Sunday, October 05, 2025

हमारे समय का दस्तावेज है ‘होमबाउंड’

कोरोना महामारी के दौरान टेलीविजन के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे कहा कि हम उम्मीद करें कि कोई साहित्यकार हमारे समय की त्रासदी को शब्द देगा. साहित्य शब्दों के जरिए मानवीय भावों- प्रेम, हिंसा, सुख-दुख, पीड़ा और त्रासदियों को वाणी देता रहा है, वहीं सिनेमा बिंब (इमेज) और ध्वनि के माध्यम से. आगे बढ़ कर साहित्य और सिनेमा दोनों ही सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का सशक्त माध्यम भी है.

वर्ष 2020 में कोरोना लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की जो तस्वीरें टेलीविजन और सोशल मीडिया के मार्फत सामने आईं, वे महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए थी. मानवीय जिजीविषा, करुणा, संघर्ष, सामूहिकता और मानवीय सहयोग की तस्वीरों ने ‘देखने’ के हमारे नजरिए को बदल कर रख दिया.

पिछले दिनों नीरज घेवन के निर्देशन में रिलीज हुई फिल्म ‘होमबाउंड’ इन्हीं प्रवासी मजदूरों को केंद्र में रख कर हमारे समय, समाज और राजनीति को टटोलने की कोशिश करती है. भारत की ओर से इस फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार के भेजा गया है. लेखक-पत्रकार बशारत पीर के न्यूयॉर्क टाइम्स (2020) में छपे लेख ‘टेकिंग अमृत होम’ को यह फिल्म आधार बनाती है.

भारतीय समाज के हाशिए पर रहने वाले परिवारों, दो युवा चंदन (विशाल जेठवा) और शोएब (ईशान खट्टर) के सपनों, आकांक्षा और सामाजिक यथार्थ से संघर्ष को बिना किसी सजावट और बनावट के हम इस फिल्म में देखते हैं. मुख्यधारा की सिनेमा के परंपरागत मानकों के सहारे हम इन फिल्मों का रसास्वादन नहीं कर सकते. निर्देशक की कोई मंशा भी ऐसी नहीं कि वे मुख्यधारा की फिल्मों की लीक पर चले. हालांकि जाह्नवी कपूर सुधा के किरदार में मिसफिट लगती है. फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में किसी भी तरह का कोई योगदान इस किरदार का नहीं है.

बहरहाल, बचपन के दिनों के मित्र चंदन और शोएब को सामाजिक अस्वीकृति हर मोर्चे पर मिलती है. यह अस्वीकृति उनके सामाजिक पहचान से जुड़ी है. इन्हें लगता है कि सामाजिक स्वीकृति सत्ता (पुलिस) का हिस्सा बनने के बाद मिलेगी, पर क्या वह आसान है? जाति और संप्रदाय के साथ हो रहे भेदभाव से लिपटा हुआ सवाल बेरोजगारी का भी है.

पिछले पच्चीस साल में आर्थिक उदारीकरण का लाभ मुख्य रूप से मध्यवर्ग को मिला है, समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों के हिस्से, कुछ अपवाद को छोड़ कर, वंचना ही मिली है.

सरकारी मशीनरी का हिस्सा बनने की कोशिश नाकाम होते देख चंदन और शोएब सूरत के कपड़े मिल में मजदूरी करने पहुंचते हैं, लेकिन जब कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन होता है वे वापस घर लौटने को मजबूर होते हैं. पर क्या वे घर पहुंच पाते हैं? घर एक रूपक है यहाँ जिसका वितान समाज और राष्ट्र तक है. घर से समाज और फिर देश में दलित और मुस्लिम समुदाय की (अनु) उपस्थिति का सवाल भी है. जवाब क्षितिज पर दिखता नहीं, मौन का साम्राज्य फैला है.

