Wednesday, December 25, 2024

सिनेमा को‌ सामाजिक बदलाव का बड़ा माध्यम मानते थे बेनेगल


श्याम बेनेगल (1934-2024): स्मृति शेष


समांतर सिनेमा आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर श्याम बेनेगल की ख्याति एक फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक और वृत्तचित्र निर्माता के रूप में पूरी दुनिया में थी. पचास वर्षों की अपनी फिल्मी यात्रा में वे जीवनपर्यंत फिल्म निर्माण में सक्रिय रहे.

भारत और बांग्लादेश के सरकार के सहयोग से बनी उनकी आखिरी फिल्म ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ के निर्माण के दौरान और रिलीज होने के बाद मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी. जीवन से भरपूर वे एक कुशल शिक्षक की तरह थे, जिनसे आप सहजता से कोई भी सवाल पूछ सकते हैं. वर्ष 2006 में मैंने उनके साथ ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में मीडिया के ऊपर हुए एक सेमिनार में भाग लिया था. इस सेमिनार में उन्होंने हिंदी फ़िल्मों में विभाजन के चित्रण पर व्याख्यान दिया था.

वे सिनेमा को सामाजिक बदलाव का एक सशक्त माध्यम मानते थे. उन्होंने मुझसे एक बातचीत के दौरान कहा था: 'मेरे लिए प्रत्येक फिल्म का निर्माण सीखने की एक सतत प्रक्रिया है. फिल्म निर्माण के माध्यम से आप अपने आस-पड़ोस, लोगों और देश में बारे में जानते-समझते हैं. फिल्म बनाते हुए आप खुद को शिक्षित करते हैं.' इस वर्ष प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में उनकी चर्चित फिल्म ‘मंथन’ (1976) को क्लासिक खंड में दिखाया गया. बाद में जब देश के चुनिंदा सिनेमा घरों में बड़े परदे पर एक बार फिर से इसे रिलीज किया गया, तब दर्शकों का उत्साह देखते बना. सिनेमा में योगदान के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित बेनेगल की फिल्में पीढ़ियों को आपस में जोड़ती और उनसे संवाद करती है. डेयरी सहकारी आंदोलन के इर्द-गिर्द रची गई इस फिल्म में भारतीय ग्रामीण समाज में जातिगत विभेद उभर कर सामने आता है.

श्याम बेनेगल की फिल्मों का दायरा काफी व्यापक और विविध रहा. उनकी फिल्में ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को समग्रता में समेटती है. आश्चर्य नहीं कि दूरदर्शन के लिए उन्होंने नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ को निर्देशित किया था, जो काफी चर्चित रही थी.

बेनेगल की फिल्मी यात्रा के कई चरण रहे. पिछली सदी के 70 के दशक में ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘भूमिका’ जैसी फिल्में जहाँ सामाजिक यथार्थ और स्त्रियों की स्वतंत्रता के सवाल को समेटती है, वहीं ‘मम्मो’, ‘सरदारी बेगम’, ‘जुबैदा’ जैसी फिल्में मुस्लिम स्त्रियों के जीवन को केंद्र में रखती है. इस बीच उन्होंने जुनून, त्रिकाल जैसी फिल्म भी बनाई जो इतिहास को टटोलती है. फिर बाद में वे ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’, ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस: द फॉरगॉटेन हीरो’ जैसी ऐतिहासिक जीवनीपरक फिल्मों की ओर मुड़े, जिनमें उन्हें महारत हासिल रही. ‘मुजीब’ फिल्म इसी कड़ी में उनकी आखिरी फिल्म रही.

वे जोर देते हुए कहते थे कि ऐतिहासिक विषयों पर आधारित फिल्मों में एक निश्चित मात्रा में वस्तुनिष्ठता का होना जरूरी है. साथ ही वे फिल्मकारों की इतिहास के प्रति जिम्मेदारी पर जोर देते हुए आगाह करते थे कि ‘बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म ‘प्रोपगेंडा’ बन जाती है’. उनका यह कथन वर्तमान समय में राष्ट्रवादी विचारधारा की आड़ में बनने वाली प्रोपेगेंडा फिल्मों के लिए एक सीख की तरह है.

एनएसडी, एफटीआईआई से प्रशिक्षित नए अभिनेताओं के लिए उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ उन्हें प्रतिभा दिखाना का भरपूर मौका मिला. उल्लेखनीय है कि बेनेगल की पहली फिल्म ‘अंकुर (1974) से ही शबाना आजमी ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा था. ‘मंडी’ फिल्म फिल्म में शबाना आजमी, स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, नीना गुप्ता, इला अरुण, अमरीश पुरी, कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकारों को परदे पर एक साथ दिखना किसी आश्चर्य से कम नहीं!

