Monday, August 04, 2025

गुजिश्ता खुशबुओं के दिन: कैफी और मैं


पुणे में व्यावसायिक मराठी रंगमंच काफी संवृद्ध है, वहीं हिंदी और अंग्रेजी नाटकों का भी एक अलग दर्शक वर्ग है.

पिछले दिनों चर्चित अदाकार नसीरुद्दीन शाह अपना नाटक द फादर’ लेकर आए थे, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा. वहीं रविवार को पुणे के रंगमंच पर मशहूर अदाकारा शबाना आजमी दिखाई थी. खचाखच भरे सभागार में दर्शकों का उत्साह देखते बना.

असल में,  रमेश तलवार निर्देशित बहुचर्चित नाटक कैफी और मैं’ में शबाना आजमी एक बार फिर से दर्शकों से रू-ब-रू थी. यह नाटक अपने बीसवें साल में है. अगले महीने वे पचहत्तर वर्ष की हो जाएँगी, ऐसे में रंगमंच पर उनकी सक्रियता थिएटर को लेकर उनके जुनून को दिखाता है.

संस्कृतिकर्मी और अदाकार शौकत आजमी की आपबीती याद की रहगुजर और कैफी आजमी के साक्षात्कारों, खतो-किताबत को यह नाटक समेटे है जिसे जावेद अख्तर ने बुना है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है शौकत के नजरिए से कैफी और उनके संबंधों, कैफी की शायरी, उनके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार यहाँ दिखाई देते हैं.

शौकत की भूमिका में शबाना आजमी और कैफी की भूमिका में कंवलजीत सिंह मंच पर थे. पर ऐसा नहीं कि यह नाटक केवल दो तरक्कीपसंद लोगों के आपसी प्रेम संबंधों का दस्तावेज बन कर रह गया है, बल्कि इसके मार्फत मानवीय मूल्यों, सहजीवन और आजाद भारत के सपनों की अभिव्यक्ति भी यहाँ मिलती है. एक ऐसे दौर को हम जीते हैं, जो अतीत का पन्ना हो चला है. हमारे हिस्से महज खुशबू रह गई है!

कैफी की जीवन यात्रा के कई रंग हैं. वे उर्दू के प्रगतिशील धारा के प्रमुख शायर रहे और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अग्रणी स्वर. वहीं हिंदी सिनेमा के लिए उन्होंने जी गीत रचे, वे हमारी थाती हैं. आश्चर्य नहीं मंच पर उनके लिखे गीतों के टुकड़ों को जसविंदर सिंह ने गाया और दर्शक उनसे पूरा गाने की फरमाइश करते रहे.

चर्चित अदाकार जोहरा सहगल ने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के शुरुआती दिनों को याद करते हुए लिखा है कि हर एक कलाकार जो बंबई (मुंबई) में 1940 और 1950 के बीच रह रहा थावह किसी न किसी रूप में इप्टा से जुड़ा था. गीत-संगीतनृत्यनाटक के जरिए मौजूदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत और फासीवाद से लड़ने के लिए इप्टा का गठन किया गया थाजिसके केंद्र में मेहनतकश जनता की संस्कृति थी. कैफी के साथ शौकत भी इप्टा से एक अदाकार के रूप में जुड़ी थी. देश विभाजन को आधार बना कर बनी फिल्म गर्म हवा’ (1974) में उनका अभिनय आज भी याद किया जाता है.

सज्जाद जहीर, चेतन आनंद, के ए अब्बास, सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई, मजरूह सुल्तानपुरी, दीना पाठक, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, कृष्ण चंदर जैसे उर्दू-हिंदी साहित्य के कद्दावर नाम इस नाटक में लिपटे चले आते हैं. इस तरह से यह नाटक साहित्य-सिनेमा के एक सुनहरे दौर का वृत्तांत भी रचता है.  