जहाँ साहित्य में दलित विमर्श है, वहीं मुख्यधारा की फिल्मों में यह आज भी गायब है. इस फिल्म में दो युवाओं के बीच निश्छल प्रेम, सहयोग को बेहद मार्मिकता से रचा गया है. दस साल पहले आई घेवन की फिल्म ‘मसान’ एक अपवाद है, हालांकि यह फिल्म मसान की ऊंचाई को छू नहीं पाई है. कहीं-कहीं संवाद सहज नहीं हैं. सिनेमा की हिंदी (संवाद) और समाज में बरती जाने वाली हिंदी में इतना अंतर क्यों?

इससे पहले अनुभव सिन्हा ने ‘आर्टिकिल 15’ फिल्म में समाज और सत्ता से दलितों के चुभते सवाल पूछे थे. इस फिल्म में बिंबों का बेहद खूबसूरत इस्तेमाल किया गया था, लेकिन ‘होमबाउंड’ में ऐसे दृश्यों का सर्वथा अभाव है जो दर्शकों की स्मृति का हिस्सा बन कर लंबे समय तक रह सके. इस अर्थ में यह फिल्म एक काल खंड का महज दस्तावेज बन कर रह जाती है. मूल स्वर फिल्म का राजनीतिक है, पर कहीं भी सीधे-सीधे राजनीतिक टीका-टिप्पणी नहीं सुनाई पड़ती है. ऐसा क्यों? 

Sunday, September 28, 2025

एक संपूर्ण अभिनेता मोहनलाल


मलयालम सिनेमा के चर्चित फिल्म निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन के बाद मोहनलाल को सिनेमा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

अरुंधती राय ने अपनी किताब मदर मेरी कम्स टू मी में सत्तर के दशक में तमिल और मलयालम फिल्मों का जिक्र करते हुए एक जगह लिखा है जहाँ तमिल फिल्में मायावी दुनिया की तरफ ले जाती थी, वहीं मलयालम फिल्मों का भाव बोध यथार्थ से जुड़ा होता था. 

मोहनलाल की विशेषता है कि वे 'समांतर और मुख्यधारा’ के बीच कुशलता से आवाजाही करते रहे हैं, उनकी स्वीकृति भी दोनों जगह रही है.  मोहनलाल की सिनेमाई यात्रा 1980 में आई फिल्म मंजिल विरिंज पूक्कल’ से शुरू हुई जहां वे विलेन के रूप में नजर आए. जब मैंने मलायलम के चर्चित युवा फिल्मकार जियो बेबी से बात की  तो उनका कहना थायह मेरे लिए सम्मान की बात है कि मैं मोहनलाल के अभिनय करियर के दौरान जीवित हूँ.  उनके कुछ अभिनयउनकी हंसीऔर सिनेमा से बाहर की गई कुछ बातें—इन सबने मुझे एक निर्देशक और इंसान के रूप में गहराई से प्रभावित किया हैमोहनलाल एक चमत्कार हैं—ऐसा चमत्कार जो कभी-कभी ही होता है.’

पिछले चार दशक से वे मलयालम सिनेमा का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और तीन सौ से ज्यादा फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया है. मोहनलाल की तुलना मलयालम फिल्मों के ही सफल अभिनेता ममूटी से की जा सकती है जिनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल रही हैं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी हुई.

राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म किरिदम’ (1989) में एक सामान्य जिंदगी जी रहे युवा के किरदार को उन्होंने निभाया है, जिसकी ख्वाहिश सब इंस्पेक्टर बनने की है पर वह सामाजिक कुचक्र में फंसता चला जाता है जहाँ हिंसा का साम्राज्य है. मोहनलाल ने यथार्थपरक शैली में बिना किसी मेलोड्रामा के खूबसूरती से इस ट्रैजिक किरदार को अंगीकार किया है. इसी तरह शाजी करुण की पुरस्कृत फिल्म वानप्रस्थम (1999) में एक तिस्कृत बालक और पिता के रूप में मोहनलाल (कुंजिकुट्टन) ने जिस सहजता और मार्मिकता से किरदार को निभाया है वह सबके बस की बात नहीं थी. एक कलाकार की त्रासदी हमें मंथती रहती है.