चिदानंद दासगुप्त ने अपने एक लेख में लिखा है: “बेनेगल की ज्यादातर फिल्में एक वस्तुनिष्ठ सत्य सामने लेकर आती है-एक ऐतिहासिक तथ्य, एक दी गई स्थिति, चरित्र या एक वर्ग- जिसे एक व्यवस्था, अनुशासन, क्राफ्ट्समैनशिप से लगभग करीब से रचने की सिनेमा कोशिश करता है. निजी भावपूर्ण फिल्में बनाना उनकी विशेषता नहीं है. इस मायने में वे ऋत्विक घटक से साफ विपरीत हैं, जो बेहद भावपूर्ण थे. इसी के करीब मृणाल सेन हैं, जिनके लिए वस्तुनिष्ठता का कोई मतलब नहीं है. तार्किकता बेनेगल के फिल्म निर्माण को संचालित करती है, जिससे उनकी काल्पनिकता या भावनाएँ मुक्त होने की कभी-कभार ही कोशिश करती है.” बेनेगल की अधिकांश फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल रही. इस मायने में उनकी तुलना मलयालम फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन से ही की जा सकती है, जिनकी कला से सृंवृद्ध फिल्में ‘बाक्स ऑफिस’ पर भी सफल रही. फिल्म निर्माण का उनका तरीका और सौंदर्यबोध समांतर सिनेमा के अन्य चर्चित फिल्मकार मणि कौल, कुमार शहानी आदि से साफ अलग रहा.

नई सदी में तकनीक क्रांति से सिनेमा निर्माण और दृश्य संस्कृति में काफी बदलाव आया है. सिनेमा का क्या भविष्य है, यह पूछने पर बेनेगल ने मुझे कहा था कि सिनेमा का भविष्य तो है, पर आवश्यक नहीं कि हमने जैसा सोचा था वैसा ही हो!’ उन्होंने कहा था कि ‘सिनेमा को गढ़ने में इतिहास और तकनीक दोनों की ही भूमिका होती है. आप किस तरह सिनेमा देखते हैं, वह भी सिनेमा का भविष्य तय करेगा.’ आने वाले समय में सिनेमा चाहे जो रूप अख्तियार करे पर इसमें कोई शक नहीं कि जब तक सिनेमा है, उनकी फिल्में इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर हमारे बीच हमेशा मौजूद रहेगी.

Sunday, December 15, 2024

यथार्थ को नए मुहावरे में रचती फिल्म


पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ इस साल की सबसे चर्चित फिल्मों में रही. एक वजह प्रतिष्ठित कान समारोह में इस फिल्म को ‘ग्रां प्री’ पुरस्कार से नवाजा जाना है. स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए सिनेमा बनाना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है. सच तो यह है कि फिल्म बनाने के बाद उसके वितरण और प्रदर्शन की समस्या फिल्मकारों के लिए हतोत्साहित करने वाली होती है. ऐसे में उम्मीद है कि ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ की सफलता नए वर्ष में स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए एक रोशनी साबित होगी.


पिछले दिनों यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई. निस्संदेह यह फिल्म समकालीन यथार्थ को दृश्य और ध्वनि के नए 'धूसर' मुहावरे में दर्शकों के सामने लाती है. फिल्मकार की दृष्टि, संवेदना और राजनीति यहाँ मुखर है. साथ ही संपादन और सिनेमेटोग्राफी भी उत्कृष्ट है.

मुंबई महानगर में हाशिए पर रहने वाली तीन कामकाजी स्त्रियाँ प्रभा, अनु और पार्वती इस फिल्म के केंद्र में है जो अपने हिस्से की रोशनी की तलाश में है. प्रभा और अनु जहाँ एक अस्पताल में नर्स है वहीं पार्वती उसी अस्पताल में रसोई संभालती है. तीनों स्त्रियों के आपसी संबंध एक वर्ग-चेतन दृष्टि से संचालित हैं. यहाँ पर क्षेत्रीयता और भाषाई राजनीति आड़े नहीं आती है. पहले हिस्से में फिल्म भावनात्मक रूप से जकड़ कर रखती है. प्रभा की भूमिका में कनी कुश्रुति का अभिनय बेहद प्रभावी है. एक लंबे अरसे के बाद परदे पर एक सशक्त स्त्री चरित्र उभर कर आया है.

प्रभा का पति लंबे अरसे से उससे अलग जर्मनी में रहता है. अपने पति से अलग रहते हुए प्रभा का एकाकीपन उसके चेहरे पर एक उदास शाम की तरह पैवस्त है, वहीं अनु सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ती हुई एक अल्हड़ नदी की तरह बहती चलती है और मुस्लिम लड़के से प्रेम करती है. हालांकि प्रेम संबंधों की परिणति के लिए सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं है. पार्वती वर्षों से मुंबई में रह रही है, पर अपने ‘घर’ को बचाने की जद्दोजहद से जूझती है.