इस साल गुरुदत्त की जन्मशती मनाई जा रही है. कागज के फूल के लिए कैफी आजमी के लिखे गीतवक्त ने किया क्या हंसी सितम’ और बिछड़े सभी बारी बारी’ को समीक्षकों ने रेखांकित किया. जहाँ ये गीत लोगों की जबान पर बस गए, वहीं फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई. उन्हें सफलता मिली चेतन आनंद की फिल्म हकीकत के लिखे गानों के साथ, जो बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही और चेतन आनंद-मदन मोहन-कैफी आज़मी की जोड़ी चल निकली.

कैफी ने पहली नज्म महज  ग्यारह साल की उम्र में पढ़ी थी. मुंबई आने से पहले ही उनकी प्रसिद्धि औरत नज्म (उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे...) से फैल चुकी थी. इसी नज्म को सुन कर शौकत ने ठान लिया था कैफी ही उनके जीवन साथी बनेंगे और उन्होंने उनके साथ बंबई के एक 'होल टाइमर कम्युनिस्ट' के साथ कम्यून में रहने  का फैसला किया.

जब कैफी समाज के हाशिए पर रहने वालों के साथ काम कर रहे थे तभी उन्होंने मकान नज्म लिखा था. जब मंच से कैफी के इन नज्म से इन पंक्तियों का पाठ किया गयाआज की रात बहुत गर्म हवा चलती है/आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी/सब उठोमैं भी उठूँ तुम भी उठोतुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी, तब लगा कि किस तरह उनकी कविता समकालीन है. कैफी जैसा रचनाकार समय-सीमा के परे है.

इन नाटक के लिए मंच पर बेहद कम साजो-सामान का इस्तेमाल किया गया. फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'तुम्हारी अमृतानाटक में हमने शबाना को देखा है. इस नाटक में अमृता और जुल्फी के बीच प्रेम प्रसंग को खतों के माध्यम से संवेदनशील और मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है. ठीक वही शैली इस नाटक में भी अपनाई गई है. जहाँ शौकत के किरदार में शबाना ने प्रभावित किया वहीं ऐसा लगा कि कंवलजीत कैफी ने किरदार के लिए तैयारी करके नहीं आए थे. कई बार संवाद अदायगी में वे फिसले. वे रसास्वादन में बाधा बन कर सामने आया. उल्लेखनीय है कि कैफी के किरदार को जावेद अख्तर निभाते रहे हैं, हमने उन्हें मिस किया. 

आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव में जन्मे कैफी आजमी भले गाँव से वर्षों से दूर रहे, पर उनकी शायरी में गाँव-जवार रचा-बसा रहा. वर्षों बाद वे गाँव लौटे और शौकत के साथ मिल कर घर बनाया, बच्चों के लिए स्कूल, सड़क और अन्य सुविधाओं के लिए लड़ाई लड़ी थी.

याद आया कि पाँच साल पहले मी रक्सम’ फिल्म कैफी के पुत्र बाबा आजमी से निर्देशित किया और शबाना आजमी ने प्रस्तुत किया था. इस फिल्म में निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार के जीवन और संघर्ष का चित्रण है. मी रक्सम’ फिल्म आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव के आस-पास अवस्थित है. मिजवां के दृश्य मोहक हैं. बकौल बाबा आजमी एक बार कैफी आजमी ने उनसे पूछा था कि ‘क्या तुम कोई फिल्म मिजवां में शूट कर सकते हो?’

फिल्म की तरह ही यह नाटक मशहूर शायर, नग्मा-निगार और मानवीय मूल्यों को लेकर प्रतिबद्ध कैफी के प्रति श्रद्धांजलि है.


(एनडीटीवी के लिए)

Sunday, August 03, 2025

संघर्ष से उपजी कला

 



मिथिला चित्र शैली अपने अनोखेपन और बारीकी के लिए देश-दुनिया में प्रतिष्ठित है और कला जगत में खास महत्व रखती है. पिछले दशक में एक बार फिर से देश-दुनिया इस कला की काफी चर्चा हो रही है और कई कलाकार पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित हुए हैं. विषयों की विविधता, जीवन-जगत और लोक के संघर्ष का चित्रण इस पारंपरिक कला को समकालीन बनाता रहा है.