यह फिल्म कथकली के एक कलाकार के बहाने आजाद भारत में कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थितिसामाजिक (अ)स्वीकृतितथाकथित निम्न जाति और उच्च जाति के बीच प्रेमयथार्थ और मिथक के सवालों को घेरे में लेती है.

सिनेमा के साथ ही उन्होंने रंगमंच पर भी अपनी प्रतिभा के जादू से लोगों को सम्मोहित किया है. वर्ष 2001 में दिल्ली में हुए कर्णभरम (के एन पणिक्कर) नाटक की चर्चा लोग आज भी करते हैं.  पिछले दिनों रोमांटिक कॉमेडी हृदयपूरवम में वे नज़र आए. जबकि इरुवरकालापानी, दृश्यम जैसी फिल्मों ने उन्हें अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित किया. मोहनलाल एक संपूर्ण अभिनेता हैं, जिनके अभिनय के कई रंग रहे हैं. करुण, हास्य, रौद्र सब तरह के भाव इसमें समाहित हैं. मलयालम के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी उन्होंने अभिनय किया है, पर यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि उनकी प्रतिभा का वह समुचित इस्तेमाल अभी तक नहीं कर पाया है.

Monday, August 11, 2025

दृश्य है मगध की‌ संस्कृति यहां



प्रवासी होने की पीड़ा है कि आप घर में रह कर बेघर होते हैं.  पिछले दस सालों में पटना जब भी आया महज दो-चार घंटे के लिए. इन वर्षों में बिहार संग्रहालय देखने की उत्कट चाह रही.

 

बिहार म्यूजियम बिनाले 2025 ने मुझे यह अवसर दिया. असल में दस सालों में बिहार संग्रहालय ने देश और दुनिया में अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है 

 

मुझे पेरिस, लंदन, पर्थ, लिंज, वियना, म्यूनिख, शंघाई आदि शहरों के संग्रहालयों को देखने का मौका मिला है. अपने सीमित अनुभव के आधार पर मैं कह सकता है बिहार संग्रहालय विश्व स्तरीय है. हैदराबाद से बिनाले में भाग लेने आए संस्कृतिकर्मी सी वी एल श्रीनिवास ने मुझसे कहा कि सच पूछिए तो देश में भी ऐसा कोई संग्रहालय नहीं है.

 

वास्तुशिल्प, परिकल्पना, खुले स्पेस, कला दीर्घाओं के संयोजन में बिहार संग्रहालय का कोई जोर नहीं. बिहार की प्राचीन सभ्यता और कला-संस्कृति के साथ-साथ आधुनिक कला-संस्कृति का यह घर वास्तव में एक ग्लोबल विलेज है.

 

आश्चर्य नहीं कि इस बिनाले (जिसका आयोजन हर दो साल पर हो) की परिकल्पना के केंद्र में ग्लोबल साउथइतिहास की साझेदारी’ है.

 

संग्रहालय में विभिन्न भाव-भंगिमाओं में बुद्ध, सम्राट अशोक के शासन काल के दौरान बनाए गए दीदारगंज की बहुचर्चित यक्षी की प्रतिमा आदि कला प्रेमियों को आकर्षित करता है.


कवि श्रीकांत वर्मा ने अपनी बहुचर्चित मगध कविता में लिखा है: 'वह दिखाई पड़ा मगध, लो, वह अदृश्य'. यहां मगध की सांस्कृतिक विरासत इतिहास के पन्नों से निकल कर अपनी  कहानी खुद बयान करती है. साथ ही क्षेत्रीय और लोक कलाओं का दीर्घा भारत की बहुस्तरीय रचनात्मकता और आधुनिक भाव बोध को दर्शाता है.



