस्तीनी शरणार्थी बना दिए गए. 


मौजूदा इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में फिलिस्तीनजो गायब भी है हाजिर भी पढ़ना रोचक है. हिंदी में अंतरराष्ट्रीय मसलों पर किताबों का सर्वथा अभाव रहा है. अजीजुर रहमान आजमी की यह किताब इस कमी को पूरा करती है. इस किताब में तथ्यों के आधार पर सवाल उठाया गया है कि इजरायल-फिलिस्तीन विवाद आखिरकार आज तक सुलझ क्यों नहीं पाया हैइसके पीछे क्या कारण रहे हैं?  

 

दस अध्यायों में विभाजित इस किताब में फिलिस्तीन के इतिहास और दावे के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं. लेखक ने लिखा है कि “ आज फिलिस्तीन जिसको संयुक्त राष्ट्र ने मान्यता दी है, वह वेस्ट बैंक और गाजा तक फैला भाग है जिसका अधिकांश भाग इजराइल के कब्जे में है और वेस्ट बैंक में अवैध बस्तियाँ बसाने की प्रक्रिया सतत चालू है.

 

भारत इजराइल फिलिस्तीन संघर्ष में दो राज्य की संकल्पना का समर्थन करता रहा है. हालांकि पिछले दशक में भारत के इजरायल के साथ संबंध गहरे हुए हैं. उदारीकरण की नीतियों के आलोक में लेखक ने दोनों देशों के साथ बदलते संबंधों पर प्रकाश डाला है. तथ्यों की रोशनी में लेखक इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष की कहानी तो कहता हैपर विश्लेषण का यहाँ अभाव है. साथ ही अनावश्यक रूप से अध्यायों  में कई सब हेडिंग डाले गए हैं. कुछ जगहों पर तथ्यात्मक भूल भी है जिसे अगले संस्करण में सुधारा जा सकता है.


समीक्षक: अरविंद दास

किताब: फिलिस्तीन: जो गायब भी है हाजिर भी

लेखक: अजीजुर रहमान आजमी

प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन

कीमत; 295 रुपए

Tuesday, April 01, 2025

बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म प्रोपेगेंडा बन जाती है


भारत और बांग्लादेश के सरकार के सहयोग से बनी 'बंगबंधु'  शेख मुजीबुर्रहमान पर आधारित बायोपिक ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ के निर्माण के दौरान (2022) और रिलीज होने के बाद (2023) अरविंद दास ने श्याम बेनेगल से लंबी बातचीत की थी। यह उनकी आखिरी फिल्म थीजिसे भारत और बांग्लादेश में फिल्माया गया था। यह बातचीत अंग्रेजी में हुई थी प्रस्तुत है अनूदित संपादित अंश:


आप पचास साल से फिल्में बना रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी आप हर दिन ऑफिस जाते हैं। क्योंआपको क्या प्रेरित करता है?

श्याम बेनेगल: यह काम है। काम मुझे आगे बढ़ाता है। इस समय मैं शेख मुजीबुर्रहमान पर एक बड़ी फिल्म पूरी कर रहा हूं। यह एक बायोपिक है।

आपने पहले महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस पर फिल्में बनाई हैं। शेख मुजीबुर्रहमान पर बनी यह फिल्म कितनी अलग है?

श्याम बेनेगल: यह एक ऐतिहासिक बायोपिक हैठीक वैसे ही जैसे 'द मेकिंग ऑफ द महात्मा' या 'नेताजी सुभाष चंद्र बोस: द फॉरगॉटन हीरो'। यह हमारे उपमहाद्वीप के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति की कहानी है। शेख मुजीब ने एक नया राष्ट्र—बांग्लादेश—की स्थापना की। उनकी कहानी बहुत रोचक है और वे स्वयं भी एक अद्भुत व्यक्तित्व थे। वे किसी समृद्ध परिवार से नहीं थे। उनका बैकग्राउंड नेहरू या गांधी जैसा नहीं था। नेहरू प्रसिद्ध वकील के बेटे थेगांधी भी एक प्रभावशाली परिवार से आते थे।  सौराष्ट्र के दीवान परिवार से उनका ताल्लुक था। ज्यादातर राजनीतिक व्यक्ति इसी तरह की पृष्ठभूमि से थेलेकिन शेख मुजीब एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार से थे। उनकी पृष्ठभूमि नेहरू या गांधी के जैसी नहीं थी। वे एक कामकाजी शख्स थे। उदाहरण स्वरूप नेहरू एक ऐसी पृष्ठभूमि से आते थे यदि वे सोचते तो उन्हें कोई काम करने की जरूरत नहीं थी. उनके पिता की एक सामाजिक हैसियत थी और बहुत पैसा था। शेख मुजीब के पास बहुत जमीन जायदाद या जमींदारी नहीं थी।

गांधी या सुभाष से अलग बांग्लादेश के जनक पर बायोपिक बनाना कितना चुनौतीपूर्ण था?