मुंबई के फुटपाथ, अंधेरे बंद कमरे, बड़े बिल्डरों से अपने ठौर को बचाने का संघर्ष और दो युवा प्रेमियों के संबंधों के माध्यम से हम समकालीन यथार्थ से रू-ब-रू होते हैं. फिल्म अपनी तरफ से कोई जवाब नहीं देती है, महज कुछ सवाल दर्शकों के लिए छोड़ जाती है.

उल्लेखनीय है कि इससे पहले पायल की डॉक्यूमेंट्री ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ भी कई पुरस्कारों को जीत चुकी है. भारतीय फिल्म टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई), पुणे की स्नातक पायल की इस फिल्म के कुछ दृश्य भी डॉक्यूमेंट्री शैली में रचे गए हैं. दर्शकों को माया नगरी की फंतासी से दूर रखते हुए फिल्मकार ने कहानी को समांतर सिनेमा की शैली में बुना पर मुहावरा अपना चुना है.

यह फिल्म कई स्तरों पर चलती है. कई मुद्दों (राजनीतिक भी), भाषाओं को साथ लेती हुई. इस अर्थ में फिल्म काफी महत्वाकांक्षी है. यह फिल्म वर्तमान समय में मौजूं है, पर इसे क्लासिक नहीं कहा जा सकता. हां, यह फिल्म पायल और युवा फिल्मकारों से काफी उम्मीदें जरूर जगाती है

Sunday, December 01, 2024

आराम नगर में चैन कहां


कहते हैं मुंबई को नींद नहीं आती. आए भी कैसे? हर दिन सैकड़ों लोग अपनी किस्मत आजमाने माया नगरी आते हैं. उनके ख्वाब मुंबई को जगाए रखते हैं, उनके संघर्ष सोने नहीं देते.


पिछले दिनों एक दोपहर वर्सोवा के नजदीक आराम नगर में बिताने का मौका मिला. यहाँ पर बीसियों कास्टिंग कंपनी है जहाँ अदाकारों की भीड़ रहती है. आँखों में सपने लिए, अदाकार, लेखक और भविष्य के फिल्म निर्देशक मिल जाते हैं. पिछले दशक में बॉलीवुड में यह नगर ऐसा अड्डा बन कर उभरा है जहाँ सैकड़ों युवा रोज आते-जाते हैं. कुछ दशक पहले जहाँ प्रोड्यूसरों के ऑफिस में अदाकार अपना ‘पोर्टफोलियो’ लेकर पहुँचते थे, वहीं अब कास्टिंग डायरेक्टर के यहाँ लंबी लाइन लगी रहती है.

दिल्ली के मुकेश छाबड़ा का नाम कास्टिंग डायरेक्टर में आज सबसे ऊपर है. आराम नगर में स्थित उनके ऑफिस के बाहर युवकों की लंबी लाइन लगी थी. उनमें ही एक 22 साल के युवा नमन भारद्वाज भी थे. नमन दिल्ली में थिएटर से जुड़े रहे और छह महीने पहले ही मुंबई आए हैं. वह कहते हैं ‘यहाँ पर आपको कैमरे के सामने अपना नाम, उम्र और एक्टिंग का अनुभव बताना होता है. यदि आपके लायक कोई काम किसी फिल्म या सीरीज में हो तो फिर कास्टिंग कंपनी आपको कॉन्टेक्ट करती है. इनके पास बहुत बड़ा डेटाबेस है.’ न सिर्फ संघर्षरत युवा बल्कि कई जाने-पहचाने नाम भी यहाँ मिल जाते हैं. ‘फैमिली मैन’ सीरीज से चर्चित हुए कुशल अभिनेता शारिब हाशमी भी यहाँ दिख गए.

आराम नगर में थिएटर के भी कई मंच उपलब्ध हैं, जहाँ पर आए दिन स्थापित और एमेच्योर थिएटर ग्रुप के नाटकों का मंचन होता रहता है. बहरहाल, जब मैंने नमन से पूछा कि क्या यहाँ पर आप किसी एक्टिंग वर्कशॉप या थिएटर से भी जुड़े हैं? उन्होंने कहा कि ‘एक्टर तो मैं हूं, पर काम नहीं है.' उन्होंने कहा कि यहां पर आपको 'मिडिल क्लास के स्ट्रगलर्स मिलेंगे, पृथ्वी थिएटर के आस-पास जो घूमते फिरते आपको मिलेंगे वे थोड़े अपर क्लास के होते हैं.’ शाम में जब पृथ्वी थिएटर फेस्टिवल में हम एक नाटक देखने गए तो नमन का कहा सच लगा.

ऐसा नहीं कि आराम नगर में सिर्फ कास्टिंग कंपनियां ही हैं. यहाँ पर कई नामी निर्माता-निर्देशकों के प्रोडक्शन हाउस भी रहे हैं. पर छाबड़ा के एक सहयोगी ने बताया कि ‘अब प्रोडक्शन हाउस कहाँ अभिनेता को काम दे पाती है, जो भी काम मिलता है कास्टिंग कंपनियों के माध्यम से ही उन्हें मिल रहा है.’