मगध बौद्ध सभ्यता का केंद्र था और मिथिला वैदिक सभ्यता का. आधुनिक भारत में मिथिला कला अपनी लोक तत्वों के अनूठेपन के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान बना चुकी है. समकालीन कला के साथ-साथ मिथिला लोक कला को जगह देकर यह संग्रहालय अपने वृहद दृष्टि का परिचय देता है. यहाँ पर यह नोट करना उचित होगा कि जापान स्थित मिथिला म्यूजियम में मिथिला कला की मूर्धन्य कलाकारों मसलन, गंगा देवी, सीता देवी गोदावरी दत्त, बौआ देवी आदि की पेंटिंग संग्रहित है. क्या ही अच्छा हो कि बिहार म्यूजियम उसे देश में लाने की पहल करे!


बहरहाल, यह बिनाले सिर्फ कला-संस्कृति के प्रदर्शनी तक सीमित नहीं है, जो कि हर बिनाले का मूल तत्व रहता आया है. जैसा कि आयोजन के कर्ता-धर्ता कहते हैं, 
यह बिनाले पूरी तरह संग्रहालय केंद्रित है जो वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक संस्थाओं की बुनियादी संरचना को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास करता है.’ सेमिनार के दौरान हुए संवाद में वक्ताओं ने ग्लोबल साउथ के देशों के बीच आपसी अनुभवों की  साझेदारी और एकजुटता पर जोर दिया. 

 

पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के विकसित देशों की तरफ से भूमंडलीकरण पर जिस तरह से सवाल उठाए जा रह हैं और भू-राजनीति  तेजी बदल रही है ग्लोबल साउथ के देशों के बीच न सिर्फ राजनीति बल्कि कला-संस्कृति को लेकर समन्वय और सामंजस्य समय की मांग है.  

 

इस बिनाले में विभिन्न सभ्यताओं में मुखौटे की अवस्थिति को लेकर बेहद दिलचस्प दीर्घा सजाई गई है. मुखौटे की उत्पत्ति को लेकर कलाकारों में सहमति नहीं है, पर भारत की बात करें तो हड़प्पाकालीन सभ्यता में भी टेराकोटा के मुखौटे मिलते हैं. प्रदर्शनी में चिरांद, बिहार में मिले पहली-दूसरी शताब्दी के टेराकोटा मास्क शामिल है. मास्क के बारे में रेखांकित किया गया है कि यह आदमकद मास्क भारत की प्राचीन मास्कों में से एक है.’  मुखौटे का इस्तेमाल झाड़-फूंक, जादू-टोने, रीति-रिवाज , अनुष्ठान, अभिनय आदि में सदियों से चला आता रहा है और आज भी कायम है. आधुनिक कलाकारों, मसलन, सचिंद्रनाथ झा  की गंगा घाट (मास्क) नाम से कलाकृति परंपरा और आधुनिकता के बीच एक पुल की तरह दिखाई देती है. असल में मुखौटा जितना छिपता है उससे ज्यादा कहीं उजागर करता है. मुखौटा एक रूपक है!

 

साथ ही प्रदर्शनी में भारत के अलावे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की सभ्यता-संस्कृति में रामकथा की उपस्थिति  को लेकर विश्वरूप रामरामायण की सार्वभौमिक विरासत’  नाम से एक अलग दीर्घा है. इंडोनेशिया की चर्चित छाया कठपुतली में वायांग क्लितिक’ में राम की नृत्यकारी मुद्राएँ हैं. भारतीय कथा में पुरुषोत्तम राम को धीरोदात्त नायक के रूप में ही चित्रित किया जाता रहा है, राम की यह मुद्रा अह्लादकारी है!

 

वर्तमान में उत्तर औपनिवेशिक देशों में ज्ञान के उत्पादन के क्षेत्र में विउपनिवेशीकरण पर जोर है. बिनाले में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देश भाग ले रहे हैं जिनका इतिहास उपनिवेशवाद से संघर्ष का रहा है. इंडोनेशिया के अलावे श्रीलंका, कजाख्स्तान, इथोपिया, मैक्सिको, अर्जेंटीना, इक्वाडोर, पेरु और वेनेजुएला के साथ देश के तीन संस्थान- नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और मेहरानगढ़ म्यूजियम आयोजन में  शामिल है.