श्याम बेनेगल: ओहवास्तव में यह दूसरी फिल्मों की तुलना में आसान था। मुजीब की बेटी शेख हसीना ( जो उस वक्त बांग्लादेश की प्रधानमंत्री थी)से मेरी मुलाकात हुई। मैंने उनके परिवारविशेष रूप से उनके पितामाता और भाइयों के बारे में सुनाजिनकी हत्या कर दी गई थी। यह फिल्म उनके बारे में हैजिससे हमें उनके राजनीतिक और पारिवारिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने का अवसर मिला। हमें उनके निजी संबंधों और भूमिकाओं के माध्यम से जानने का मौका मिलाजो बाहरी लोग शायद नहीं जान पाते।

यह फिल्म एक संयुक्त परियोजना हैक्या आप इसके बारे में कुछ बता सकते हैं?

श्याम बेनेगल: हांयह भारत और बांग्लादेश सरकारों के बीच एक सहयोगी प्रयास है। हाल ही में बांग्लादेश की 50वीं वर्षगांठ और शेख मुजीब की 100वीं जयंती मनाई गई थी। जब हमने फिल्म बनानी शुरू कीतब तक काफी देर हो चुकी थीइसलिए यह उन समारोहों का हिस्सा नहीं बन पाई।

 क्या इस परियोजना को लेकर आप पर किसी प्रकार का दबाव था?

श्याम बेनेगल: बिल्कुल नहीं। वास्तव मेंमुझे यह निर्देश दिया गया था कि आप इस फ़िल्म को अपने दृष्टिकोण और सोच के अनुसार बनाएं। मुझसे कहा गया कि मुझे फिल्म उसी तरह बनाना चाहिए जैसे कोई पात्र [सामान्य रूप से] विकसित होता है। सौभाग्य सेहमारे पास इसे बनाने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी। मुजीब ने बार-बार जेल की सजाओं और कैद के दौरान डायरी में कई नोट्स लिखे थे। वे जवाहरलाल नेहरू की तरह साहित्यिक अभिरुचि रखते थेजिन्होंने जेल में रहते हुए तीन पुस्तकें लिखी थीं।

प्रसिद्ध मलयालम फ़िल्म निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन ने एक बार मुझसे कहा था कि वे हिंदी फ़िल्म का निर्देशन नहीं कर सकतेक्योंकि वे भाषा नहीं समझते और अभिनेताओं का निर्देशन करना उनके लिए कठिन होगा। आपने हमेशा हिंदी/हिंदुस्तानी में फ़िल्में बनाई हैंलेकिन "मुजीब: द मेकिंग ऑफ़ ए नेशन" मूल रूप से बांग्ला में है। क्या आपको अभिनेताओं के निर्देशन में कठिनाई हुई?

श्याम बेनेगल: नहींबिल्कुल नहीं। अलग-अलग लोगों की सोच अलग होती है। मैं बांग्ला नहीं जानतालेकिन मेरे पास बेहतरीन भाषा सलाहकार थे। भारतीय भाषाओं की तरहबांग्ला में भी स्थानीय मुहावरे होते हैं। उदाहरण के लिएपश्चिम बंगाल के बंगाली लोगों की भाषा बांग्लादेश के बंगालियों से अलग हो सकती है। यही बात हिंदी पर भी लागू होती है। एक मुहावरा है कोस-कोस पर बदले पानीचार कोस पर वाणी'। जैसे हैदराबाद में बोली जाने वाली दक्खिनी हिंदी अलग होती है। लोग कहते हैं 'हुसैन सागर का पानी पीता है'। हैदराबाद की दक्खिनी मैसूर से अलग है।

भले ही यह फ़िल्म मुजीबुर्रहमान के संघर्ष और एक राष्ट्र के जन्म की कहानी कहती हैइसका संगीत और गीत विशेष रूप से प्रभावशाली हैं। फिल्म देखते हुए मुझे आपकी म्यूजिकल फिल्में जैसेसरदारी बेगम (1996) और जुबैदा (2001) की याद आता रही इस फ़िल्म के गीतों के बारे में बताइए।

श्याम बेनेगल फ़िल्म में तीन गीत हैं। पहला गीत एक ग्रामीण भटियाली गीत "अबूझ माझी" हैजो बंगाल की समृद्ध भूमि की सुंदरता को दर्शाता है। दूसरा गीत "की की जिनीष एनेछो दुलाल" हैजो शादी का गीत है। और तीसरा गीत एक मर्सिया है—जब कोई महान व्यक्ति गुजर जाता हैतो शोकगीत के रूप में इसे गाया जाता है। यह गीत मुजीब के लिए हैजिसमें सवाल किया गया है—'आप कहां चले गए?'