वर्ष 1934 में मिथिला क्षेत्र में आए भीषण भूकंप के दौरान ब्रिटिश अधिकारी डब्लू जी आर्चर ने इस लोक कला को देखा-परखा. वे मधुबनी में अनुमंडल पदाधिकारी थे. राहत और बचाव कार्य के दौरान उनकी नज़र क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी. मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया. फिर जब उन्होंने वर्ष 1949 में ‘मैथिल पेंटिंग’ नाम से प्रतिष्ठित ‘मार्ग’ पत्रिका में लेख लिखा तब दुनिया की नजर इस लोक कला पर पड़ी थी.

इस कला को लेकर नौ लोगों को अब तक पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, लेकिन इन ग्रामीण महिलाओं के जीवन-वृत्त, संघर्षों के बारे में हिंदी में अभी भी स्तरीय पुस्तकों का अभाव रहा है. कलाप्रेमी और लेखक अशोक कुमार सिन्हा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक-‘आंसुओं के साथ रंगों का सफर’ इस कमी को पूरा करती है. वे इस किताब के बारे में लिखते हैं: “मिथिला पेंटिंग के कुल 25 महिला कलाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के अभिलेखीकरण का प्रयास किया है. पुस्तक में उनके दुख और संघर्ष साथ-साथ उनके सपनों की उड़ान भी है.” जैसा कि स्पष्ट है किताब में जगदंबा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी, गोदवरी दत्ता, दुलारी देवी, शांति देवी जैसे सिद्ध कलाकारो के अलावे कई जैसे कलाकारों के जीवनवृत्त और उनकी कला का ब्यौरा दिया गया है जिससे कला जगत अपरिचित है. इस लिहाज से इस किताब का महत्व बढ़ जाता है.

वर्ष 2011 में जब महासुंदरी देवी को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई तब मैं उनसे मिलने उनके गांव रांटी गया था. उन्होंने मुझे कहा था: “1961-62 में भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा. कागज वे खुद लेकर आए थे. करीब एक वर्ष बाद वे इसे लेकर गए और मुझे 40 रुपए प्रोत्साहन के रूप में दे गए.” समय के साथ मिथिला कला में पुरुषों और दलित कलाकराों का दखल बढ़ा है. नए-नए समकालीन विषय इसमें जुड़ते गए हैं. शिक्षा के प्रसार से युवा कलाकारों की दृष्टि संवृद्ध हुई है. मिथिला पेंटिंग को 'कोहबर' की चाहरदिवारी से बाहर निकाल कर देश-दुनिया में प्रतिष्ठित करने में इनका काफी योगदान है.

समीक्षक: अरविंद दास

किताब: आंसुओं के साथ रंगों का सफर

प्रकाशक: क्राफ्ट चौपाल

कीमत: 500 रुपए

Sunday, July 13, 2025

आपातकाल और एक फिल्म की याद

 


पिछले दिनों आपातकाल (1975-77) के पचास वर्ष पूरे हुए. इस दौरान नागरिक अधिकारों के हनन, मीडिया पर सेंसरशिप और सत्ता के अलोकतांत्रिक रवैए को लोगों ने याद किया.