ऑफिस के केबिन के बाहर छाबड़ा का एक कथन मोटे अक्षरों में लिखा दिखता है: ‘दुनिया बदल गई है. अब हम हीरो या कद-काठी, डील-डौल से आगे बढ़ चुके हैं.’ यह सच है कि पिछले दशक में ओटीटी के उभार ने अदाकारों के लिए एक बड़ा स्पेस मुहैया कराया है. खुद छाबड़ा की पहचान अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में कास्टिंग डायरेक्टर से बनी. इस फिल्म ने कई कलाकारों को बॉलीवुड की दुनिया में स्थापित कर दिया, जो वर्षों से बॉलीवुड में समंदर के थपेड़े खा रहे थे.

Sunday, November 17, 2024

सिनेमा में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस


नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई विक्रमादित्य मोटवानी की फिल्म सीटीआरएल (कंट्रोल) चर्चा में है. यह फिल्म सोशल मीडिया, कृत्रिम मेधा (एआइ) और दो युवा सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर प्रेमियों के संबंधों के इर्द-गिर्द बुनी गई है. इस लिहाज से यह फिल्म समकालीन यथार्थ से रू-ब-रू है.

इससे पहले भी फिल्म, डॉक्यूमेंट्री और चर्चित किताब ‘द एज ऑफ सर्विलांस कैपिटलिज्म’ में हमने खुफिया पूंजीवाद, डेटा और हमारे आचार-व्यवहार की पड़ताल को देखा-पढ़ा है. फिल्म ‘खुफिया पूंजीवाद’ के हवाले से दिखाती है कि किस तरह सोशल मीडिया, एआइ, डेटा आदि हमारे आचार-व्यवहार को प्रभावित कर रहा है. किस तरह आपसी रिश्ते, युवाओं के मनोभाव और प्रेम संबंध इससे प्रभावित होने लगे हैं.
नेल्ला (अनन्या पांडे) एआइ के किरदार से कहती है-टेक कंट्रोल ऑफ माई लाइफ! यहाँ निजी गोपनीयता का कोई अर्थ नहीं है और नशे की लत की तरह हम खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं. अपनी सारी जानकारी किसी तकनीक के हवाले कर देते हैं. पर रास्ता क्या है? इसका जवाब फिल्म दर्शकों पर छोड़ देती है.
फिल्म देखते हुए जिस बात पर मेरी नजर पड़ी वह थी हिंदी फिल्म में ‘एआइ’ के इस्तेमाल की पहल. असल में एआई कंप्यूटर के माध्यम से हमारे व्यवहार और मनोभावों को मिमिक करता है. एक एआइ चरित्र ऐलन (स्वर अपारशक्ति खुराना का है), कंट्रोल ऐप के माध्यम से नेल्ला का तब हमसफर और हमनवा बनता है जब उसका ब्रेकअप अपने पार्टनर जो (विहान समत) के साथ होता है. वह खिलंदड़ा है और अनन्या के साथ हंसी-मजाक करता है.
सवाल उठता है कि क्या आभासी दुनिया का यह हमसफर उसके यथार्थ से वाबस्ता है? आभासी दुनिया में नेल्ला की विगत स्मृतियों से छुटकारा दिलाने में वह सहयोग करता है. पर क्या वह नेल्ला के आगामी जीवन को बुनने में भी सहयोगी है या वह बाजार का मात्र उपक्रम है जो हमारी कमजोरियों, इच्छाओं का महज दोहन करता है? यहाँ सोशल मीडिया के दौर में शब्दों, चित्रों के माध्यम से स्मृतियों के निर्माण और उसे सहेजने और मिटाने की दुष्कर प्रक्रिया से भी हमारा मुखामुखम होता है. बाद में फिल्म एक दिलचस्प मोड़ लेती है और नेल्ला एक दुष्चक्र में फंसती चली जाती है.
बहरहाल, कृत्रिम मेधा में अनंत संभावनाएँ हैं. मीडिया के न्यूजरूम में भी कृत्रिम मेधा की पहल बढ़ी है. अनुवाद करने, तस्वीर बनाने, संपादन करने, ऑडियो से टेक्स्ट में ट्रांसक्राइब करने, शब्द को ध्वनि में बदलने के साथ-साथ एआइ टेलीविजन एंकर की भूमिका में भी आ चुका है. एआइ के इस अवतार से आने वाले समय में मीडिया का चरित्र किस रूप में बदलेगा इसके बारे में मुकम्मल तौर पर अभी कुछ नहीं कहा सकता पर इतना तय है कि पिछली सदी में हुए तकनीकी बदलावों के बरक्स एआइ का असर आने वाले समय में मीडिया पर बहुआयामी पड़ेगा.
सिनेमा भी इसमें शामिल है. एक बात नोट की जानी चाहिए कि तकनीक के अन्य रूपों की तरह ही भाषा के माध्यम के रूप में कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में भी अंग्रेजी का ही वर्चस्व है. एक लोकतांत्रिक समाज के लिए अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में एआइ के प्रयोग और शोध की जरूरत है.