 "की की जिनीष एनेछो दुलाल"  के बारे में थोड़ा विस्तार से बात करते हैं। यह गीत बांग्ला और हिंदी संस्करणों में अलग है। बांग्ला संस्करण में सीता के सिंदूर और सामासिक संस्कृति की गूंज सुनाई देती है।

श्याम बेनेगल: यह दुल्हन के लिए गाया जाने वाला गीत है। दूल्हा शादी के लिए सिंदूर लाता हैजिसे दुल्हन की मांग में लगाया जाता है। यह एक पारंपरिक गीत हैजो विवाह समारोह से पहले गाया जाता है। हमने इसे हिंदी संस्करण में थोड़ा बदलालेकिन बांग्ला संस्करण में यह पारंपरिक रूप में ही रखा गया। यह बंगाल की परंपरा का हिस्सा है।

बांग्लादेश में इस फ़िल्म को कैसी प्रतिक्रिया मिली?

श्याम बेनेगलफ़िल्म बेहद सफल हो रही है। यह पूरे बांग्लादेश में 170 सिनेमाघरों में प्रदर्शित की गई। चूंकि बांग्लादेश में सिनेमाघरों की संख्या कम हैइसलिए इसे स्कूल हॉल में भी दिखाया जा रहा है। सरकार नए सिनेमाघर बना रही हैऔर यह फ़िल्म जबरदस्त हिट हो चुकी है।


फ़िल्म देखते समय मुझे लगा कि मुजीब के व्यक्तित्व में कोई विरोधाभास या द्वंद्व नहीं दिखाया गया है। वे एक पारिवारिक व्यक्ति के रूप में उभरते हैं…

श्याम बेनेगल: अधिकांश प्रमुख राजनेताओं के विपरीतमुजीबुर्रहमान का पारिवारिक जीवन खुशहाल था। उदाहरण के लिएनेहरू ने बहुत कम उम्र में अपनी पत्नी को खो दियाऔर वे अधिकतर समय जेल में रहेइसलिए उन्हें अपने परिवार के साथ ज्यादा समय नहीं मिला। गांधी पर भी अपने परिवार की उपेक्षा का आरोप लगाया गया था। उनके सबसे बड़े बेटे ने उनसे यह बात खुलकर कही थी। अधिकांश महान लोगजो किसी उच्च आदर्श के प्रति समर्पित होते हैंअपने पारिवारिक जीवन से कट जाते हैं। लेकिन मुजीबुर्रहमान का मामला अलग था। वे अपनी पत्नी के बहुत करीब थे और एक सुखी पारिवारिक जीवन जीते थेभले ही वे कई बार जेल गए होंनेहरू और गांधी की तरह।

साथ ही फ़िल्म में मुजीब के राजनीतिक जीवन की कोई आलोचना नहीं की गई हैजबकि उनकी हत्या से पहले उन्होंने समस्त शक्तियां अपने हाथों में ले ली थीं।

श्याम बेनेगल हर नायक में एक tragic flaw (त्रासद दोष) होता है। शेक्सपियर के नाटकों में भी यही तत्व देखने को मिलता है। मुजीब के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब आप सत्ता में होते हैंतो यह आपको जनता से दूर कर सकती है। जब आपको अपनी जान का खतरा महसूस होता हैतो आप खुद को घेरे में ले लेते हैं। यह आपकी जनता की वास्तविक भावनाओं को समझने की क्षमता को कमजोर कर सकता है। आपके आसपास के लोग भी ऐसी बातें कहने से बचते हैंजिससे आप नाराज़ हो सकते हैं। यह बहुत सामान्य बात हैऔर ऐसा हर बड़े नेता के साथ होता है।

सत्तर के दशक में आपने 'अंकुर', 'निशांत', 'मंथनजैसी फिल्में बनाईफिर 'मम्मो', 'सरदारी बेगम', 'जुबैदाजैसी फिल्में आईं। आपने बायोपिक भी निर्देशित की हैं। इस विविधता का आपके लिए क्या अर्थ है?