आपातकाल को बहुत सारे फिल्मकारों ने सीधे या अपरोक्ष रूप से अपनी फिल्म का आधार बनाया है और आज भी इससे प्रेरणा लेते हैं. पिछले दिनों चर्चित फिल्मकार सुधीर मिश्रा ‘समर ऑफ 76’ नाम से एक वेब सीरीज के फिल्मांकन में व्यस्त थे. जैसा कि नाम से जाहिर है यह आपातकाल के दौर की राजनीति के इर्द-गिर्द रची-बसी है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी इस सीरीज की शूटिंग हुई .
वे कहते हैं कि यह सीरीज में आपातकाल एक रूपक की तरह आया है. बहरहाल, आपातकाल की पृष्ठभूमि में बनी उनकी फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ के बीस साल पूर हुए हैं. एक बार फिर से देखते हुए यह ख्याल बना रहता है कि 70 के दशक की देश की राजनीति, आपातकाल, नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़े संभ्रांत और शिक्षित वर्ग के युवाओं के सपने, इच्छा, हताशा को इस फिल्म से बेहतर चित्रित करने वाला हिंदी में शायद कोई अन्य फिल्म नहीं है. प्रेम कहानी के रूप में बुनी गई यह फिल्म एक साथ शहर (दिल्ली) और गाँव (भोजपुर) की यात्रा करती है.
‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ फिल्म है, जिसने 21वीं सदी में समातंर सिनेमा की नई धारा की शुरुआत की जिसे हम ‘नया सिनेमा’ कह सकते हैं. इन‌‌‌ फिल्मों का सौंदर्यशास्त्र पिछली सदी‌ के समांतर सिनेमा से अलहदा है. यहां गीत-संगीत की भूमिका भी उल्लेखनीय है. शांतनु मोइत्रा का संगीत आज भी कर्णप्रिय है.
यह फिल्म सिद्धार्थ, गीता और विक्रम के सहारे आपातकाल के दौर को राजनीति, आदर्श और युवा मन के उधेड़बुन को खूबसूरती के साथ सामने लाता है. विक्रम (शाहनी अहूजा) एक गांधीवादी का बेटा है पर उसे आदर्शवाद नहीं लुभाता वहीं सिद्धार्थ (के के मेनन) एक रिटायर्ड जज को बेटा है जो क्रांति के गीत गाता है. वहीं गीता (चित्रांगदा सिंह) विलायत से पढ़ कर लौटी एक ऐसी लड़की है जो प्रेम की तलाश में है. तीनों ही अदाकारों का अभिनय फिल्म को एक ऊंचाई पर ले जाता है.
इस फिल्म के सिलसिले में जब मैंने सुधीर मिश्रा ने कुछ महीने पहले बात किया था तब उन्होंने कहा था कि 'इस फिल्म को लिखने में पाँच-छह साल मुझे लगे. पहले कहानी एक नक्सल और एक लड़के की थी, जो कॉलेज में पढ़ता था और पुलिस वाले का... फिर मुझे लगा कि बहुत टिपिकल हो रही है. फिर धीरे से कहाँ से विक्रम मल्होत्रा उभरा.'
फिल्म में विक्रम का किरदार विरोधाभासों से भरा है. वे कहते हैं, "विक्रम एक ऐसा लड़का है जिससे हम कॉलेज मे दूर रहते हैं. उसे दूर रहने के लिए कहते हैं. जो कुछ बनने आया था, फिक्सर है. गीता और सिद्धार्थ हम जैसे लोग हैं. खास कर कोई मुझसे पूछता है कि फिल्म में आप कौन हैं, तो मैं कहता हूँ-गीता. मेरे ख्याल से फिल्म अभी तक जिंदा इसलिए है क्योंकि विक्रम का भी नजरिया है उसमें. जिंदगी आइडियोलॉजी से आगे कहाँ फिसल जाती है, कहाँ एस्केप करती है इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता.”

Wednesday, June 25, 2025

Digital Convergence and Disruption in Hindi Media

 

Digital Convergence in Media:

Vietnam and Transnational Perspectives
Nomos, 1. Edition 2025, 519 Pages

Chapter by Arvind Das: Digital Convergence and Disruption in Hindi Media, Page- 387-400



Sunday, June 22, 2025

रंगमंच पर नसीरुद्दीन शाह


पिछले दिनों लंबे अरसे के बाद नसीरुद्दीन शाह को रंगमंच पर देखा. श्रीराम लागू रंग अवकाश, पुणे में ‘द फादर’ का मंचन था, जिसे उन्होंने निर्देशित किया था और खुद मुख्य भूमिका में थे. असल में, यह नाटक मुंबई और आस-पास तो पिछले सात सालों से होता रहा पर मुझे याद नहीं कि दिल्ली में मोटले प्रोडक्शन ने इसका मंचन किया हो.