Saturday, November 09, 2024

इंटरव्यू: ‘मुझे ऐसा सिनेमा पसंद है जो सोचने पर मजबूर कर दे’

 मूर्धन्य कलाकार मोहन अगाशे की शख्सियत के कई पहलू हैं। एक अभिनेता के बतौर उन्होंने समानांतर सिनेमा के कई प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम किया। घासीराम कोतवाल (1972) नाटक में अपनी भूमिका के लिए वे खास तौर से जाने जाते हैं। वे मनोचिकित्सक भी हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर उन्होंने कई फिल्में बनाई हैं। वे भारतीय फिल्म और टेलिविजन संस्थान (एफटीआइआइ) के निदेशक भी रह चुके हैं। उनके जीवन और काम के बारे में हाल ही में अरविंद दास ने उनसे बातचीत की। संपादित अंशः

 आपकी रंगमंचीय यात्रा से बात शुरू करते हैं। रंगमंच पर अभिनय का अपना पहला अनुभव आपको याद है?

मेरे लिए अभिनय बच्चों के खेल जैसा था। जैसे हम सभी तीन, चार या पांच साल की उम्र में कुछ हरकतें करते हैं। जैसे, हम सब नकल मारते हैं, चाहे शिक्षकों की नकल हो, पिता की हो या किसी और की। यह सम्प्रेेषण का एक माध्यम होता है। बेशक यह पेशेवर नहीं होता। अभिनय मेरे स्वभाव में है। खुद के और दुनिया के बारे में जानने का यह एक कुदरती तरीका है। जिस स्कूल में मैं पढ़ा वहां कुछ शिक्षक नाटक करने में अच्‍छे थे। मैं भी खुशकिस्मत रहा क्योंकि उसी दौरान सई परांजपे और अरुण जोगलेकर ने पुणे में बाल रंगमंच की शुरुआत की थी। वे पुणे आकाशवाणी पर हर रविवार प्रसारित होने वाले बालोद्यान नाम के एक कार्यक्रम के लिए बच्चे तलाश रहे थे। यह पचास के दशक के अंत और साठ के दशक के आरंभ की बात है। उससे पहले मैंने रवींद्रनाथ ठाकुर की जन्मशती पर डाकघर नाम के एक नाटक में एक बीमार बच्चे अमल का किरदार निभाया था। दुनिया से उसका संवाद का माध्यम केवल एक खिड़की थी, जहां खड़ा होकर वह दोस्त बनाता था।

डाकघर आकाशवाणी के लिए था?

नहीं, वह तो पुणे में सार्वजनिक मंचन के लिए था। मैं ‘महाराष्ट्र कालोपासक’ नाम की एक रंगमंडली से जुड़ा हुआ था। यह उसका नाटक था। महाराष्ट्र में छोटे-छोटे रंगमंडलों की मजबूत परंपरा रही है। जैसे, विजय मेहता ने ‘रंगायन’ नाम की मंडली से शुरुआत की थी। सत्यदेव दुबे का भी एक थिएटर यूनिट था। भालबा केलकर का ‘प्रोग्रेसिव ड्रामैटिक एसोसिएशन’ था। उस समय मैं अपनी रंगमंडली के अलावा रविवार को बालोद्यान में भी जाता था। उसमें गोपीनाथ तलवार, सई परांजपे और नेमिनाथ नाम के एक और सज्जन थे। मैंने सई के नाटक निरुपमा आणि परिरानी में अभिनय किया था। बाद में उस पर एक फिल्म भी बनी थी। विनय काले ने सई की स्क्रिप्ट पर 1961 में फिल्म बनाई, जिसमें मैंने पिनोकियो का रोल किया। वह मेरी पहली फिल्म थी।

मोहन अगाशे

मतलब आप पहले अभिनेता बने, फिर डॉक्टर और फिर एफटीआइआइ निदेशक?

अभिनेता बनने वाला कोई भी व्यक्ति शुरुआत बचपन से ही करता है। हो सकता है कि वह रंगमंच पर न हो और अपने घर में ही अभिनय कर रहा हो।

आप जुलाई 1947 में जन्मे थे, यानी आजाद भारत। अपनी जिंदगी और भारत के जीवन की यात्रा को आप कैसे देखते हैं?

आजकल हर चीज को बौद्धिकता में लपेटने का चलन बन चुका है। मेडिकल कॉलेज पहुंचने तक मैं विश्लेषण नहीं करता था, बस काम करता था। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो बहुत बौद्धिक होते हैं। मुझे लगता है जिंदगी को जब आप पीछे मुड़कर देखने लग जाते हैं तो वह बूढ़े होने का पहला लक्षण होता है।  

मेडिकल की पढ़ाई के साथ रंगमंच को आपने कैसे साधे रखा?