श्याम बेनेगल: हर फिल्म एक सीखने की प्रक्रिया होती है। फिल्म बनाना अपने आसपासअपने लोगोंअपने देश को बेहतर समझने की प्रक्रिया है। यह खुद को शिक्षित करने का एक तरीका है।

आपकी कई फिल्में सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित रही हैं। आपने एक बार कहा था कि सिनेमा समाज को बदल नहीं सकतालेकिन यह बदलाव का माध्यम जरूर बन सकता है। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं?

श्याम बेनेगल: बिल्कुल! फिल्में आपको एक दृष्टिकोण देती हैं। सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं हैयह आपको अपने इतिहासअपने समाज और अपने परिवेश को समझने में मदद करता है।

आप संसद सदस्य भी रहे हैं। आज समाज में हिंसा और संघर्ष बढ़ रहे हैं। सिनेमा की भूमिका पर आप क्या सोचते हैंउदाहरण के लिएहाल ही में आई फिल्म 'द कश्मीर फाइल्सकाफी विवादित रही...

श्याम बेनेगल: यही समस्या है। फिल्मों का लोगों के सोचने के तरीके पर बहुत प्रभाव पड़ता है। मैंने 'द कश्मीर फाइल्स' नहीं देखीलेकिन मैंने इसके बारे में सुना है। जब आप फिल्म बनाते हैंतो आपकी एक ज़िम्मेदारी इतिहास के प्रति भी होती है। जितना अधिक प्रोपेगेंडा आपकी फिल्म में होगाउसका उतना ही कम महत्व होगा। तथ्य यह है कि आप फिल्मों को प्रोपेगेंडा के रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैंलेकिन जब आप इतिहास पर आधारित फीचर फिल्म बनाते हैंतो उसमें वस्तुनिष्ठता होनी चाहिए। बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म प्रोपेगेंडा बन जाती है।

आपने समानांतर सिनेमा के माध्यम से कई अच्छे कलाकारों को बॉलीवुड में लाने में मदद की। शबाना आज़मी ने कहा था कि आप 'अनिच्छुक गुरु' (Reluctant Guru) थे! ऐसा क्यों?

श्याम बेनेगल: शबाना एक प्रशिक्षित अभिनेत्री थीं। मुझे खुशी होती है कि वे ऐसा सोचती हैंलेकिन वास्तव मेंउन्हें उनके अभिनय कौशल और सही अवसरों के कारण सफलता मिली।  उस वक्त ऐसे किरदार थे जिसके लिए मैंने उन्हें उपयुक्त पाया। 'अंकुर''निशांत''मंडी' जैसी फिल्मों में उन्होंने शानदार अभिनय किया और सुर्खियां बटोरी। यह उनकी नैसर्गिक प्रतिभा थी। जो भी किरदार उन्होंने परदे पर निभाईउसे अपना बना लिया।

आज के सिनेमा के बारे में आप क्या सोचते हैं?.

श्याम बेनेगल: सिनेमा बहुत बदल गया है। पहले लोग थिएटर में फिल्में देखने जाते थे, आज जरूरी नहीं कि आप सिनेमा देखने थिएटर में ही जाएं। ऐसा इसलिए कि पूरा पैटर्न बदल गया है। टेलीविजन के फैलाव से ज्यादातर लोग अब टीवी पर ही फिल्म देखते हैं। और ओटीटी प्लेटफॉर्म के आने से सिनेमा की जगह एक वैकल्पिक मंच ने ले ली है। आपको विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार समायोजन करना पड़ता है। जब आप कोई फ़िल्म बनाते हैंतो आप उसे बड़े पर्दे पर सिनेमा हॉल में देखना चाहते हैं। लेकिन आज बहुत कम फ़िल्में सिनेमा हॉल में देखी जाती हैं। संभवतः आप इसे टेलीविजन पर देखेंगे। इससे फिल्म निर्माण के तरीके भी बदल रहे हैं।

तो आपको क्या लगता हैसिनेमा का भविष्य क्या होगा?

श्याम बेनेगल: सिनेमा का भविष्य हैलेकिन यह वही नहीं होगा जैसा हमने सोचा था। तकनीक और इतिहास दोनों मिलकर सिनेमा को आकार देते हैं। सिनेमा का रूप भी स्वयं बदल जाता है। जिस तरह से हम फिल्में देखते हैंवह भी तय करेगा कि भविष्य में फिल्में कैसे बनाई जाएंगी।

(हंस, अप्रैस 2025, पेज 97-99)