बहरहाल, फ्लोरियन जेलर के लिखे बहुचर्चित फ्रेंच नाटक ‘द पेरे’ पर आधारित इस नाटक के केंद्र में डिमेंशिया/अल्जाइमर से पीड़ित एक पिता (आंद्रे) हैं, जिसके बहाने मानवीय संबंधों, एक वृद्ध के अंतर्मन की व्यथा को हम देखते हैं. यह नाटक जितना इस बीमारी से प्रभावित व्यक्ति के आत्मसम्मान और असहायता बोध से उपजा है, उतना ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द रहने वाले, उसकी देखभाल करने वालों (केयर गिवर) के बारे में भी है. मानसिक बीमारी, मतिभ्रम और विगत स्मृतियों में लौटना जहाँ बीमार व्यक्ति के लिए दुखद है, वहीं परिवार के लिए यह ऐसा अनुभव होता है जिससे व्यक्ति के प्रति सारी संवेदनाओं के बावजूद पार पाना आसान नहीं.

मंच पर नसीरुद्दीन शाह के साथ रत्ना पाठक शाह भी थीं. बेटी के किरदार में रत्ना ने पिता के प्रति प्रेम, सब कुछ करके भी पिता की स्थिति को न बदल पाने की झुंझलाहट, अपने पति के साथ संबंध को बचाए रखने की जद्दोजहद और खीझ को खूबसूरती से निभाया है.

नसीरुद्दीन शाह हमारे समय के सर्वाधिक सशक्त अभिनेता हैं. हिंदी समांतर सिनेमा के दौर की कहानी बिना उनके लिखी ही नहीं जा सकती. सिनेमा के अभिनेता से पहले वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित थिएटर के कलाकार रहे हैं. उल्लेखनीय है कि फिल्म संस्थान, पुणे से एक्टिंग में प्रशिक्षण के बाद संस्थान के ही एक सहयोगी के साथ मिलकर वर्ष 1979 में उन्होंने मोटले प्रोडक्शन की स्थापना की थी. पिछले पैतालीस वर्षों में मोटले ने विभिन्न प्रस्तुतियों के जरिए रंगमंच को संवृद्ध किया है. सिनेमा में मिली प्रसिद्धि के बावजूद उन्होंने रंगमंच से अपने प्रेम को नहीं छोड़ा. रंगमंच से सिनेमा की ओर कदम बढ़ा चुके अभिनेता मुश्किल से ही पुराने प्रेम की ओर लौटते हैं, वे बॉलीवुड के ही होकर रह जाते हैं! हमारे आसपास कई ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं. नसीरुद्दीन शाह ने अपनी संस्मरण की किताब ‘एंड देन वन डे’ में लिखा है कि कैसे 11 वर्ष की उम्र में मंच पर उन्होंने ‘स्व’ को पाया और किस तरह यह उनके जीवन का निर्णायक क्षण था!

अगले महीने नसीरुद्दीन शाह 75 वर्ष के हो जाएँगे. मंच पर उन्हें देखते हुए बरबस वर्ष 2020 में रिलीज हुई और ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित ‘द फादर’ की याद आती रही. इस फिल्म में एंथनी हॉपकिंस बार-बार यह सवाल पूछते हैं-व्हाट अबाउट मी?’ यह सवाल नाटक देखने के बाद काफी कचोटता है.

यदि आप अल्जाइमर से पीड़ित किसी व्यक्ति संसर्ग में आए हैं तो पता होगा कि हिंदुस्तान में इन बीमारियों के प्रति लोगों में सूचना और संवेदना का अभाव है. जिस सहजता और मार्मिकता से नसीरुद्दीन शाह ने किरदार को निभाया है, वह अल्जाइमर पर लिखे सैकड़ों लेखों और किताबों पर भारी है

Sunday, June 01, 2025

महेश एलकुंचवार की रंग यात्रा


पचासी वर्षीय मराठी के चर्चित नाटककार महेश एलकुंचवार ने विजय तेंदुलकर (1928-2008) और सतीश आलेकर के साथ मिलकर मराठी रंगकर्म को नई रंगभाषा और मुहावरे दिए हैं. यदि इन तीनों नाटककारों की तुलना पारसी रंगमंच के राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब और आगा हश्र कश्मीरी से की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. इन नाटककारों ने पारंपरिक, महाकाव्य को आधार बना कर किए जाने वाले म्यूजिकल नाटकों से अलग सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से मराठी रंगकर्म को जोड़ा. जिसका असर भारतीय रंगमंच पर गहरा पड़ा.