स्कूल की पढ़ाई के बाद प्री-मेडिकल तक मैंने अभिनय जारी रखा। मेडिकल कॉलेज के पहले साल में मेरी मुलाकात रंगमंच की प्रसिद्ध हस्ती जब्बार पटेल से हुई। फिर पढ़ाई की तरह रंगमंच भी मेरे लिए एक गंभीर काम बन गया। अपने पूरे मेडिकल करियर के दौरान मैंने अभि‍नय किया, यहां तक कि छोटे से रंगमंडल ‘प्रोग्रेसिव ड्रामैटिक एसोसिएशन’ में जुड़ गया। मनोचिकित्सा और रंगमंच/सिनेमा मेरी जिंदगी की दो समांतर धाराएं रही हैं।

श्याम बेनेगल की निशांत (1975) के साथ समानांतर सिनेमा में आपकी शुरुआत कैसे हुई?

उन्होंने घासीराम कोतवाल में मेरा काम देखा था। मैंने नाना का किरदार निभाया था। मैंने 1972 से 1992 तक बीस साल यह किरदार निभाया। घासीराम मेरे लिए अभिनय का स्कूल जैसा था। इसी के सहारे मैं देश भर में और विदेश गया। मेरी दुनिया का विस्तार हुआ। 1975 तक तो यह नाटक भारतीय रंगमंच में मील का पत्थर बन चुका था। इसे 20 से ज्यादा रंग महोत्सवों में आमंत्रित किया जा चुका था और हमने 12 रंग महोत्सवों में कुल 61 प्रदर्शन किए। फिल्म या रंगमंच के क्षेत्र में शायद कोई नहीं होगा जिसने घासीराम न देखा हो।

हाल ही में मैंने सिनेमाघर में मंथन (1976) देखी, जब उसका रिस्टोर्ड संस्करण रिलीज हुआ था। इस फिल्म में आपको डॉक्टर के किरदार में देखकर मैं चौंक गया था।

बेनेगल के साथ समानांतर सिनेमा में मेरी शुरुआत हुई। फिर मैं उसका हिस्सा बन गया। मनोचिकित्सा से प्रेम के चलते मैं मुंबई नहीं गया। मैं साल में एकाध फिल्म ही करता था। मैंने गोविंद निहलानी, जब्बार पटेल, गौतम घोष की फिल्मों और सत्यजित रे की सद्गति (1981) में काम किया। यह इत्तेफाक ही था कि प्रेमचंद की कहानी सद्गति में ब्राह्मण का नाम घासीराम था। हो सकता है कहानी पढ़ते वक्त‍ उनके दिमाग में घासीराम का मेरा किरदार रहा हो।

सत्यजित रे के साथ संबंध कैसा था?

वे महान थे, इस पर मैं किसी से बहस नहीं करना चाहूंगा। सद्गति केवल 52 मिनट की फिल्म है, लेकिन उसमें काम करते हुए मुझे समझ आया कि सत्यजित रे क्या हैं और वे जो हैं, तो क्यों हैं। वे दूसरों से मीलों आगे क्यों हैं। फिल्म संस्था‍न में कई लोग होंगे जो रे को महान नहीं मानते थे। वे मणि कौल को महान मानते हैं। यह उनकी सीमित सोच है। मैंने मणि की फिल्म‍ घासीराम कोतवाल (1976) में भी काम किया है। वह फिल्म तीन दिन भी नहीं चली थी। ऐसे फिल्मकार इस बात की चिंता नहीं करते थे कि लोग उनकी फिल्मों को पसंद करेंगे या नहीं। मणि या कुमार शाहनी की फिल्मों के किरदार मनुष्यों की तरह बात नहीं करते, किसी सामान की तरह बात करते हैं।

लेकिन मणि कौल की आषाढ़ का एक दिन (1971) और दुविधा (1973) की तो बहुत सराहना हुई थी?

आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश के नाटक पर आधारित है। मणि ने तो बस उनके लिखे को दृश्य-श्रव्य माध्यम में रूपांतरित कर दिया था। इसलिए लेखक को भी उसका काफी श्रेय जाता है। दुविधा मुझे अच्छी लगी थी। मणि जैसी फिल्में बनाना चाहते थे, वैसी बनाते थे। उन्हें किसी और चीज से कोई मतलब नहीं था। घासीराम कोतवाल में उन्होंने नाटक के आधार पर विजय तेंडुलकर से पटकथा लिखवाई थी। वह नाटक से एकदम अलहदा थी। उसमें बस नाटक के अंश इस्तेमाल किए गए थे। उसका आपको कोई अर्थ समझ आए, तो मुझे ईमानदारी से बताइएगा। डॉ. (श्रीराम) लागू ने उसके बारे में एक बार कहा था, ‘‘मैंने जीवन में नहीं सोचा था कि कभी कोई मराठी फिल्म मुझे समझ नहीं आएगी। घासीराम ऐसी फिल्म है, जो मुझे समझ ही नहीं आई।’’                    

आपने प्रकाश झा की फिल्मों में भी काम किया है। उसका अनुभव कैसा था?