 

प्राचीन काल में बिहार की एक पहचान ज्ञान के केंद्र की रही है. बिहार म्यूजियम बिनाले का तीसरा संस्करण साल के आखिर तक संस्कृतियों के मेल-जोल और वाद-विवाद-संवाद का मंच बना रहेगा. विश्वविद्यालय की चाहरदिवारी से बाहर कला-संस्कृति में आम लोगों की यहां हिस्सेदारी सुखद है.


(एनडीटीवी के लिए)

Monday, August 04, 2025

गुजिश्ता खुशबुओं के दिन: कैफी और मैं


पुणे में व्यावसायिक मराठी रंगमंच काफी संवृद्ध है, वहीं हिंदी और अंग्रेजी नाटकों का भी एक अलग दर्शक वर्ग है.

पिछले दिनों चर्चित अदाकार नसीरुद्दीन शाह अपना नाटक द फादर’ लेकर आए थे, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा. वहीं रविवार को पुणे के रंगमंच पर मशहूर अदाकारा शबाना आजमी दिखाई थी. खचाखच भरे सभागार में दर्शकों का उत्साह देखते बना.

असल में,  रमेश तलवार निर्देशित बहुचर्चित नाटक कैफी और मैं’ में शबाना आजमी एक बार फिर से दर्शकों से रू-ब-रू थी. यह नाटक अपने बीसवें साल में है. अगले महीने वे पचहत्तर वर्ष की हो जाएँगी, ऐसे में रंगमंच पर उनकी सक्रियता थिएटर को लेकर उनके जुनून को दिखाता है.

संस्कृतिकर्मी और अदाकार शौकत आजमी की आपबीती याद की रहगुजर और कैफी आजमी के साक्षात्कारों, खतो-किताबत को यह नाटक समेटे है जिसे जावेद अख्तर ने बुना है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है शौकत के नजरिए से कैफी और उनके संबंधों, कैफी की शायरी, उनके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार यहाँ दिखाई देते हैं.

शौकत की भूमिका में शबाना आजमी और कैफी की भूमिका में कंवलजीत सिंह मंच पर थे. पर ऐसा नहीं कि यह नाटक केवल दो तरक्कीपसंद लोगों के आपसी प्रेम संबंधों का दस्तावेज बन कर रह गया है, बल्कि इसके मार्फत मानवीय मूल्यों, सहजीवन और आजाद भारत के सपनों की अभिव्यक्ति भी यहाँ मिलती है. एक ऐसे दौर को हम जीते हैं, जो अतीत का पन्ना हो चला है. हमारे हिस्से महज खुशबू रह गई है!

कैफी की जीवन यात्रा के कई रंग हैं. वे उर्दू के प्रगतिशील धारा के प्रमुख शायर रहे और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अग्रणी स्वर. वहीं हिंदी सिनेमा के लिए उन्होंने जी गीत रचे, वे हमारी थाती हैं. आश्चर्य नहीं मंच पर उनके लिखे गीतों के टुकड़ों को जसविंदर सिंह ने गाया और दर्शक उनसे पूरा गाने की फरमाइश करते रहे.

चर्चित अदाकार जोहरा सहगल ने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के शुरुआती दिनों को याद करते हुए लिखा है कि हर एक कलाकार जो बंबई (मुंबई) में 1940 और 1950 के बीच रह रहा थावह किसी न किसी रूप में इप्टा से जुड़ा था. गीत-संगीतनृत्यनाटक के जरिए मौजूदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत और फासीवाद से लड़ने के लिए इप्टा का गठन किया गया थाजिसके केंद्र में मेहनतकश जनता की संस्कृति थी. कैफी के साथ शौकत भी इप्टा से एक अदाकार के रूप में जुड़ी थी. देश विभाजन को आधार बना कर बनी फिल्म गर्म हवा’ (1974) में उनका अभिनय आज भी याद किया जाता है.