पिछले दिनों पुणे और मुंबई में एलकुंचवार के लिखे आत्मकथा (ऑटोबायोग्राफी) नाटक का मंचन लिलेट दुबे के निर्देशन में हुआ. इस नाटक के केंद्र में मराठी का एक लेखक है. एक लेखक की आत्मकथा के बहाने मानवीय संबंधों, सुरक्षा, स्त्री स्वतंत्रता और लेखकीय दुचित्तापन को बखूबी यह नाटक हमारे सामने लाता है. अंग्रेजी में इस बहुआयामी और सशक्त नाटक को मंच पर लिलेट दुबे, डेंजिल स्मिथ जैसे सिद्ध कलाकार लेकर आए. उन्हें सुचित्रा पिल्लई और सारा हाश्मी का भरपूर सहयोग मिला.

महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में जन्मे एलकुंचवार के नाटकों का हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला समेत कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. पिछले साल दिल्ली में हुए भारत रंग महोत्सव के दौरान अनिरुद्ध खुटवड के निर्देशन में मैंने इनका लिखा बहुचर्चित नाटक 'विरासत (वाडा चिरेबंदी, 1987)' नाटक देखा था. आजादी के बाद विदर्भ इलाके के सामंती परिवेश में संयुक्त परिवार के विघटन को केंद्र में रख कर लिखा नाटक आज भी उद्वेलित करता है.

हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने उनके लिखे नाटक ‘पार्टी’ (1981) का मंचन किया. उल्लेखनीय है कि गोविंद निहलानी ने नाटक को आधार बना कर इसी नाम से फिल्म भी निर्देशित किया है, जो आज भी लेखकीय समाज और बुद्धिजीवियों की निर्मम आलोचना के लिए याद की जाती है.

भारतीय रंगमंच के नामी निर्देशकों, जैसे इब्राहिम अल्काजी, सत्यदेव दुबे, विजया मेहता, डॉ श्रीराम लागू आदि ने विभिन्न समय पर एलकुंचवार के नाटकों को निर्देशित किया. साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों से सम्मानित एलकुंचवार ने साठ साल के लेखन कर्म के दौरान ने बीस से ज्यादा नाटकों की रचना की है.

एलकुंचवार के नाटकों की विशेषता उनके प्रयोगात्मक शैली में है. सामाजिक-राजनीतिक विषयों को उठाते हुए इन नाटकों में भाषा की मितव्ययिता अलग से रेखांकित की जाती रही है. अल्पविराम, मौन भी यहाँ मुखर होकर बोलता है. इनके किरदार किसी ओढ़ी हुई भाषा में संवाद नहीं करते हैं! मैंने जब उनके लेखन पर पड़े प्रभाव के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ‘हर रचनाकार जिसे मैंने पढ़ा है, उसका प्रभाव मेरे लेखन पर है.’ तेंदुलकर और विजया मेहता के साथ उनके संबंध काफी गहरे रहे.

एलकुंचवार ने कई बार कहा है कि जब उन्होंने विजय तेंदुलकर के लिखे नाटक ‘मी जिंकलो, मी हरलो’ देखा तब नाटक लिखने की इच्छा जागी. वर्ष 1970 में उनका लिखा सुल्तान (एकांकी) मराठी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सत्यकथा’ में छपा, जिस पर विजया मेहता की नजर गई और उन्होंने इसे प्रोड्यूस किया. मैंने पूछा कि आप अपनी कला यात्रा को कैसे देखते हैं, उन्होंने कहा कि 'मैं अभी भी लिख रहा हूँ, पीछे मुड़ कर क्यों देखूं?'.

Sunday, May 11, 2025

करुणा के चितेरे शाजी करुण


कुछ वर्ष पहले कन्नड़ सिनेमा के निर्देशक और समांतर सिनेमा के चर्चित फिल्मकार गिरीश कासारवल्ली से जब मैंने कान फिल्म समारोह में दिखाए जाने वाली फिल्मों के बाबत सवाल पूछा तब उन्होंने ‘पिरवी (द बर्थ 1989)’ फिल्म का नाम लिया था.