उन्होंने सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्में बनाई हैं। बिहार की पृष्ठभूमि पर उन्होंने तीन फिल्में बनाईं, मृत्युदंड (1997), गंगाजल (2003) और अपहरण (2005)। ये सब फिल्में वर्तमान हालात से जुड़ती हैं। इसलिए मुझे काम करने में मजा आया। आपको पता है कि उनकी राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फिल्म दामुल (1985) को किसी ने पूछा तक नहीं था। उस फिल्म को दर्शक तक नसीब नहीं हुए थे। उसे किसी ने देखा भी नहीं था। तब प्रकाश झा हताश होकर बिहार लौट गए थे, लेकिन जब वे वापस आए तब उन्होंने संकल्प लिया कि मैं अब अपनी कहानी बॉलीवुड की भाषा में कहूंगा। पिछली गलती से उन्होंने सबक सीखा, फिर दोबारा लौट कर मृत्युदंड बनाई। 

आपने मुख्यधारा की बॉलीवुड फिल्मों  में भी काम किया, जैसे त्रिमूर्ति (1995), रंग दे बसंती (2005)?

मैं फिल्मों में फर्क नहीं बरतता। मैं बस इतना जानता हूं कि एक समानांतर सिनेमा होता है और दूसरा लोकप्रिय सिनेमा। मैं ऐसे सिनेमा का आदमी हूं जो मनोरंजन के पार जाता हो। हाल ही में मैंने लापता लेडीज (2024) देखी। इसके बाद बधाई हो (2019) देखी। दोनों ही बेहतरीन फिल्में हैं। अब तो बाहुबली (2015) जैसी फिल्मों का बॉलीवुड में जलवा हो रहा है।  

ओटीटी के उभार को आप कैसे देख रहे हैं, जहां फिल्मकारों की नई फसल आ रही है?

एक मायने में ओटीटी अच्छा है, लेकिन शुरू में जब वह आया था, तो केवल प्रतिभाशाली फिल्मकारों की फिल्में ही खरीदता था। या उनसे ही फिल्में बनवाता था। अब उसने अपना कंटेंट बनाना बंद कर दिया है। इसलिए फिल्मकार यहां अब अपने मन के हिसाब से फिल्में नहीं बना पा रहे हैं।

मराठी सिनेमा में आपने देवराय (2004), अस्तु (2013), कासव (2017) में काम किया है। ये सब फिल्में मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित हैं। इनके बारे में कुछ बता सकते हैं?

इन फिल्मों में मैंने केवल काम ही नहीं किया था बल्कि इन फिल्मों का निर्माण भी किया था। मैं निजी तौर पर ऐसा सिनेमा पसंद करता हूं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दे। मैं ऐसे ही सिनेमा का मुरीद हूं। यदि फिल्में सोचने पर मजबूर न कर पाएं, तो फिर उनके होने का फायदा ही क्या। ये फिल्में सुमित्रा भावे बनाई थीं। वे फिल्मकार नहीं थीं, वे समाज वैज्ञानिक थीं। उन्हें जब समझ आया कि किताबों से ज्यादा ताकवर माध्यम सिनेमा है, तो उन्होंने फिल्म बनाना सीखा। वे ऐसी फिल्में बनाती थीं, जो किसी भी दर्शक को सोचने पर मजबूर कर दे। सुमित्रा भावे, डेविड धवन या सुभाष घई जैसी फिल्में नहीं बनाती थीं। यही वजह थी कि मैंने सोचा इन फिल्मों के माध्यम से मैं आम आबादी और स्वास्थ्य विज्ञानियों तक मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता फैला सकूंगा। मानसिक बीमारी, मनोचिकित्सा जैसी बातों को कोई गंभीरता से नहीं लेता है। ऐसे विषयों का लोकप्रिय फिल्मों में मजाक बनाया जाता है। इस विषय पर मैं एक बात कहना चाहूंगा कि एक फिल्म आई थी तारे जमीं पर (2007), यह हर मायने में बहुत अलग फिल्म थी।    

पुणे शहर ने आपकी रचनात्मक यात्रा को कैसे प्रभावित किया है?

मैं पुणे में रहता हूं और मेरे लिए आज का पुणे वही पुणे है, जो मेरे बचपन में होता था। बाकी किसी भी तरह के पुणे को मैं न मानता हूं न जानता हूं। विस्तार ले रहा, मॉडर्न हो रहा पुणे मेरे पुणे का सांस्कृतिक हिस्सा नहीं है। यहां मैं 74 साल से ज्यादा समय से रह रहा हूं। अब यह महानगर बन चुका है। आप यहां अब मराठी बोलेंगे तो लोग आपको हैरत से देखेंगे। पुणे की पहचान जा चुकी है। एक बार मैं पुणे का मृत्यु प्रमाण पत्र मांगने के लिए नगर निगम के दफ्तर चला गया था।

(अरविंद दास डीवाय पाटील इंटरनेशनल युनिवर्सिटी, पुणे में स्कूल ऑफ मीडिया ऐंड जर्नलिज्म के निदेशक और प्रोफेसर हैं) (आउटलुक 11 नवंबर 2024 अंक में प्रकाशित)

Tuesday, October 29, 2024

Habib Tanvir's Plays Raised the Ethos of India's Diverse Culture



A volume to celebrate his life's work, edited by Anjum Katyal and Javed Malick, is a tribute to his legacy

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Habib Tanvir (1923-2009) was a renaissance man of modern Indian theatre who remained active on the stage for almost 60 years.