सज्जाद जहीर, चेतन आनंद, के ए अब्बास, सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई, मजरूह सुल्तानपुरी, दीना पाठक, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, कृष्ण चंदर जैसे उर्दू-हिंदी साहित्य के कद्दावर नाम इस नाटक में लिपटे चले आते हैं. इस तरह से यह नाटक साहित्य-सिनेमा के एक सुनहरे दौर का वृत्तांत भी रचता है.  


इस साल गुरुदत्त की जन्मशती मनाई जा रही है. कागज के फूल के लिए कैफी आजमी के लिखे गीतवक्त ने किया क्या हंसी सितम’ और बिछड़े सभी बारी बारी’ को समीक्षकों ने रेखांकित किया. जहाँ ये गीत लोगों की जबान पर बस गए, वहीं फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई. उन्हें सफलता मिली चेतन आनंद की फिल्म हकीकत के लिखे गानों के साथ, जो बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही और चेतन आनंद-मदन मोहन-कैफी आज़मी की जोड़ी चल निकली.

कैफी ने पहली नज्म महज  ग्यारह साल की उम्र में पढ़ी थी. मुंबई आने से पहले ही उनकी प्रसिद्धि औरत नज्म (उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे...) से फैल चुकी थी. इसी नज्म को सुन कर शौकत ने ठान लिया था कैफी ही उनके जीवन साथी बनेंगे और उन्होंने उनके साथ बंबई के एक 'होल टाइमर कम्युनिस्ट' के साथ कम्यून में रहने  का फैसला किया.

जब कैफी समाज के हाशिए पर रहने वालों के साथ काम कर रहे थे तभी उन्होंने मकान नज्म लिखा था. जब मंच से कैफी के इन नज्म से इन पंक्तियों का पाठ किया गयाआज की रात बहुत गर्म हवा चलती है/आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी/सब उठोमैं भी उठूँ तुम भी उठोतुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी, तब लगा कि किस तरह उनकी कविता समकालीन है. कैफी जैसा रचनाकार समय-सीमा के परे है.

इन नाटक के लिए मंच पर बेहद कम साजो-सामान का इस्तेमाल किया गया. फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'तुम्हारी अमृतानाटक में हमने शबाना को देखा है. इस नाटक में अमृता और जुल्फी के बीच प्रेम प्रसंग को खतों के माध्यम से संवेदनशील और मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है. ठीक वही शैली इस नाटक में भी अपनाई गई है. जहाँ शौकत के किरदार में शबाना ने प्रभावित किया वहीं ऐसा लगा कि कंवलजीत कैफी ने किरदार के लिए तैयारी करके नहीं आए थे. कई बार संवाद अदायगी में वे फिसले. वे रसास्वादन में बाधा बन कर सामने आया. उल्लेखनीय है कि कैफी के किरदार को जावेद अख्तर निभाते रहे हैं, हमने उन्हें मिस किया. 

आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव में जन्मे कैफी आजमी भले गाँव से वर्षों से दूर रहे, पर उनकी शायरी में गाँव-जवार रचा-बसा रहा. वर्षों बाद वे गाँव लौटे और शौकत के साथ मिल कर घर बनाया, बच्चों के लिए स्कूल, सड़क और अन्य सुविधाओं के लिए लड़ाई लड़ी थी.

याद आया कि पाँच साल पहले मी रक्सम’ फिल्म कैफी के पुत्र बाबा आजमी से निर्देशित किया और शबाना आजमी ने प्रस्तुत किया था. इस फिल्म में निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार के जीवन और संघर्ष का चित्रण है. मी रक्सम’ फिल्म आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव के आस-पास अवस्थित है. मिजवां के दृश्य मोहक हैं. बकौल बाबा आजमी एक बार कैफी आजमी ने उनसे पूछा था कि ‘क्या तुम कोई फिल्म मिजवां में शूट कर सकते हो?’

फिल्म की तरह ही यह नाटक मशहूर शायर, नग्मा-निगार और मानवीय मूल्यों को लेकर प्रतिबद्ध कैफी के प्रति श्रद्धांजलि है.


(एनडीटीवी के लिए)