इस फिल्म के निर्देशक शाजी एन करुण (1952-2025) हैं, जिनका पिछले दिनों निधन हो गया. पुणे के फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित करुण की फिल्मी यात्रा एक सिनेमैटोग्राफर के रूप में शुरू हुई और जी अरविंदन के वे प्रमुख सहयोगी रहे. उल्लेखनीय है कि मलयालम न्यू वेब फिल्मकारों में अडूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, के जी जॉर्ज प्रमुख फिल्मकार रहे हैं.

समातंर सिनेमा के लिए 70 और 80 का दशक काफी मुफीद रहा था, जिसने विभिन्न भारतीय भाषाओं में हमें उत्कृष्ट फिल्में दिया. 80 के दशक के बाद यह धारा हालांकि कमजोर पड़ गई, पर कुछ फिल्मकारों की सिनेमा को एक कला माध्यम के रूप मे देखने-परखने की प्रतिबद्धता में कमी नहीं आई.

‘पिरवी’ फिल्म के साथ शाजी करुण ने एक निर्देशक के रूप में समांतर धारा के मलयालम चित्रपट पर सशक्त हस्तक्षेप किया था. पिछली सदी में आपातकाल के दौरान एक बेटे के कॉलेज हॉस्टल से लापता होने और एक पिता की अंतहीन प्रतीक्षा को जिस कलात्मक संवेदनशीलता से उन्होंने परदे पर चित्रित किया है वह मार्मिक है. केरल का मानसून इस फिल्म में मानो एक पिता (प्रेमजी) की वेदना का रूपक है. इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले और कान समारोह के दौरान ‘कैमरा द ओर’ में फिल्म की खास तौर पर सराहना हुई थी. बिना किसी शोर के यह फिल्म मानवीय दुख और संत्रास को हमारे सामने लाती है और राजनीतिक-ऐतिहासिक विफलता को पूरी शिद्दत से रेखांकित करती है. पिता के किरदार में प्रेमजी की भावपूर्ण और ढूंढती आँखें फिल्म देखने वालों को देर तक कचोटती है.

पूरे करियर में हालांकि करुण ने बहुत कम फिल्में ही निर्देशित की, लेकिन ये फिल्में उन्हें विश्व सिनेमा के मंजे निर्देशकों की श्रेणी ला कर खड़ा करती हैं. कान फिल्म समारोह में उनकी दो अन्य फिल्में ‘सोहम (1994)’ और ‘वानप्रस्थम (1999)’ भी दिखाई गई थीं. प्रसंगवश, उनकी फिल्मोग्राफी में हिंदी में बनी ‘निषाद (2002)’ भी शामिल है.

स्थानीय भाषा और संस्कृति की भूमि पर खड़ी होकर उनकी फिल्में सही मायनों में भूमंडलीय है. बहरहाल, यहाँ पर हम अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित एक अन्य फिल्म ‘वानप्रस्थम’ की चर्चा करते हैं. यह फिल्म कथकली के एक कलाकार कुंजिकुट्टन के बहाने आजाद भारत में कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सामाजिक (अ)स्वीकृति, तथाकथित निम्न जाति और उच्च जाति के बीच प्रेम, यथार्थ और मिथक के बीच कुशलता से आवाजाही करती है.

इस फिल्म का मुख्य स्वर करुणा है. एक तिस्कृत बालक और पिता के रूप में मोहन लाल (कुंजिकुट्टन) ने जिस सहजता और मार्मिकता से किरदार को निभाया है वह सबके बस की बात नहीं थी. एक कलाकार की त्रासदी हमें मंथती रहती है. करुण की फिल्मों का कथा-वृत्तांत जहाँ बांध कर रखता है वही, ध्वनि, कैमरा, संपादन और संगीत अलग से उल्लेखनीय है. करुण की फिल्में विश्व सिनेमा की धरोहर है, तो इसका कारण यही है.