The recently published book, Habib Tanvir and His Legacy in Theatre: A Centennial Reappraisal, celebrates the life and work of his multifaceted personality. Edited by Anjum Katyal and Javed Malick, the volume features 13 essays by eminent scholars and artistes, including Javed Malick, Shanta Gokhale, M.K. Raina, Anjum Katyal, Sudhanva Deshpande, and others. It also includes an interview with his daughter, the renowned actor Nageen Tanvir, discussing music in his theatre.
While reading the book, I remembered the good fortune we had to celebrate his 80th birthday at JNU, where I was doing my PhD research. He arrived late at night to interact with an amateur theatre group and answered our queries and cut the cake. Later, he performed with his troupe at Open Air Theatre in JNU his famous plays Sadak and Ponga Pandit. During that time, I also had the opportunity to see Agra Bazaar and his masterpiece, Charandas Chor, in Delhi. Perhaps these were his last shows in the city.
After the tradition of Sanskrit plays (Bhasa, Kalidas, Bhavabhuti, Shudraka), drama was absent in the country for about a thousand years. Sanskrit plays were associated more with the elite than with the masses. However, when Parsi theatre emerged and developed in the nineteenth century, it gained a wide support base. During the 15th and 16th centuries, folk theatre in regional languages, which combined music, dance, tradition, and local culture, flourished. The Indian People’s Theatre Association (IPTA), which celebrated 80 years of existence in 2023, played a significant role in the development of modern theatre in India. Habib Tanvir began his journey in theatre with IPTA during the 1940s.
Tanvir’s greatest contribution to Indian theatre was his use of Lok Tatva (folk elements), particularly folk music and song. In Indian literature, ‘Lok’ has a different meaning from ‘Veda’. Groups deprived of Vedic rituals, including those who did not belong to the upper castes—specifically, Shudras and sections of people from all varnas/castes—became alienated from the Vedic tradition and turned to Lokayat paths. However, this does not mean that people have been completely separated from the Vedas. Lok is considered a cultural flow consisting of Shruti and Smriti, from which the Vedas emerged. Some thinkers believe that the lyrical aspects of the folk world itself became the Vedas.
As Javed Malick notes in his essay, ‘A Jugalbandi between the Folk and Modernity’:
“If Tanvir was wary of glorifying the folk uncritically, he was equally careful not to accept the dominant versions of modernity unconditionally. This modernity, he felt, was flawed because it ignored India’s regional languages, its cultural forms and the rich multiplicity of its ‘little’ traditions.”
Charandas Chor, based on a folk tale by Rajasthani author Vijaydan Detha, is a perfect example of this jugalbandi. Its hero is a chor (thief) who believes in truth! In fact, Tanvir’s plays were meant for both urban and rural audiences, closely connecting with common people (lok) and addressing the concerns, trials, and tribulations of the masses.
In his lucidly written essay, ‘Life, Art and Activism,’ M.K. Raina rightly highlights Tanvir’s politics, which were rooted in advocacy for subaltern groups. His Naya Theatre, established in 1959, was a testament to his vision and politics, featuring Chhattisgarhi tribal artists. His plays epitomised “vernacular modernity.” Using the idioms of regional language his plays vociferously raises the ethos of Indian culture and secularism.
As Katyal writes, ‘Habib’s politics could be described as progressive, people-centric, democratic and secular…’. In the current political milieu, he is sorely missed.
Unfortunately, after his passing, Naya Theatre lost its charm. In 2016, it staged his play Kamdev Ka Apna Basant Ritu Ka Sapna, an adaptation of Shakespeare’s A Midsummer Night’s Dream, in Delhi but it failed to generate enthusiasm among theatre-goers and lacked lustre.
During the book’s release in Kolkata, the great actor Naseeruddin Shah remarked, “While in Delhi, I was amazed by Ebrahim Alkazi’s plays and his larger-than-life characters. But when I saw Habib sahab’s Agra Bazaar, mere dimaag ki nassein khul gayein. I was moved to tears.”
I greatly enjoyed reading the book but it’s not a critical appraisal of Habib sahab’s work; rather, as the title suggests, it is a tribute to his legacy. It is a treat for his admirers, however for ordinary readers, there may be too much repetition regarding his famous play, Charandas Chor.